पहाड़ पर जमीन की बात 2
धोखा पहाड़ पर भी
मैं मोदी का पक्षधर हूं, प्रशंसक नहीं। मेरी समझ में यह नहीं आता कि जिस व्यक्ति ने, एकमात्र चूक को बाद के ग्यारह साल के शासन में दुहराया नहीं
रा नहीं, मोदी का विरोध हिन्दू समाज के प्रति, हिन्दू बुद्धिजीवियों द्वारा गोएब्बेल्स की तर्ज पर लगातार वितृष्णा पैदा की गई जब कि उसकी कमियों की आलोचना करनी चाहिए थी। आलोचना ओषधि का काम करती है, वितृष्णा और घृणा विष का। एक में कारण और निदान होता है, तर्क और प्रमाण होता है, दूसरे में किसी भी परिघटना का ऐसा विदू्रप जिसमें बुद्धि स्वतऩ्त्र नहीं रह पाती और अपनी वितृष्णा के लिए बहाने जुटाती है।
यदि हिन्दू समाज में विकृतियां आई हैं तो उनमें से कितनी कब से किन कारणों से आई हैं इसका विवेचन होता तो उन विकृतियों में कमी आई होती, यदि वे बढ़ी हैं तो बुद्धिजीवियों ने अपने कर्तव्य की गुरुता को नहीं समझा, या समझते हुए भी किसी पक्ष के अंषभागी हो कर अपने को अपने ही समाज के दूसरों से उूपर, विशिष्ट मानते रहे और इस स्थिति में प्रसन्न और तृप्त थे। यह बात पत्रकारों, अध्यापकों, लेखकों, सभी पर एक समाज लागू नहीं हो सकती परन्तु अपने तबके के वाचाल जनों के आतंक में जो अंशभागिता से प्रसन्न थे वे भी अनुकूलित होने को बाध्य थे अन्यथा उनको बुद्धिजीविता की सनद न मिल पाती। यह छोटा प्रलोभन भी बुद्धि को तिलांजलि देने के लिए पर्याप्त होता है।
कांग्रेस इस देश की अकेली पार्टी है जिसका चरित्र लोकतन्त्रविरोधी, भितरघाती और एकतान्त्रिक रहा है, और यह कमजोरी उसमें आरंभ से ही आ गई थी।
ऐसा न होता तो केरल की नम्बूदरी जनतांत्रिक सरकार को गिराने का षड्यन्त्र न रचा गया होता, वैकल्पिक नेतृत्व को उभरने से न रोका गया होता, काजराज प्लान आदि की जुगत से अपनी राय रखने वालों को अखाड़े से बाहर न किया गया होता, युवातुर्कों को हमलावर बना कर बाहर करके पुरानी कांग्रेस और युवती कांग्रेस का दो फा़ड़ बंटवारा न किया गया होता, उत्तरपूर्व से लेकर कष्मीर तक की समस्याओं का वह रूप होता कि जिसमे नागरिक अधिकारों और शान्ति और व्यवस्था की खाई इतनी गहरी है कि नया विकल्प तलाषना असंभव सा प्रतीत होने लगा है, जनता सरकार के चुने जाने के बाद उसे उसी धैर्य से काम करने दिया गया होता जिस धैर्य से दूसरे दलों ने कांग्रेस के बहुमत में आने पर उसे काम करने दिया और जो भी भूमिका निभाई वह संसद के भीतर आलोचनात्मक विपक्ष का, उसके नेताओं की लालसाओं को उकसाकर उनके साथ बारी बारी से विष्वासघात करके सरकारैं गिराई गई होतीं। कांग्रेस बिना सत्ता के रह नहीं सकती क्योंकि इसका काडर उस भ्रष्ट तन्त्र पर पलता रहा है जिसके विचित्र गणित के अनुसार राजीव गांधी के शब्दों में केन्द्र से चला रुपया अपने गन्तत्व तक पहुंचने पर 10 पैसा रह जाता है। अधिक समय तक प्रवाह बन्द होने पर वह काडर तक साथ छोड़ जाएगा क्योंकि वह सिद्धान्त पर नहीं परनाली पर पला है। मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में उनका मानमर्दन करते हुए जिस तरह की लूट आरंभ हुई वह जग जाहिर है। परन्तु जो ध्यान से ओझल रहा वह था उस कैथोलिक अभियान में आई तेजी जिसके लिए सोनिया जी ने भारतीय प्रधानमन्त्री के गृह योजनाबद्ध तरीके सें बधू रूप में प्रवेश किया था। घोटाले न होते तो कांग्रेस को अपदस्थ करना कठिन था। यह अभियान नियन्त्रण से बाहर हो जाता और अपने ही देश में देशविमुखता का ऐसा विस्तार हो जाता जिसे नाम तब भी सेक्युलरिज्म का दिया जाता, पर जो भारतीय समाज और उसके धर्मान्तरित ईसाइयों तक के दूरगामी हितो को देखते बहुत अनिष्टकर होता।
कांग्रेस लालित साहित्यकारों का मुखौटा वाम रहता है क्योंकि कांग्रेस का पहला और अन्तिम बौद्धिक चेहरा नेहरू थे, दूसरे बुद्धिजीवी उनके जीते जी साथ छोड़ गए थे या किनारे कर दिए गए। नेहरू स्वयं मान चुके थे (चाणक्य उपनाम से उनका लेख) कि उनमें तानाशाही मनोवृत्ति है और बाद में कहा था, क्योंकि उन्होंने स्वयं इसे भांप लिया था इसलिए इससे मुक्त हो गए है, पर दुर्भाग्य से मनोवृत्तियां भांपने से मुक्ति नहीं देतीं, अपने नए आवरण तैयार कर लेती हैं।
चलनी उनकी और केवल उनकी थी इसलिए उनके साथ कोई दूसरा बुद्धिजीवी चल नहीं सकता था। बुद्धिजीवियों ने समाजवाद और साम्यवाद का वादा करने वालों का चेहरा अपनाना पसन्द किया इसलिए नाम भले नेहरू से जुड़ा हो विश्वविद्यालय में वामपन्थी तेवर ही हावी रहा है और वह लफ्फाजी और भड़काउू नारेबाजी, नाटकबाजी से आगे कभी नहीं बढ़ा। वामाकार अवसरवादियों की इतनी सधी हुई जमातें किसी अन्य संस्था ने न पैदा की होंगी जितनी जेएनयू और उसी की तर्ज पर चलने और उसी की नकल करने वाले केन्द्रपोषित विष्वविद्यालयों ने।
कांग्रेस नेहरू और फिर नेहरू-गांधी और अन्ततः सोनिया गांधी की विरासत का दूसरा नाम रही है, यह आरंभ में खुले और चमकदार अक्षरों में लिखा जा चुका था परन्तु चमक के कारण वह पढ़ा नहीं जा रहा था, खुली लूट ने चमक को इतना कम और इबारत को इतना स्पष्ट और मुखर कर दिया कि अब वह अन्धों द्वारा भी पढ़ी और बहरों द्वारा भी सुनी जा सकती थी। मेरा पदीय काम चाकरी की शर्तो से जुड़ा रहा जिसका सम्मान करते हुए अपने उच्च अधिकारियों के प्रति विनम्रता के बाद भी उनकी मनमर्जी से बचता रहा परन्तु और कार्यभार से मुक्ति के बाद वहां के समय से लेकर अपने निजी समय के बौद्धिक को स्वयं एक राजनीतिक काम मान कर करता आया और उस राजनीति से मैं कभी पीछे नहीं हटा। वह किसी दल से जुड़ा नहीं, अन्तश्चेतना से जुड़ा है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता परन्तु मेरे लेखन से समझा जा सकता है।
परन्तु मुझ जैसे सक्रिय राजनीति से विमुख व्यक्ति को भी कांग्रेस के अन्तिम पांच वर्षों ने पक्षधर बना दिया। पक्ष बहुत साफ था। कांग्रेस छोड़ कोई भी। राजवंश मुक्त कांग्रेस भी। और चुनाव निकट आने पर जब यह साफ हो गया कि मोदी का रास्ता रोकने वाला कोई नहीं, और सभी बुद्धिजीवी मोदी के सत्यानाश की कामना करने लगे, मैं मोदी के साथ था। मोदी के साथ होना लोकतन्त्र के साथ होना था। उन आकांक्षाओं और विश्वासों के साथ होना था जिसके आधार पर भारतीय जन इस सभी संभव विकल्पों में से इस व्यक्ति क को चुन रहा था और यह चुनाव से पहले भारतीय क्षितिज पर इतना साफ उभर आयाा था कि इससे आतंकिंत हो कर मनौतियां माान और फब्तियां कस रहे थे।
यह ऐसा चुनाव था जिसके संकेत बस्तनवी के मूल्यांकन में मिल चुके थे जिसे मुसलमान पढ़ने में चूक गए। बस्तनवी राजनीति नहीं करते, राजनीति करने वाले वृत्रवध के लि, मुर्दो की हड्डियों से वज्र बनाने की कला जानते हैं, समाजनीति करने वाले जिन्दा लोगों के लिए नए रास्ते बनाने की सोच रखते हैं। यह छोटा सा फर्क है जो इरादे नेक होते हुए भी रास्ते अलग कर देता है।
कलम भांजने वालों में सभी स्वर एक, मोदी किसी कीमत पर नहीं, अकेला विसंवादी स्वर, कांग्रेस किसी कीमत पर नहीं । कुल मिला कर निर्णय नकारात्मक पक्षों को लेकर ही हुआ। मैं मोदी का वैदिक अर्थों में अधिवक्ता बन कर खड़ा हो गया।
मैंने सोचा था यह चर्चा के केन्द्र में होगा। यही सोच कर गया भी था। लिखित प्रतिवाद न सही, चर्चा में यह तो समझ आए कि कौन कितना गलत है, जब कि वर्मा जी की विचारयोजना में इसके लिए जगह ही नहीं थी । धोखा पहाड़ पर भी खाया जा सकता है।