देववाणी (अड़तीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया (2)
( कल जो कुछ लिख रहा था उसका एक हिस्सा उड़ गया इसलिए बचे हुए अंश को खंडित रूप में पेश किया उसका अगला अंश दुबारा लिखा है जिसे उसी क्रम में पढ़ना ठीक रहेगा।)
(२) व्यंजन भेद से:
यह मुख्य रूप से घोषप्रेमी और महाप्राण प्रेमा समुदायों के मिलने के क्रम में उन्ही अघोष अल्पप्राण ध्वनियों में आए अन्तर का परिणाम है, अलग अलग मामलों में इसे उलट या बदल कर भी पढ़ा और समझा जा सकता है। संस्कृतीकरण या कौरवी प्रभाव में स्वरलोप अथवा अन्तस्थ (य,व,र,ल) और सकार के योग का परिणाम है । इसके करिणाम स्वरूप कल खल, स्खल, गल, घल में बदलते हुए नये विचारों, वस्तुओं और क्रियाओं के लिए शब्द तैयार किए गए है , जैसे पानी के आशय में खल जो पानी के उबाल की धवनि खलबली के पहले पद में है । फिर खल का अर्थ हुआ द्रव का बह या रीत जाना, जो (अरबी) खलास कहने से या खाली से प्रकट होता है प्रकट होता है अथवा द्रव या तेल निकल जाने पर खल या खली में दिखाई देता है, और स्खल और स्खलित में गिरने या च्युत होने से प्रकट होता है । गल, ग्ल- ग्लानि, अं. ग्लू, ग्लास, ग्लो, ग्लैड आदि में पहुंचा लगता है, घल, घाल, घुल, घोल, और फिर हल- पानी में चलना, हल्ला, हलचल, हेला – जिसका अर्थ यदि जल के स्रोत से खेल है तो पत्थर और आग के स्रोत से आयक्रमण और तिरस्कार आदि हो जाता है ।
उपसर्ग, प्रत्यय और निपात, विभक्ति के योग से नई संकल्पनाओं (सं +कल्प+ना+ओं) के लिए शब्दावली अगले चरण पर तैयार होनी होनी आरम्भ होती है । संस्कृतीकरण का यह चरण क्षेत्र, समुदाय या बोली से निरपेक्ष है। इसके सूत्र देववाणी में और दूसरी बोलियों में थे परन्तु संस्कृत ने इसे पूर्णता पर पहुंचा दिया । ये सारी युक्तियां कल के तीनों शब्दों के सन्दर्भ में सही हैं। हम सभी के उदाहरण देने की स्थिति में नहीं हैं। सच कहें तो जैसे हमने काल के मामले मे देखा इसकी गति, विनाशलीला और मूर्तीकरण में क्रमश: तीनों की भूमिका है उसी तरह कुछ दूसरी संकल्पनाओं जैसे कलुष, कल्मष, कलंक में जल और आग अर्थ में प्रयुक्त कल का हाथ है।
अब पहले हम इस बात का संकेत मात्र करेंगे कि कल.पानी में वहीं उपसर्ग और प्रत्यय लगने पर ठीक वही अर्थ नहीं रहता जो कल – पत्थर में लगने पर होता है। अतः कल के समनादी तीन अलग शब्द ही नहीं है, उपसर्ग आदि से युक्त समनादी शब्द भी अलग हैं। कहें जिसे हम इस रूप में समझते हैं कि एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, वह एक भ्रम है वास्तव में वे अलग समनादी शब्द होते हैं। उदाहरण के लिए जलर्थक कल में वि उपसर्ग लगने पर जो विकल बनता है वह है पिपासा जनित विकलता, परन्तु पाषाणार्थी कल में वि उपसर्ग लगने से जो विकल बना उसका अर्थ है छांट या तराश कर अलग करना, किसी राशि या संख्या में से कुछ को अलग करना। इसका एक बोध भारतीय वैयाकरणों को रहा है जो कहते रहे हैं कि एक शब्द का केवल एक ही अर्थ होता है, परन्तु हमारे कोशकार इसका सचुचित निर्वाह नहीं कर पाते अतः व्युत्पत्तियों इसके कारण भी अधूरी और लंगड़ी रह जाती हैं।
इसी तरह सभी उपसर्ग सभी शब्दों के साथ नहीं लगते, और कुछ के कारण एक आशय वाले समनादी शब्द में जो परिवर्तन होते हैं, वे दूसरे में नहीं होते। उदाहरण के लिए सं, आ, प्रा, पाषाणी कलन के साथ – संकलन, आकलन, प्राक्कलन – लगेंगे पर जलर्थक कल के साथ नहीं। चकार प्रेमी समुदाय के संपर्क में कलन का चलन बनने और विचलन प्रवाही आशय स्पष्ट होता है क्योंकि जल के प्रवाही आशय में कल का सीधे प्रयोग नहीं मिलता। इसे चल ने विस्थापित कर दिया। परन्तु पाषाणी कल चवर्गीय समुदाय के उच्चारण से प्रभावित नहीं हुआ।
पत्थर और आग के आशय में विकसित शब्दावली पर आज की पोस्ट में विचार करेंगे.