Post – 2017-05-19

देववाणी (सैंतीस)
पानी, आग और पत्थर (3)
हम कल, खल आदि पर विचार करें इससे पहले यह कहना चाहेंगे की हमें जलधाराओं में मिलने वाले शिलाखंडों को अपने क्षेत्र तक ढो कर लाने के क्रम में हुए प्रयोगो और विकासों के क्रम मे आविष्कृत दूसरे उपकरणों के रूप, आकार और क्रिया से जुडी शब्दावली की,
जिनकी अंतिम परिणति ठोस पहिया और विकसित रूप अरायुक्त चक्र था , उपेक्षा करते हुए चलने की विवशता है, अन्यथा विषयान्तर होने की समस्या आ जाएगी।.
हम उस प्रबुद्ध चरण पर आएं जब मनुष्य प्रकृति में अपने हस्तक्षेप से उत्पन्न ध्वनियों से भी नामकरण करने का साहस जुटा लेता है और उन ध्वनियों से जुड़े कार्यों, परिणामो और गुणों को के लिए शब्दावली का निर्माण करता है.
शिलाखंडों को तोड़ने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण ‘कल’ और इसके उच्चारभेद (कड़, खड़, गड़, घड़) इसी चरण के द्योतक हैं. क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है कि जब आप कड़ा कहते हैं तो ‘पत्थर के समान’ और जब कठोर कहते हैं तो काठ की तरह, (भोजपुरी में कठोर हृदयवाले के लिए कठकरेज प्रयोग में आता है)। यही अन्तर कड़ाई, कड़क और कठिन, कठेस कठिनाई, सं- काठिन्यमें भी है । हम अभाव के लिए कड़का पड़ने की बात करते हैं तो आशय होता तो पत्थर से ही है, परन्तु यह किसान के उस अनुभव से जुड़ा शब्द है जिसमें ओले पड़ने से उसकी खड़ी फसल बर्वाद हो जाती है। ओले के लिए पत्थर या उपल का प्रयोग होता है, यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है।
हम तोड़ते है कुछ बनाने के लिए इसलिए टूटने वाले की ध्वनि उसी की संज्ञा नहीं बनती, वह टूटने की क्रिया को भी व्यक्त करती है और साथ निर्माण को भी। अब इस शब्दावली पर ध्यान दें: कल्प, कल्पना, कलन – जोड़ना, जो उपसगों के साथ आकलन, संकलन, विकलन, आदि उत्पन्न हैं। रोचक है कि विकलन की क्रिया या काट कर अलग करने की क्रिया से कलन और संकलन के लिए शब्द पैदा हो रहा है।
कल्पना का अर्थ खयालों में चीजें गढ़ने से नहीं है, गढ़ने और बनाने से था जिसका स्थान निर्माण ने ले लिया और कल्पना का मनोवैज्ञानिक पक्ष ही बचा रहा। इसी कल से कला,ए कल्याण या योग, जो तमिल में विवाह का सूचन और हमारे यहां मंगल कामना के रूप में प्रचलित है। यदि यह तय करना हो कि यह किसका शब्द है तो कहना होगा उन सबका जो बहुत प्राचीन काल से इनका व्यवहार करते आ रहे हैं। कारण हमारी अधिकांश प्राथमिक शब्दावली ऐसी है जिसकी जन्मकुंडली तैयार नहीं हो सकती। अब तमिल के निम्न शब्दों पर ध्यान देंः
कल् . पत्थर, रोड़ी, रोड़ा।
कलै . बिखरना, टूटनाए छितराना,
कल्लकम् – खलल
कल् / कल्लु – खोदना, तोड़ या खोद कर बाहर निकालना या बहा देना (Eng. cull out)
कल – मिलाना, मिश्रण करना, कलप्पु – मिश्रण कलकलक्कु – कलकलनाद कलै.- एक अंक, सोलहवां भाग ,
कल्लूरि. विद्यालयए महाविद्यालय।
कल्वम्. चक्कीके नीचे का पाट।
कल् . सीख, ज्ञानार्जन कर, पढ़।
कलैयोत . विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करना।
सौंदर्य और चमक और चमलीली धातु के आशय जो जलार्थक कल से व्युतपन्न हैं :
कलपम् – मोर का वर्ह, तु. कलापी
कळवुदम – चांदी, तु. कलधौत – सोना
कलशम् – कलश
कलम् – जलपात्र,
कलिपलि – खलबली,
फिर भी तमिल में कला का उन्नयन ज्ञान और विज्ञान के लिए हो गया है इसलिए इस बात की संभावना मानी जा सकती है कि यह शब्द उसने देवभाषा से ही लिया हो।
यदि कल से पहिया के लिए कोई शब्द बना होता तो हम यह कह सकते थे कि काल, और उसका वह रूप जो बीते हुए और आने वाले दिनों के लिए कल के रूप में हमारी भाषा में है, कल के पाषाणी स्रोत से निकला है, परन्तु ऐसा नहीं है और पत्थर में इससे भिन्न स्थिति में कोई गति नहीं होती इसलिए मानना होगा कि काल की अवधारणा जल के कल कल प्रवाह से जुड़ी है और हिन्दी पहल, पहले, पहला, पहेली की अवधारणा पहिए से और काल की गति के लिए जल प्रवाह की भूमिका है परन्तु तर्क के लिए कोई कह सकता है की जल में भी चक्कर या जलावर्त होता है जिसे आकार के अनुसार जमकातर, भंवर या भंवरी कहा जाता है, पर कुशल है की जलचक्र नहीं अतः हमारा दिमागी चक्कर, भ्रम, भ्रान्ति और छेड़ने के औजारों भ्रम (बरमा), भृमि (बर्मी) का सम्बन्ध इनसे ही है। परन्तु भ्रमण, घूम फिर कर वापस अपनी जगह लौट आना, क्या इसी से सम्बंधित है ? मैं इस पर कुछ कहने से बचना चाहूंगा, क्योंकि, यह शब्द प्रसंगवश आ गया। यह अवश्य कहा जा सकता है कि कालचक्र में जल और पाषाणी दोनों स्रोतों का योग है।
पाषाणी स्रोत स्वतः भी जल से चर सर से संबन्ध रखता परन्तु इसका सीधा संबंध जल से नहीं चक्र निर्माण से है।
परन्तु उस कालदेव का संबंध क्या दावाग्नि में कल कल (जिसे हम तड़, कड़ रूप में भी अनुनादित करते हैं), से नहीं है जो गुजरते ही नहीं हैं विनाश करते हैं, जिसके कारण प्रलय लाने वाले शिव के तीसरे नेत्र और उससे फूटने वाला ज्वाला की कल्पना की कई है और जिसके प्रभाव में कालदेव को सूर्य और उनके लोक को सूर्यप्रभ माना गया और उसकी सूर्यलोग या स्वरलोक या स्वर्ग के रूप में भी कल्पित किया गया – यत्र ज्योति अजस्रः यस्मिन लोके स्वर्हितः । हमें ऐसा लगता है कि इस काल की कल्पना दावाग्नि का काल्पनिक उत्कर्ष है।कहें काल की अवधारणा में कल के तीनों रूपों जल, पत्थर और आग का हाथ है।
क्या यह अच्छा न होगा कि हम कल को लेकर एकबार फिर कलह करें?