Post – 2017-05-01

देववाणी (उन्नीस)

मै आज की चर्चा किसी दूसरे कोण से आरम्भ करना चाहता था. एक व्यवधान के कारण, जिसमे यह आभास हुआ कि मेरे पाठकों के मन में भाषा के प्रति एक सचेतता पैदा हुई है. यह सुखद था. पर इसका एक डरावना पक्ष यह था कि उनमें ऐसे शब्दों को लेकर अपनी व्याख्या अपनी ज्ञान सीमा में देने की लालसा भी पैदा हुई है जिसके उलटे परिणाम हो सकते हैं. इसलिए विषय को यहीं से आरम्भ करते है.
मनुष्य ने जितनी भी संस्थाएं बनाई हैं, भाषा सबसे पुरानी है. वह दूसरी संस्थाएं, इनमें भाषा के बाद समाज का स्थान भी आता है, भाषा के अभाव में निर्मित नहीं हो सकती थी. इस विषय में विवाद हो सकता है कि भाषा अधिक पुरानी है या समाज. इस तर्क से कि भाषा एक सामाजिक संस्था है समाज को भाषा से भी पुरानी माना जा सकता है. हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि सामाजिकता यूथबद्धता से आगे की संस्था है और भाषा सम्पन्नता ने ही मूल्यों का सृजन करके यूथ या झुण्ड को समाज में बदला. जो भी हो दोनों का चोली-दामन का साथ है और दोनों के गठन, विस्थापन, बिखराव और समायोजन का दूसरे पर असर पड़ता है और यदि हम धैर्य से काम लें तो समाज के इतिहास का बहुत कुछ भाषा के विवेचन से समझा जा सकता है.
स्तालिन काल में एक पुस्तिका पढ़ने को मिली थी – स्तालिन ऑन लैंग्वेज. राज्याध्यक्ष अवसर के अनुरूप अधिकारी व्यक्तियों द्वारा लिखित भाषण देते हैं इसलिए इसे सोवियत भाषावैज्ञानिकों का भाषा विषयक मत मान कर पढ़ा जाना चाहिए.

उसमे जिस बात को रेखांकित किया गया था वह यह कि भाषा का सम्बन्ध न आधार से है न अधिरचना से. यह दोनों को संभालती, एक के बदलने के बाद स्वयं बदलती नहीं और बदलाव को सँभाल भी लेती है. ठीक यही बात समाज के विषय में कही जा सकती है. अर्थ व्यवस्था में बदलाव के साथ समाज व्यवस्था नहीं बदलती न उससे अप्रभावित रहती है. समाज व्यवस्था इसलिए नहीं बदलती क्योंकि समाज मात्र अर्थ आधारित नहीं है-
भाषा हो या समाज दोनों की संरचना बहुत जटिल है और इनकी एक दूजे पर निर्भरता इतनी गहन है कि भाषा को नष्ट करके समाज को नष्ट किया जा सकता है और समाज को नष्ट करने के बाद तो भाषा बच ही नहीं सकती.
इसलिए भाषा हो या समाज आपको हर तरह की छूट देते या दे सकते हैं, भाषा के व्यवहार में या सामाजिक आचार में हमे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारा हस्तक्षेप कैसा हो, कहाँ हो और किस रूप में हो.

जिनको इस जिम्मेदारी का ध्यान नहीं है वे राष्ट्रगान गाते हुए राष्ट्र को हानि पहुंचा सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय गाते हुए भी अपने पावों के नीचे की जमीन पर भी अपना अधिकार खो सकते है. वे खो सकते है भाषा को भी और समाज को भी. समाज में समस्याएं है, भाषा में समस्याएं हैं. हस्तक्षेप जरूरी है. इसके बिना तो हम जीवंत मुर्दों में बदल जाएंगे.
परन्तु बदलाव के लिए उस चीज़ कि समझ जरुरी है जिसे आप बदलना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी तैयारी में लम्बा समय लगता है. क्या यह तैयारी की गई. इन सवालों पर अपनी मूर्खताओं पर क्या कभी सोचने का समय निकला? मैं इनका उत्तर न दूँगा, न यह पूछूंगा कि क्या क्रांतिकारी मनसूबे पालने वाले आज भी आत्मनिरीक्षण करते है. जो वन्देमातरम कहना होगा को राष्ट्रगान बनाना चाहते हैं क्या उनमे से किसी ने अपनी भाषा और समाज का गहन अध्ययन किया. जिस राष्ट्र या विचारधारा के प्रति इतनी भक्ति है कि वह घर से चौराहे तक फ़ैल जाती है उसके लिए इतना भी त्याग न करने वाले कि वे समाज और संस्कृति का, उसकी भाषाओँ का गहन अध्ययन करें वे वाममुखी हों या दक्षिणमुखी क्या वे इसका जवाब देंगे कि यह जरुरी काम किये बिना वे स्वेच्छा से उनके गुलाम क्यों बनते जा रहे हैं जो आपका जरूरी काम आपको अपना मनोवैज्ञानिक गुलाम बना कर रखने के लिए कर रहे हैं?

भाषा में गहन अध्ययन और और जो कुछ प्राचीन मुनियों पंडितों ने कहा है उस पर विश्वास करके चलना जरूरी है। जहां वे नियम चुक जाते हैं वहां से आगे की बात भी उन्हीं के बताए नियमों, सिद्धान्तों के अनुसार की जाती है और उसके लिए और लंबी तैयारी की जरूरत होती है। उसके बाद भी मन में आशंका बनी रहती है कि कहीं ऐसा न झूट गया हो जिससे निष्कर्ष पूरी तरह बदल जाये। उदाहरण के लिए मैंने सस, स्रंस से भोजपु. संस् को व्युतपन्न माना जो कि गलत लगता है. सस जिससे शश और फिर शशि का सम्बन्ध है.
सस आगे बढ़ने तेजी से बढ़ने के लिए तेज धारा की सरसराहट से उपजी ध्वनि है, स्रंस का स्रोत वही है पर अंतःसर्ग के कारण अर्थ बदल जाता है और यह खिसकने छूटने के आशय में प्रयोग में आता है – गांडीवं स्रंसते हस्तात्, इसलिए भोजपुरी का संस उस संस से जो शंस बना पर संस्कृत में प्र लगने के बाद ही मिलता है, निकला है यह मानना ठीक होगा।