हर आदमी को मयस्सर तो हो इंसां होना
मुझे साम्यवाद का एक ही पक्ष सबसे आकर्षक लगता रहा और वह है उसका मानवतावाद । समस्त मानवता का यातना, अपमान और अभाव से मुक्ति और मानवीय गरिमा की सार्वभौम प्रतिष्ठा। मात्र रोजगार नहीं, यन्त्र के साथ काम करते करते आदमी का स्वयं उसके एक पुर्जे में बदल जाना, उसी काम को बिना किसी आनन्द के, बिना सर्जनात्मक उल्लास के करते जाना भी, उसका अमानवीकरण है।
अमानवीकरण की समस्त प्रक्रिया में कोई इंसान बन कर, अपने काम के साथ वह सर्जनात्मक उल्लास अनुभव करता प्राणी बन कर नहीं रह पाता। वह भी नहीं जिसने अपार जोड़ रखे हैं जिसका उसके जीवन में कोई उपयोग नहीं, जो मनोबाधा या फीटिश का रूप ले चुकी है, आनन्द का एक क्षण नहीं परन्तु उसके स्थानापन्न अभिमान की पूर्ति। भारतीय पूंजीपतियों में पिछली पीढ़ी के कुछ पूंजीपतियों में यह आनन्दानुभूति किसी सीमा तक बनी रही थी, जिनमें टाटा, बिरला, बजाज, साहूजैन आदि का नाम लिया जा सकता है। इसका कारण मेरी समझ से यह कि वे राष्ट्रवादी पूंजीपति थे जिनको भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन ने आगे बढ़ने न दिया और क्रमशः कोलैबेारेटर बना दिया। परन्तु नई पीढ़ी के अडानी, अंबानी, मित्तल जैसे पूंजीपति अन्तर्राष्ट्रवादी पूंजीपति हैं, पहले का अपना देश था, अपनी भाषा थी, अपनी संस्कृति थी और अपना इतिहास था जिसकी उसे चिन्ता पूंजी के समानान्तर बनी हुई थी, दूसरे के पास केवल पैसा है और उसे वह दुनिया के किसी देश में लगा कर वहां से अपना धन बढ़ा सकता है। उसके लिए उसका अपना देश भी मात्र बाजार है, जैसे किसी अन्य देश के पूंजीपति के लिए। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने इन्हीं के लिए रास्ता तैयार किया।
जो लोग मार्क्सवाद को निरे भौतिकवाद में उतर कर समझना चाहते हैं वे पूंजीवादी औजारों से मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं जिसमें कला, साहित्य, चिंतन, उत्सर्ग और वलिदान सभी को उसके सृजनात्मक उल्लास, आत्मिक आनंद, और गौरव से शून्य करके चकित करने वाले करतब में reduce कर दिया जाताहै. मार्क्सवाद के साथ मनुष्य का आत्मिक उत्थान उसी तरह जुड़ा हुआ है जैसे उसकी पूर्व शर्त, भौतिक आवश्यकताओं की सम्मानजनक पूर्ति. कम से कम मैं मार्क्सवाद को इसी रूप में लेता रहा हूँ और इसी के कारण अपने को भारत के विरल मार्क्सवादियों में एक मानता आया हूँ. और कम्युनिस्ट पार्टियों को मार्क्सवाद के सारतत्व से अनभिज्ञ करार देता रहा हूँ. मास प्रोडक्शन, बड़े उद्योग में मनुष्य का अमानवीकरण अनिवार्य है. यह यंत्रसाधित गांधीवादी कुटीर उद्योग में ही संभव है, इसलिए मेरे लिए दोनों में विरोध है ही नहीं. वही बेरोजगारी की भी दवा है और परिवार नियोजन का भी. यह अकादमिक कसौटी पर गलत हो तो भी यह मेरी समझ है. मेरा मार्क्सवाद.
मोदी के आज के आर्थिक निर्णयों का इसी दृष्टि से मूल्यांकन होना चाहिए जिसकी योग्यता मुझमें नहीं है।