Post – 2017-06-13

पहाड़ पर जमीन की बात

भूमिका

मुझे ऊंचाइयों से घबराहट होती है । हर तरह की ऊंचाई से। गो बचपन में आम के लोभ में पेड़ों पर खूब चढ़ता था। जवानी में एक बार जब इतनी भारी ओला वृष्टि हुई थी कि मसूरी की गनहिल पर एक हफ्ते तक चमकती रही थी, अकेले बिना किसी को बताए बिना किसी से सलाह लिए बर्फ पिघलने से पहले पीछे के रास्ते से बचते बचाते चढ़ गया था और एक बार मसूरी लाइब्रेरी से देहरादून तक अपने से उम्रदराज लाइब्रेरियन के साथ उतर कर उनके घर तक पैदल उतर कर आया । पैदल उतरने की खबर से उनके बच्चों ने उनको खूब झिड़का था। वापसी पर वे बस पर बैठा कर ही निश्चिन्त हुए थे, पर उनकी चिन्ता की चिन्ता न करते हुए उनके। ओझल होते ही बस से उतर लिए थे और अपने अपने काटेज जो लाइब्रेरी से नीचे था, पैदल ही वापस आए थे। बस, इससे बड़ा खतरा कभी मोल न लिया । पहाड़ पर पहुंच कर ही पता चलता है कि समतल का सुख क्या है। स्वभाव से मै यात्रा भीरु हूं और इस मामले में एक सीमा तक मेरे आदर्श कांट है। अन्तर यह कि उन्होंने ने किन्हीं कारणों से इसे सिद्धान्त का जामा महना कर अपने को एक अदृश्य कारा में बन्द कर लिया था और मैं इस ग्रन्थि से मुक्त रहा । समतल और सीधा रास्ता मुझे अधिक रास आते हैं। एक तुकबन्दी जो ऐसी ही किसी मनस्थिति में की थी उसकी दो पंक्तियां याद आ रह हैं और पहले की पंक्तियों को गढ़ कर जोड़ रहा हूं:
कभी धड़कन कभी थिरकन कभी सरगम बना रखना
कभी नारा कंभी पर्चा कभी परचम बना रखना
जहां ऊंचाइयां उंचाइयों को तोड़ जाती हैं
मेरे मालिक मुझे उन आसमानों से बचा रखना ।