Post – 2017-05-11

देववाणी (तीस)
कुछ कह सके हैं कुछको जानते भी नहीं हैं

अब हम एक एक शब्द पर यह देखने के लिए विचार करेंगे कि क्या उनमें उन नियमों का निर्वाह होता है जिन्हें हमने भाषा की उत्पत्ति का सिद्धान्त माना है। हमने इनमें से कुछ का उल्लेख किन्हीं प्रसंगों में किया है। यहां उनकाे एक साथ उल्लेख जरूरी है। परन्तु उससे भी अधिक जरुरी है यह समझना की अनेक के मूल में उनमें से कोई एक हो सकता है और ध्यान देने पर यह तय किया जा सकता है की वह कौन हैा समझना यह भी जरूरी है की पहले की प्रेरणा से ही सही, एक बार भाषा में अपना स्थान बना लेने के बाद कुछ क्षेत्रों से ग्राहक भाषा का शब्द दाता को अपदस्थ भी कर सकता है और इनमें से कोई यादृच्छिक रूप में आचरण नहीं करता। उसका अपना एक तर्क होता है।

हम जो सुनते हैं उसे बोलने का प्रयत्न करते हैं । परन्तु यह इतना आसान काम नहीं है। एक शिशु अपने परिवेश की ध्वनियों को सुनने की और उसका उच्चारण करने का लंबे समय तक अभ्यास करता है जिसे हम शिशु के संगीत में पाते हैं । इसके बाद वह जो पहली ध्वनि निकालता है वह बोधगम्य तो होता है, पर अपेक्षा से कुछ घट कर होता है। आगे भी कुछ समय तक यह अटपटापन बना रहता है । हम इसे तोतली जबान कहते है (तोतली का मतलब क्या तोते की तरह सुने वाक्य को इस तरह दुहराने की क्रिया के लिए प्रयुक्त हुआ होगा जिसमे वाक्य समझ में आ जाता है यद्यपि उच्चारण सही नहीं होता ?)। सही सही सुनने या बोलने के लिए हमें लंबा अभ्यास करना होता है।

अतः जितना सच यह है कि चन, सन, द्र, मन, मस अनेक भाषाई समुदायों के आपस में मिलने और एक बृहत्तर सामाजिक संरचना के अंगभूत होने का प्रमाण हैं, उतना ही सच यह नहीं है कि परस्पर मिलने से पहले उन सभी में ये शब्द रहे हों और उन्ही अरथों में प्रयोग में आते रहे हों। यह संभव है कि जल के लिये जिस समुदाय में सं, सन् का चलन रहा हो उससे मिलने से पहले चं, चन् बोलने वाले की बोली में चं, चन् रहा ही न हो। उसने यह शब्द सं, सन् बोलने वालों से लिया। लिया कहना भी सही नहीं है वह सं और सन को, चन् के रूप में सुनता और बोलता रहा हो। इसे उलट कर भी रखा जा सकता है । कालान्तर में दोनों समुदाय अपनी पृथक पहचान भूल गए। दोनो वध्वनियां साझी ध्वनिमाला का हिस्सा बन गईं और दोनों शब्द उनके शब्दभंडार का अंग ही नहीं बन गए अपितु उनका विशेष सन्दर्भों में दूसरे की अपेक्षा अधिक प्रयोग होने लगा।

उदाहरण के लिए वजन का प्रचलन होने के बाद हम बाजार की भाषा में पूछते हैं इसका वजन कितना है? वजन अधिक हुआ तो कहते हैं भारी है। भार कितना है? तौल क्या है? या बहुत वजनी है, कहने वाले भी मिल जाएंगे, पर औसत से बहुत कम और सुनने वाले को कुछ अटपटे भी लगेंगे ।

हम दन्त्य प्रेमी देववाणी की बात कर रहे हैं तो इस समाज में चकार प्रेमी समुदाय कुछ बाद में मिला, अत: पानी का इसका शब्द ‘सम / ‘सन’ होना चाहिए। कारण देववाणी स्वरांत या अजंत बोली थी जिसमे असवर्ण संयोग नहीं होता था। भोज. में यह समसना, सानना, आदि में बचा है। कौरवी प्रभाव में यह ‘स्न, स्नेह, स्नान, बना और अंग्रेजी में स्नो, स्लो, स्नेक, स्नीक, स्नेल में दिखाई देगा परन्तु जिस चरण पर हम पहुंचे हैं उस पर इसे समझने में कठिनाई होगी। इसलिए यह याद दिलाना जरूरी है कि:

१. विविध भावों, अवस्थाओं, गुणों, अनुभवों और मनोरागो को अपनी संज्ञा किसी न किसी जलवाची शब्द से मिली है क्योंकि इनसे कोई ध्वनि नहीं पैदा होती जो इनकी संज्ञा बन सके.
२. ऐसी भैतिक सत्ताओं के लिए जिनमें स्वतः कोई क्रिया नही होती उनको अपनी संज्ञा जल की किसी क्रिया से उत्पन्न ध्वनि से मिली है।ह
३.गति के विविध रूपों को अपनी संज्ञा जलपरक शब्द से मिली है।
४. समस्त खाद्य और पेय पदार्थों, अनाजों, ओषधियों को अपनी संज्ञा जल के किसी पर्याय से मिली है।
५. सभी रंगों, रूपों के लिए, अंधकार से लेकर प्रकाश तक को अपनी संज्ञा जल के किसी नाम से मिली है।
६. सभी नदियों और जलाशयों का नाम तो जल के किसी पर्याय से जुड़ा रहेगा ही, यह कहने की आवश्यकता नहीं।
७. क्षुद्रता और महिमा, अणु और ब्रह्माण्ड, छोटी से छोटी संख्या और बड़ी से बड़ी सभी के मूल में कोई जलवाची शब्द मिलेगा. क्यों मिलेगा यह बताएं भी तो लाभकारी न होगा।
8. कर्म, सातत्य, अनंतता, काल के सभी अभिधेय जलपरक हैं।
और भी कोटियां हैं जिनको गिनाना सभव नहीं ।