Post – 2017-05-18

देववाणी (छत्तीस)
पानी, आग और पत्थर (2)

ध्वनि ही शब्द बनती है इसका सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि यदि कई वस्तुओं की अपनी भिन्न क्रियाओं से एक जैसी ध्वनि की प्रतीति हो तो वही ध्वनि उन क्रियाओं, वस्तुओं और उनसे किसी भी तरह का संबंध रखने वाली वस्तुओं, क्रियाओं, भावो, या विशेषताओं को मिलेगी ।

यदि भाषा पर हमारा वश चलता तो अर्थभेद के लिए इनमें अलगाव कर लेते। परन्तु ऐसा हो नहीं पाता है, क्योंकि यह विचार भी एक सीमा तक ही सही है कि शब्द लोक गढ़ता है, पूरा यच यह है कि शब्द अपने अर्थ के साथ हमारे सक्रिय जगत में उत्पन्न ध्वनिपरिवेश से पैदा होता है और हम उसकी पहचान करके उसे ग्रहण करते हैं। लोक भी शब्द निर्माण में स्वतन्त्र नहीं होता, पहले से चली आई भाषा संपदा से और अपने क्रियाव्यापार से उत्पन्न ध्वनि से निर्देशित होने के कारण इतनी सटीक अभिव्यक्तियां तैयार कर लेता है कि उनका आशय ग्रहण करने में किसी को कठिनाई नहीं होती। इस रहस्य को उद्घाटित करने में कल की ध्वनि बहुत उपयोगी है।

कल, खल, गल, घल ये पानी से भी उत्पन्न होने वाली ध्वनियां हैं। या हम कह सकते हैं कि कल ध्वनि को अपनी ध्वनियों की सीमा में घोषप्रेमी और महाप्राणप्रेमी समुदायों ने भी ग्रहण किया और जिस भाषा की ध्वनिव्यवस्था में उनके उसमें मिल कर एकमेक होने के कारण इन सभी का समावेश था उसमें इनके अर्थ में सूक्ष्मभेद भी किए गए जब कि जिन भाषाओं में ऐसा संभव न था उन्हें उन सभी अर्थों में अपनी ध्वनिसीमा में उनका प्रयोग किया जाता रहा और अर्थभेद, सन्दर्भभेद के अनुसार, किया जाता रहा।

हमारे पास इस समय तीन कल हैं।
1. जल की कलकल ध्वनि से उत्पन्न, जो सौन्दर्य, आर्द्रतायुक्त पदार्थों, उनके कार्यव्यापार से जुड़े लोगों, क्रियाओं, और उनकी विशेषताओं और भाववाचकों से जुड़ा है। उदाहरण के लिए जल – कल, कलश, कलछुल, कलेवा -जलपान, कलाल / कलवार – सुराबिक्रेता, कलित – ललित और जल की चंचलता के कारण केलि , खेल आदि की दिशा में शब्दों का जनन करता है। जल परक शब्दों का सभी तरल पदार्थो के लिए प्रयोग हुआ है जिसमें अमृत से लेकर गरल तक आता है । तेल से इसका संबन्ध इतना स्पष्ट है कि दिल्ली की स्थानीय बोली में पानी के लिए तेल का प्रयोग आज भी होता है। अतः कलछुल में गर्म तरल पदार्थ को निकालने का भाव है तो भोज. कल्हारना में फ्राई करने का । स्वयं कडाही में कल का कड हुआ है अतः उसका नामकरण इसी से जुड़ा है, पर कल्हारने से क्या क्लेश का और क्लिष्ट का संबन्ध नहीं जुड़ता?

2. कल ध्वनि का दूसरा स्रोत है पत्थर या कंकड़ के टूटने से उत्पन्न नाद।अतः इसका अर्थ पानी नहीं हो सकता। इसका अर्थ है पत्थर, या कंकड़। हम कह आए हैं कि नाद को मनुष्य पाषाण युग के आरम्भ से ही सुनता आया था, परन्तु जरूरी नहीं कि इसके वाचिक महत्त्व को भी समझता हो और इस नाद के वाचिक पुनरुत्पादन को उसकी संज्ञा भी बनाया हो। यदि ऐसा होता तो सबसे पहले यह संज्ञा उन शिलाखंडों को मिली होती जिसे पाषाणकालीन मनुष्य जल धाराओं की पेटी से जुटा कर लाता था और जिनको तोड़ कर वह अपने हथियार बनाता था। (विशाल चट्टानों को वह स्वयं तोड़ता भी तो किस हथियार से। इसके लिए वह जलधाराओं पर निर्भर था। जल स्वयं वज्र है = आपो वै वज्र – यह अतिरंजना नहीं एक वैज्ञानिक खोज है। विदेशियों ने हमारे साहित्य का अपनी जरूरत से पाठ किया इसलिए जल्दबाज़ी में बहुत सी बातों को समझ ही न सके या जितना समझे उसे अपनी जरुरत की विपरीत पाकर दबा दिया।)

धारा की पेटी में सुलभ प्रस्तर खण्डों को उन्होंने पाहन कहा। यह पह या पोह मूल से सम्बंधित है जिससे पहिया और पो – जा, प्रवाही या जल, पवि, पवित्र और पवन आदि का सम्बन्ध है। दोनों गतिसूचक हैं और हम निवेदन कर आये हैं कि गति से सम्बन्धित सभी शब्दों को आदिपद जलवाची है। पाहन पानी की तलब या पीते समय होठों से उत्पन्न नाद है जिसका अनुकरण पा, पी, पे, पो की रूप में हुआ जिनका अर्थ पानी है : पा – पानी, पे- पेय, पी – वै. पीतु, और वै. पोष से तो पता चलता ही है. त्राहि कि ही तरह पानी ( प्यासा मर रहा हूँ, पानी पिला कर मेरी रक्षा करो ), पाहि, में भी देखा जा सकता है।

प्रसंगवश यह भी जिक्र करदें कि जिस हड़बड़ी में यूरोप की और से भारत की और बढ़ने वाले आर्यों के लिए सबूत जुटाए जा रहे थे उन दिनों यह सुझाव प्रमाण के रूप में दिया गया था कि अश्वपालन करने में अग्रणी आर्य थे और इसका खंडन किक्कुली अभिलेख से होता था । वर्णविन्यास से देखें तो अश्वपालन का आचार्य मुंडारी था न कि आर्य भाषा भाषी। दूसरा झूठ यह कि अरायुक्त पहिये का आविष्कार करने वाले आर्य थे, जब कि हमारा इतिहास चीखते स्वर में कहता है कि ये इंद्र-विमुख, भृगु थे. पहिये की आविष्कार का सत्य यह है कि इसके लिए कई भाषायी समुदाय प्रयत्नशील थे ।

एक उन्ही शिलाखंडों को, जैसा हम देख आए हैं, पाहन कहता था जिससे पवि, पवन, पो, और पहिया का रिश्ता है तो दूसरा उसे शर्करा कहता था. इसकी भाषा में पानी या धारा के लिए सर और कर का प्रयोग होता था । आप सर का आशय तो समझ चुके होंगे,यदि आपने भोजपुरी का करमोवल अर्थात भिगोना और करमा/ करमुआ , पानी में पलनेवाली एक लतर जिसका पोषक मूल्य है, से परिचित हैं तो पाएंगे कि शर्करा – जलधारा में मिलने वाला घिसा हुआ पत्थर, दूसरे खाद्यों और पेयों की लिए भी प्रयोग में आ सकता था, जैसे सक्कर पर इसका एक दूसरा रूप चरकर भी था। दोनों में दो जलवाची शर/ चर + कर शब्दों का संयोग था। यदि पह से पाहन और पहिया, पहल, पहले का नाता है तो शर्करा / चरकरा बोलनेवालों ने जो आविष्कार किया उससे चक्र, अंग्रेजी सर्कस और सर्कल, सर्कुलेशन आदि का है।

और एक तीसरा समुदाय उसी को बट / बटिका कहता था। इससे संस्कृत का वर्त, वर्तन या चक्कर खाने या घूमने का और गोलाकार या वर्तुल का सम्बन्ध है। इसका विकास पहिये की लिए न हो सका। उसके लिए पहले ही शब्द चलन में आ गया था पर बर्म, बरमा, भ्रम, भृमि और आपके भ्रमण से इसका गहरा संबन्ध है। अब आपको भरम या भ्रम का अर्थ भी समझ आगया होगा।

एक चौथा समुदाय था जो उसी प्रस्तर खंड को रोड़ा कहता था। इसकी भाषा में रोल का अर्थ चक्कर खाना था । हो सकता है यह एक दूसरे से रगड़ खाते हुए बहने वाली बटिकाओं के अनुनाद के आधार पर गढ़ा गया हो। इसकी छाया आपको स्वर भेद और व्यंजन भेद से रोढ, रोह, रोथ, रथ, रोह, रोटरी, रोड, रोलर, रेढ़ा, रेढ़ू में दीख सकती है । संभव है रीढ़ के नामकरण मैं भी इसका हाथ हो. रीढ़ तोड़ देने के लिए रेढ़ मार देने का मुहावरा तो चलता ही है.
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