Post – 2017-05-22

देववाणी (उनतालीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया

कल – पत्थर;
स्वर भेद और निपात के योग से:

कल – बटिका, पत्थर;
कल् त.- रोड़ी, रोड़ा, बटिका
लातिन कैलकुलस रोड़ा, बटिका; (Calculus : from Latin calculus, literally “small pebble used for counting on an abacus” यूरोपीय परिदृश्य में यह बोध नदारद है कि इसका सचमुच कल या रोड़ी रोड़े से कोई संबन्ध है और लुप्त है यह बोध भी कि जहां से गिनती का यह तरीका अपनाया गया वहां कल या रोड़ी का कलन या गिनती के लिए प्रयोग में लाया जाता रहा। बाद में अनाज के दानों, खास करके मटर या गुंजा के दानों का प्रयोग किया जाता रहा जिसका ही प्रत्यंकन शलाका गणित में हुआ और फिर अक्षमाल और मनके का नामजप आदि के लिए प्रचलन में आया। अंग्रेजी में इसे अक्षरो के क्रम के अनुसार ऐबेकस अथार्थ एबीसी क्रम की संज्ञा दी जिनका गणना से सीधा संबन्ध ही नहीं है) ।

कली – पत्थर का, जैसे कली चूना
कली – सुनिर्मित, जुड़ी हुई, अविकच
कलित – समग्र, गिना हुआ, जोड़ा हुआ, सुन्दर
कलि – कलह ;
कील – नुकीले सिरे वाली;
कीला / किल्ला -खूंटा, सिवान का पत्थर, और इसके सादृश्य पर दरवाजे की किल्ली

व्यंजनभेद से शब्द निर्माण:

कड़-कड़ – मूर्धन्य प्रेमी समुदाय में पत्थर टूटने का अनुनाद > कंकड़,
कड़ा, कड़ाई, भोज. कड़ेर,

खल/खड़ – टूटने की ध्वनि। वह वस्तु अर्थात पत्थर या कंकड़ जिसके तोड़ने से यह ध्वनि पैदा होती है, अर्थात बटिका, क्योंकि कंकड़ न उनके किसी उपयोग का था न उसे तोड़ने की जरूरत थी। आदिम अवस्था में नदी की धार में उपलब्ध बटिकाएं ही तोड़ी जा सकती थीं और उनसे उनकी संज्ञा, पत्थर की संज्ञा।
खल- मार पीट करने वाला, दुष्ट, 2. वह स्थान जहां डां से दाना अलग करने के लिए उसे दांया और पीटा जाता है (ऋ. खले न पर्षान् प्रति हन्मि भूरि) ।
खड़ – *पहाड़ ।
खड़खड़, खड़खड़ाहट – रोड़ पत्थर गिरने की ध्वनि, इससे मिलती जुलती ध्वनि
खड़ा – पर्वत की तरह सीध उठा हुआ, तना हुआ,
खंड – टुकड़ा
खड्ड – भोज. गड़हा, हि. गड्ढा
गड्ड – जोड़ा हुआ, तु- सं- कर्त, अं- कार्ट, ऋ.- गर्त – गाड़ी, और उसके समूह, ढेर, गडर – जानवरों का झुंड, गडरिया – जानवरों को चराने वाला, गड्डी -ढेरी, पुलिन्दा जैसे नोट का
खलु = अवश्य (ऋ. मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो)
खाल – *ऊपरी पर्त जिसे तराश और छील कर अलग किया जा सके, छाल, 2. चमड़ी 3. गड्ढा, नीची जमीन,
खाली – जिसके भीतर कुछ न हो, टूटने से खाली हुई जगह,
खिल – टूटा हुआ, फॅला हुआ, छितराया हुआ टुकड़ा
खील – भुने हुए धान का लावा खोलना द्वार बनाना, रोक हटाना, खुला अुआ

निपात युक्त:
खंडन – तोड़ना, खनन, खन्दक
खिल्या – कंकरीली जमीन, ऊसर भूमि (उत खिल्या उर्वराणां भवन्ति)
खिलना – फूलना
खल्वाट – छीला हुआ, मुड़ा हुआ सर,
खडाक या खटाक – टूटने की ध्वनि और विशेषता
खड़खड़, खड़खड़ाहट – रोड़ पत्थर गिरने की ध्वनि, इससे मिलती जुलती ध्वनि
खड़िया – घीया पत्थर
खोंढ़र – कोतड़ा, खोल – आवरण,
(फा. खलल – व्यवधान},
कांकर
कंकरीला
कोड़ना / गोड़ना, गड़ा, गड़ा, भोज- गड़हा हिं- गड्ढा, (तु. सं-कर्त – कृत या जोड़ कर बनाया हुआ, अं- कार्ट, गर्त, – गाड़ी
कंड, कांड, कडिका, प्रकांड, खाड,
उपसर्ग आदि के साथरू
अकाल] अतिकाल दुष्काल कालान्तर, कालजयी, कालोचित, त्रिकालदर्शी,
कंड, कांड, कडिका, प्रकांड,
खाड, खंडनीय, अखडित, आखंडलक,
यही स्थिति दावाग्नि के प्रकोप से पैदा कल की आदिम और हमारी अपनी कड़ तड़ की आवाज की है। सच कहें तो इससे भी बुरी। यदि प्रलयाग्नि की अचधारणा चेतना में कहीं काम न कर रही होती, यदि रुद्र के तांडव नृत्य के समय उनके तीसरे नयन के खुलने की छाप न होती तो मैं अग्नि से कल या काल को जोड़ने की सोचता भी नहीं, क्योंकि यह मेरे मूलभूत सिद्धान्त के विपरीत था कि जिस वस्तु और क्रिया से किन्हीं परिस्थितियों में ध्वनि नहीं पैदा होती उन्हें अपनी संज्ञा उन स्रोतों से मिली है जिनसे ध्वनि उत्पन्न होती है और जिनका अवकर्ष, अपकर्ष, उत्कर्ष अर्थ के लिए संबंध, सायुज्य, सादृश्य, विरोध आदि के नियमों से किया जाता है।
हम विस्तार से बचने और यह याद दिलाने के लिए कि इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि दावानल से उत्पन्न ध्वनियां जो तड़तड़ाहट जो हमारी उुपरी व्याख्या के अनुसार कड़कड़ाहट से ले कर गड़गड़ाहट केा छेंक कर फैली हुई है, उनकी ओर हमारा ध्यान ही न जाता। ऐसी घटनाएं कम घटित होती थीं, और वे मनीषियों के विचार का हिस्सा बन कर रह जाती थीं । फिर भी दावाग्नि के अनुभव से विचार क्षेत्र में आए उन विश्वासों के कार्यकारण संबंध को समझने का तो हम प्रयत्न कर ही सकते थे। मुझे ऐसा कोई अध्ययन देखने में न आया। प्रयत्न तक नहीं। इससे निराशा पैदा होती है और अपराधी की तलाश करने की प्रबल इच्छा होती है और जब पता चलता है कि इसके लिए हमारी औपनिवेशिक मानसिकता उत्तरदायी है तो अपराधियों की बिरादरी में अपने को भी पाता हूं ।

यहां हम यही निवेदन कर सकते हैं कि काल, काला, काली, कलंक के विषय में तो हम निश्चिन्त हो सकते हैं कि इनका संबन्ध दावाग्नि से है।

जिस बात को आप तक पहुंचाने के लिए इतनी कवायद की उसके विषय में मैं स्वयं निःशंक नहीं हूं। वह है देववाणी से संस्कृत के यान्त्रिक चरण तक के विकास की अवस्थाएं, जिन्हे मैं एक प्रस्ताव के रूप में रख सकता हूं, स्थापना के रूप में नहीं। वह यह है कि देववाणी अर्थभेद के लिए स्वरभेद का सहारा लेती थी, दूसरे समूहों के साथ मिलन के दौर में उसने उनकी ध्वनियों को अपनाया और उनमें यह सोच कर कि यह भाषा किस क्षेत्र की बोली के उत्कर्ष से पैदा हुई है और हमें इसके जाल में फंसना है या जो इससे हट गए हैं उन्हें कोसना और खारिज करना है मुझे सारी दुनिया के भाषाविज्ञानियों में अकेले राम विलास शर्मा दिखाई देते हैं परन्तु मैं कि उनसे पूरी तरह संतुष्ट नहीं अनुभव करता।

प्रस्ताव मात्र यह है कि देववाणी या आदिम चरण की बोलियां श्रुत ध्वनि में स्वरभेद और बालाघात के माध्यम् से अर्थभेद करती थी और उनका शबद निर्माण उनकी ध्वनिव्यवस्था तक सीमित था। आवश्यमताएं सीमित थीं इसलिए इनसे उनका काम चल जाता था। बाद में दूसरे भाषाभाषियों के संपर्क में आने के बाद उनकी ध्वनिमाला का भी प्रवेश हुआ और उदनके द्वारा इनके अपने या उनके निजी शब्दों को ग्रहण मरने में एक ही अर्थ के श्वनिभेद युक्त शब्द उपस्थिति थे। आगे उन्होंने निपात या अक्षर जोड़ कर अन्तर्वर्ती चरण की एक समृद्धतर भाषा का निर्माण किया और इस या.ा के अन्तिम चरण पर एक तो कौरवी प्रभाव में असवर्ण सुयोग जहां अपेक्षित नहीं था वहां पैदा करके योग करने की प्रवृत्ति बढ़ी और फिद उन्नत चरण के लिए अशिक्षितों के बोधवृत्त से बाहर की दार्शनिक या विशिष्ट शब्दावली जिसे हम जार्गन या तकनीकी शब्दावली कहते हैं, उसकी पूर्ति के निए भाषाई इंजीनियरी का और सही अर्थों सें संस्कूतीकरण की प्रकिया आरंभ हुई। जैसा हम देख आए हैं, यह विकास भारतीय भूभाग में हुआ था। अपने उन्नत चरण पर पहुंच जाने पर किसी बहुत सुव्यवस्थिति और अपने हित में स्वीकार की गई भाषा का वहां के संभ्रान्त जनों का प्रभव बझ़ा है।