देववाणी (20)
जननी भाषा और आद्य रूप
भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई इस सवाल से पाश्चात्य भाषाविज्ञानी बचते भी रहे है, टकराते भी रहे हैं और मुंह की खाते भी रहे हैं और इन अनुभवों के कारण इससे उलझने से कतराते भी रहे हैं। आप भाषा की बात करें और शब्दविचार न करें यह संभव नहीं। शब्दविचार करें और व्युत्पत्ति का सवाल न खड़ा हो यह संभव नहीं। व्युत्पत्ति के साथ ही भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न अनिवार्य हो जाता है। परन्तु इसका उनका अनुभव बहुत बुरा रहा है।
सच कहें तो उत्पत्ति का सवाल जिस रूप में विकासवाद के मान्य होने के बाद सामने आया वह पहले संभव ही नहीं था। सच कहें तो ईश्वर के हत्यारों में सबसे पहला नाम डार्विन का ही आता है। उससे पहले ईश्वर था, उसकी बनाई हुई सृष्टि थी, उसकी एक व्यापक योजना थी, उसके बनाए पशु, पक्षी, मनुष्य सभी थे और उसके भीतर ही वे अपनी करामात कर सकते थे पर उससे बाहर नहीं जा सकते थे।
इसलिए ग्रीस हो या प्राचीन भारत या दुनिया का कोई दूसरा देश, उत्पत्ति की बात सोच ही नहीं सकता था। यही कारण है कि हमारे भाषाचिन्तक जिन्होंने भाषाचिन्तन को आश्चर्यजनक उूंचाईयों पर पहुंचाया वे भी अपनी ओर से कुछ जोड़ने बदलने की बात को तो नकार ही नहीं सकते थे, परन्तु उत्पत्ति की बात उनकी कल्पना में भी नहीं आ सकती थी। आज हम जिन बातों पर हंसते हैं कि इतने बुद्धिमान लोगों ने इतनी मूर्खतापूर्ण बात कैसे सोच और मान ली, जैसे सृष्टि के पहले से ही भाषा ही नहीं वेदों तक का अस्तित्व, वे हों किसी देश के, डार्विन से पहली अपने पुराणगाथा के अनुसार उन्हीं बातों का उतना ही या उससे भी हास्यस्पद समाधान दे सकते थे पर इस सोच और विश्वास पर हंस नहीं सकते थे।
वह सीधा सादा आदमी, जो किसी मानी में असाधारण न था, जो देखा उसे कहने के साहस के कारण दुनिया का सबसे बड़ा मजाक करते हुए बन्दर को आदमी बना कर पेश कर दिया और पेश भी इस मासूमियत से किया कि सबने इसे सच भी मान लिया. जादू ओह जो सर चढ़कर बोलेा मुहावरा तो पहले से था, पर जादू ने सर चढ़कर बोलना डार्विन के इशारे पर शुरू किया.
गोरा होते हुए गोरेपन से ऊपर उठकर, ईसाई होते हुए भी ईसाई विश्वासों से ऊपर उठकर अपने रंग पर गरूर करने के कारण काले रंग को भी गाली बना देने वाले समाज को थप्पड़ लगाते हुए बानरों की सन्तान बना दिया। मुहावरा उल्लू बनाने का है, बन्दर बनाने का होना चाहिए। यह ऐसा मजाक था जिसने हमें उन चीजों पर हंसना सिखाया जिनके सामने हम लाचार हो कर हाथ जोड़े खड़े हो जाते थे, या सिर रगड़ने लगते थे। मनुष्य की साधारणता के बीच से उसकी महिमा की यह तलाश ही आधुनिकता है। आधुनिकता के जनक, विज्ञान युग के जनक, मेरी समझ से गैलीलियो या कोपर्निकस नहीं, डार्विन हैं।
अतः हमें इस बात का खेद नहीं है कि हमारे महान भाषाचिन्तक भाषा की उत्पत्ति की समस्या से उलझे बिना व्युत्पत्ति की तलाश में जुटे और इसके लिए धातुओं की कल्पना की और अपना काम इस मनोयोग से किया कि यह आधुनिक भाषाविज्ञानियों को भी अपने जादू में बांध कर भटकाने में समर्थ रहे।
पश्चिमी जगत अपने को वैज्ञानिक सोच का बताता है और सूचना, ज्ञान और प्रचार के सभी माध्यमों का अकूत विस्तार करने के बल पर जिसे जो भी सिद्ध करना चाहता है करने में सफल हो जाता है क्या वह अपनी सोच में वैज्ञानिक है?
यदि हाँ, तो वह जननी भाषा या आद्य भाषाओँ को प्रौढ़ या अपनी पूर्णता पर पहुंची भाषाओँ के बहुनिष्ठ घटकों को जोड़ते या कुछ समायोजन करते हुए आदिम अवस्थाओं की बात कैसे कर सकता है? क्या बहुत सारे प्रौढ़ मनुष्यों के सभी लक्षणों के बहुनिष्ठ तत्वों को मिलाकर (भ्रूण की बात तो छोड़ दें, क्योंकि भाषा की उस अवस्था का ज्ञान हमें भी नहीं है) नवजात शिशु की काया, ज्ञान, व्यवहार आदि को समझ सकते हैं. क्या यह मोटी समझ उन ग्रंथो और नियमों और पुनर निर्मित मूलों (रूट्स), पल्ल्वदण्डों (स्टेम्स) और विवेचनों में दिखाई देती है? डार्विन के बाद भी पाणिनि की नकल करने वाले क्या वैज्ञानिक युग के प्रतिनिधि है? और उन्हें जगद्गुरु मानने वाले ?