दिमाग उसका है लेकिन जबान मेरी है
यह टिप्पणी मैंने कुछ आवेश में लिखी. यह एक व्यक्ति की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया होते हुए भी केवल उसी पर केंद्रित नहीं है, बल्कि मुझे उन सज्जन का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अपनी कुरेद से इसका अवसर दिया. यह उन सभी लोगों पर प्रहार है जो मार्क्सवादी तेवर और फासीवादी तरीके अपनाते हैं.
सड़े हुए दिमाग में चन्दन भी डाल दो तो वह बदबू लेकर बाहर निकलेगा। पहले दिन से जो केवल नफरत ही करते आए उनकी अपनी सड़ाध ही लगातार बाहर आती रही और वे समझ नहीं पाए कि वे जिसे उखाड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं और वह जमता क्यों जा रहा है। पूरे देश को क्या दीख रहा है जिसे वे देख नहीं पा रहे, यह सोचने तक की बुद्धि इसलिए नहीं कि नफरत ने उसको दबोच लिया है, वह विचार को बदबूदार बना देती है। बदबू उनके भीतर है उन्हें लगता है बाहर से आ रही है। ऐसा न होता तो गर्ग जी जैसे वरिष्ट और ज्ञानी व्यक्ति को यह तो दिखाई देता कि मोदी पहला आदमी है जो स्वच्छता की तरह ही स्किल डेवलपमेंट को अपनी टेक बनाए हुआ है। रोजगार मांगने की जगह लोग अपने रोजगार चलाएं, इसके लिए उनको प्रोत्साहित करता है, गांधी के यन्त्र विमुख कुटीर उद्योग की जगह विद्युतचालित लघु इकाइयों के लिए कर्ज का अभियान चलाया, लोग सरकार पर निर्भर भिखरियों की जगह आत्मनिर्भर बनें जो पूरे इतिहास में रहे है। केवल उन उपक्रमों के लिए जिनका संबंध यातायात, प्रतिरक्षा आदि से है जहां भारी और इन्नोवेटिव प्रविधि की उपरिहार्यता है, पूंजीपतियों को देश में निवेश करने, विदेशियों को अपने सामान इस में बनाने, इसे बाजार के स्थान पर उत्पादक देश बनाने, कमीशनखोरी को कम करने, आदि की दूरदर्शिता दिखाई। इनमें से कुछ दिखाई न दिया, दिखाई दिया और उसमें दोष दिखाई दिया तो उसकी आलोचना तक नहीं की, सड़क के किनारे की पुलिया पर बैठ कर आते जाते लोगों पर फिकरे कसने वाले छोकरों की भाषा में मेरे निवेदन के बाद ही फिकरे कसते हैं, तो आप स्वयं सोचें कि इस देश की दुर्गति में कितनी भागीदारी कांग्रेस की रही है और कितनी ऐसे फिकरेबाज बुद्धिजीवियों की रही है।
यही वह बिंदु है जहाँ महाकार यंत्रो के का एक पुर्जा बन कर पहले के अमानवीकरण और आज के पिस्सूकरण के विरुद्ध मार्क्स का विरोध, उनकी इस समझ की कि लोकतंत्र समाजवाद का यात्रापथ है, गांधीवाद, आधुनिकता और साम्यवाद का भविष्य – क्योंकि मार्क्स के अनुसार भी समाजवाद पूंजीवाद के बाद की और उसके निःसत्व हो जाने की स्वाभाविक परिणति या ऐतिहासिक अनिवार्यता है – सभी का संगम. यह भी एक व्यंग ही है की इतना गुरुभार वह व्यक्ति निभा रहा है जो मार्क्सवाद का ककहरा न जानता होगा, उस संगठन से निपजा है (कबीर की नकल पर कह दिया, पता कीजिये शब्दवेधी विद्वानों से प्रयोग गलत तो नहीं हो गया) यह नाचीज उस ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर रहा है जिसे लक्ष्य करके मैंने बहुत पहले कहा था यह व्यक्ति स्वतः कुछ न होकर भी इतिहास की मांग है. इतिहासपुरुष है.