मेरे मन कछु और है बिधना के कछु और
मैं तीन दिनों से उस विषय पर बात करना चाहता हूं जिसे हमने अपने अभियान के लिए चुना। कर नहीं पा रहा। कई तरह के व्यवधानों के कारण। फिर भी हम सोचते है कर्ता हम हैं जो चाहें कर सकते हैं। आज की शाम चेगुआरा पर इंटरनेट पर एक लेख पढ़़ने में गुजर गया। एक दूसरा लेख आइंस्टाइन पर आज ही पढ़ना पड़ा जिसमें वह धर्मशास्त्रों के ईश्वर को नहीं मानते परन्तु विश्व ब्रह्मांड में क्षुद्रतम से लेकर महत्तम तक एक अचूक और सर्वत्र विद्यमानता की प्रतीति , उस शक्ति के अणु परमाणु में उपस्थिति को देखकर किसी निर्वचनीय सत्ता कों एक प्रमेय के रूप में मानते हैं। मैं यहाँ नासदीय सूक्त की याद दिला कर आप्तकाम नहीं होना चाहता परन्तु हमारा सबकुछ व्यर्थ था. पश्चिम के उन्नत ज्ञान के समकक्ष न था इसे भी नकारते हुए आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता को रेखांकित करना चाहता हूँ. वह हो पाए तो.
आज का दिन भी बीता पर सार्थकता के साथ .