देववाणी ( चौंतीस )
इतिहास दुबारा लिखना है
सन, चन, चंद्र, चन्द्रमन, चंद्रमस, चन्द्रमा के सामाजिक पक्ष को समझे बिना हमारा इतिहासबोध, वर्तमान की समझ और भविष्य के सपने सब अधूरे रह जायेंगे और आपकी मानसिक दासता आगे भी जारी रहेगी। अपनी भाषा को समझे बिना आप अपने समाज को नहीं समझ सकते। यह भाषा हिंदी, तमिल या हो नहीं है। इसका एक एक शब्द इन विभाजनों की राजनीती को भी उजागर करता है और उसके बाद भी विविधता को अधिक वैभवपूर्ण बनाता है। यह एक गलत सोच थी की हमारी सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं। इस सीमा तक पादरी काल्डवेल सही थे। परन्तु किसी अन्य की तुलना में वह स्वयं अधिक अच्छी तरह जानते थे की भारतीय समाज के बीच भिन्नताएं तो थीं परन्तु कटुता न थी। क्योंकि भाषाओँ का और दक्षिण भारतीय परम्परा का उनका ज्ञान बहुत गहरा था। वह इस सौहार्द को भितरघात करते हुए तोडना चाहते थे क्योंकि वह जानते थे की दूध को तलवार से नहीं फाड़ा जा सकता, नीबू की कुछ बूंदें इसके लिए काफी है। मन में खटास पैदा करने से ही ईसाइयत के प्रचार का मनोवैज्ञानिक पर्यावरण तैयार हो सकता है। इसके लिए उन्होंने तमिल जातीयता को उत्तेजित करते हुए उसे संस्कृत के प्रतिस्पर्धी के रूप में स्थापित किया। इस तरह की प्रतिस्पर्धा उत्तर भारत में भी संस्कृत के विरुद्ध पैदा की जा सकती थी क्योंकि केवल दक्षिण में ही नहीं अपनी बोलियों के प्रति अगाध आसक्ति उत्तर भारत में भी थी। भावनाएं उत्तेजित करने की समस्या थी। यहां वही काम सवर्णों और आवरणों की आड़ में संस्कृत भाषियों को आक्रमणकारी सिद्ध करते हुए और शेष जनों को उनके द्वारा परास्त किये और पराधीन बनाकर रखने की कहानियों से पूरा किया गया।
इन सभी समस्याओं के समाधान भाषा के अध्ययन से अधिक निर्णायक रूप में किया जा सकता है न कि दर्शन और औचित्य बघार कर।
उन दौरों का इतिहास जिनके न तो मौखिक परंपरा से आई कोंई जानकारी हमारा साथ दे पाती है न ही ग्रन्थों में लिखित पुरातन कालों के आख्यान। यदि देते भी हैं तो उन पर लोग यह कह कर विश्वास नहीं कर पाते कि इनमें अतिरंजना का सहारा लिया गया होगा, भाषा के इस विवेचन से समझा जा सकता है। हमारी भाषाएं और उनकी बोलियां आदि काल से आज तक परस्पर जीवन्त संबंध बनाए हुई हैं इसलिए भाषा का अध्ययन भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में जितना अव्याहत है उतना उन देशों और क्षेत्रों का नहीं जहां स्थानीय बोलियों पर एक उन्नत भाषा का एकाएक प्रसार होता है और जो वहां की उच्च सांस्कृतिक आकांक्षाओं के अनुरूप् षब्दभंडार का जनन करती हुई उनकी अपनी प्राचीन बोलियों को अव्यावहारिक बना देती है। वे इस आगत भाषा के ध्वनितत्व को और कुछ सीमा तक विन्यास को तो प्रभावित करती हैं परन्तु सहभागिनी की भूमिका नहीं निभा पातीं। यह भूमिका वे तभी निभा पाएंगी जब उनकी अपनी बिसरी हुई बोलियों के तत्वों की खोज हो और यह समझने का प्रयास किया जाय कि यदि यह बनी बनाई भाषा उनके पास न पहुंचती और उन्होंने स्वयं विकास करते हुए आधुनिक युग तक की यात्रा की होती तो उनकी अपनी बोलियों में नई अपेक्षाओं के अनुसार किस तरह के परिवर्तन आए होते।
संस्कृत ने हड़प्पा सभ्यता के निर्माण की प्रक्रिया में अपना वह विकास किया जिसमें उसके स्तर को देखते हुए पूर्णता का भ्रम पैदा होता है और तकनीकी शब्दावली के गठन के लिए उसने जिस इंजीनियरी का विकास किया उसका भारत में ही नहीं सर्वत्र अनुकरण किया गया। भारत से यूरोप तक की भारोपीय भाषाओं को यह सहज सुलभ थी इसलिए उन्होंने अपने जार्गन के लिए भी अपनी ध्वनिव्यवस्था में ढली इसी की शब्दावली और घटकों का सहारा लिया। लातिन और ग्रीक के यूरोपीय भाषाओं के जार्गन के लिए स्रोत भाषा बनने का यह प्रधान कारण प्रतीत होता है।
हम चन्द्रमा के विविध नामों पर लौटें। यह शब्द न केवल उस षड्यन्त्र का भंडाफोड़ करता है जिसमें संस्कृत बोलने वाले किसी समुदाय को आक्रमणकारी या किसी भी अन्य तरीके से भारत में घुसपैठिया बताया गया था, अपितु इस ढकोसले का भी कि संस्कृत का किसी विशेष नस्ल या से संबन्ध था। यह सच है कि आरंभ में इसमें अग्रणी भूमिका किसी एक समुदाय की थी जिसे पहचाना तक नहीं जा सकता, क्योंकि इसका आरंभ झूम खेती तक जाता है जिसमें एक एक कर कई समुदायों ने अपनाया था। स्थायी खेती में उनमें से किए एक की भूमिका अग्रणी रही है और उनके अनुभवों, प्रयोगों, और तरीकों को दूसरों द्वारा अपनाने की विवशता के कारण उसकी भाषा की भूमिका प्रधान थी जिसे कृषि अपनाने वाले दूसरे समुदायों को भी अपनाना पड़ता था। परन्तु यह स्वयं इच्छुक था कि अधिक से अधिक लोग खेती अपनायें ताकि उसकी संगठित शक्ति भी बढ़े और जंगली जानवरों और जनों के उपद्रव में भी कमी आए इसलिए यह एक खुला समाज था जिसमें समय समय पर कम से कम चार पांच भाषाई समुदायों के लोग शामिल होते रहे। इनके द्वारा ही उस भूस्वामिवर्ग का निर्माण हुआ जिसके सामाजिक गठन का परिणाम वर्णवाद था।
ऐसी स्थिति में सवर्ण और असवर्ण का प्रश्न पहल और प्रयोग की तत्परता और इसके अभाव या इस दिषा में उदासीनता का अन्तर बन जाता है। हमसे पहले के जिन अध्येताओं ने इस समस्या पर विचार किया है उनमें डा- अंबेडकर की दृष्टि सबसे प्रखर और तार्किक थी जिसे समझने की क्षमता अपने स्वार्थ के कारण सवर्णों में भी नहीं थी, परन्तु उनकी नजर में भी इतिहास का यह विराट फलक नहीं था, इसलिए पहल और इसकी कमी के पहलू पर उनका भी ध्यान नहीं गया।
समता की अवधारणा नई है और लंबे समय तक सपना ही बनी रहने वाली है। परन्तु इसके पहले आज तक मानवीयता के नाम पर दया ओर दान और सवावर्त के जो भी उपाय किए जाते रहे हैं उनमें से कोई पहल और उपक्रम को प्रेरित करने वाला नहीं रहा है। आज की सुविधाएं भी पहल की जगह पराश्रयता पैदा करने वाली ही हैं।
योग्यता अर्जित करने में समान सुविधाओं या पिछड़े हुए जनों को कुछ अधिक सुविधाओं की व्यवस्था न्यायोचित और देशहित में है, परन्तु चुनौतियों को कम करना, रियायती दर पर आगे बढ़ाना न उन समुदायों के हित में है न पूरे समाज के। योग्यता की परख में पक्षपात को समाप्त करने के तरीके निकालना एक जरूरी उपाय है जिसके कारण जो आगे बढ़े हुए तबके हैं वे अपने स्वजनों को आगे बढ़ा कर दूसरों के अवसर कम करते हैं परन्तु अयोग्यता को प्रश्रय देना किसी समाज या राष्ट्र के हित में नहीं हो सकता।
अन्तिम बात यह कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान का समस्त ढांचा, इसके अन्तर्गत किए गए सभी काम, बहुत सीमित उपयोग के रह जाते हैं। भाषा परिवारों की अवधारणा, भाषा के क्रोडक्षेत्र की कल्पना, पूर्वरूपों की सर्जना तथा दूसरे निष्कर्ष या तो पूरी तरह खंडित हो जाते हैं या सीमित आंचिलिक उपादेयता के रह जाते हैं जहां तथ्यों से इन्कार नहीं किया जा सकता, निष्कर्षों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।