देववाणी (अड़तीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया (1)
अब हम उस शब्दभंडार पर ध्यान दें जो इन अनुनादी ध्वनियों से पैदा हुए हैं और फिर उनके पीछे कम करनेवाले तर्क को उलटे सिरे से समझें :
कल = जल, स्वरभेद से:
कल = (१. बीता हुआ दिन, २. आने वाला दिन। इसके पीछे संकल्पना बह गए जल और बहकर आने वाले जल की है ।); कलपना = विलाप करना; कलरव= मधुर ध्वनि; कली – अविकच फूल; कल्क – तेल के वर्तन में जमा गाद, उसका अर्थविस्तार — कान की मैल, कोई अन्य गन्दगी; कल्प – १. विधि-विधान, २. ब्रह्मा का एक दिन=४अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; ३. *विचार, ४. संकल्प, विकल्प, ५. कल्पना, ६ (क्रिया) कल्पयाति (ऋ. सो अध्वरान् स ऋतून् कल्पयाति = निर्माण करता है; अन्येन मत् प्रमुद: कल्पयस्व = प्रदान करो); कलाय- मटर; काल = प्रवहमान, गुजरने वाला (काल: कलयति ), किल = निश्चय ही, किलोल – अटखेली करना; ऋ. कीलाप = अन्न, रस; कुल = वंश परम्परा; कुलीन = खानदानी; कुल्ला, कुल्ली, तमिल कुडि = पी, हिं. कुंड, सं. कुलीर – जलकर प्राणी विशेष अर्थात केंकडा; कुलबुलाना, कुल्या= कृत्रिम नदी अर्थात नहर; कुलांचना – तरंगित भाव से या उछाल लेते हुए दौड़ना; कूल = तट (कूल का अर्थ भी पानी, तट का अर्थ भी पानी जिसे हिं. तड़ाग, त. तण+नीर – तन्नी = पानी), केलि = कामक्रीड़ा, कौल / कवल = ग्रास; भोज. कउरा – किसी प्राणी के लिए भोजन से पहले निकल कर रखा गया ग्रास = सं. अग्रासन; सं. कौल = कुलीन, श्रेष्ठ.