देववाणी (इक्कीस)
तुम्हारे आरम्भ में ही तुम्हारा अंत है
‘तुम किस बुरे अनुभव की बात कर रहे थे? अधिक तो नहीं पर कुछ भाषाविज्ञान मैं भी जानता हूं। उन्होंने कई पहलुओं से इसे जांचा और पाया कि भाषा के इतने जटिल ढ़ाचे का विकास अनुनादी शब्दों से नहीं हो सकता और उसी आजमाए और छोड़े हुए रास्ते को अपना कर, तुम विषय से अनजान अपने भोलेभाले पाठकों को भ्रमित करते हो, और तेवर ऐसा अपनाते हो कि जैसे भाषाविज्ञान में क्रान्ति कर रहे हो।’ मेरा मित्र मिल जाय और कोड़ों की बरसात न शुरू हो जाय यह संभव ही नहीं है।
मै मुस्कराता रहा और सिर्फ इतने से ही वह नर्वस होने लगा। इसका मजा लेते हुए मैंने कहा, ‘बैठो। अपना सारा ज्ञान उलाटने के बाद खाली हो चुके होगे, लो पानी पी लो। कुछ तो भीतर रहे।
उसने पानी का गिलास तो बिना कुछ कहे ले लिया, एक दो घूंट पीकर गिलास एक किनारे रख भी दिया, पर देखता उसी तेवर से रहा जिसमे अब चुनौती के साथ उलझन भी मिल गई थी।
‘‘देखो, जो अन्तिम ज्ञान तक पहुंच चुके हैं वे कुछ नया समझना तो दूर सुनने को भी तैयार नहीं होते, इसलिए मैं तुमसे यह उम्मीद नहीं कर सकता था कि तुम यह मोटी सचाई तक समझ पाओगे कि जटिल तन्त्रों का विकास जिन सूक्ष्म आद्य रूपों से होता है उनमें उस जटिलता की समग्र संभावनाएं निहित होती हैं। जैसे बट बीज में बटवृक्ष, शुक्राणु और सूक्ष्मांड में मनुष्य के सभी गुणसूत्र।
रही बात उस अनुभव की बात तजिसका हवाला दे कर मैं आगे बढ़ गया। उसका एक इतिहास है जो ग्रीक सभ्यता तक जाता है। वहां अफलातून यानी प्लेटो ने भाषा पर विचार करते हुए खासी मशक्कत करने के बाद भी खासी नासमझी की बातें की थीं। वह केवल संज्ञाओं को ही पूरी भाषा मान कर उसे समझने का प्रयत्न कर रहे थे और जिस तर्क सरणी से बढ़ रहे थे वह उस मशक्कत के अनुरूप ही मूर्खतापूर्ण थी और इसके बाद भी उसमें कुछ तत्व की बातें थीं जिन्होंने अस्तित्ववादी दर्शन में प्रेरक का काम किया। जैसे यह किसी वस्तु को हम अपनी जरूरत के अनुसार देखते और जानते हैं, पर यह उसका अपना स्व नहीं होता। वह अपने आप में हमारी जरूरत से भिन्न कुछ होता है। पर्यायों की समस्या, बहुअर्थी शब्दों की समस्या, इसमें नैसर्गिकता और मानवीय हस्तक्षेप आदि सवालों से भी टकराये थे और इस उहापोह में संज्ञाओं की रचना या उत्पत्ति को समझने का प्रयत्न किया था. जैंसे एक फिरकी (शटल) लकड़ी की होती है पर लकड़ी फिरकी बनने के लिए नहीं होती, न फिरकी होती है, इस सिलसिले को तुम पीछे और खींच सकते हो। अब फिरकी के लिए शब्द पर विचार करते हुए वह कहते हैं, फिरकी जुलाहे की जरूरत है कि वह धागों के बीच से गुजर सके पर जुलाहा फिरकी नहीं बना सकता। इसके लिए उसे बढ़ई के पास जाना होगा और अपनी जरूरत बतानी होगी जिसकों ध्यान में रख कर वह फिरकी बनाएगा। नई चीज़ के लिए नए शब्द की जरूरत जिसे होती है वह शब्दकार के पास जाता है कि मुझे इसके लिए नाम चाहिए और वह उसे उसकी संज्ञा देता है।’ मैंने अपना माथा पीट लिया।
‘इसमें गलत या मूर्खतापूर्ण क्या है? हमारे यहां भी लोग बच्चे का नाम रखने के लिए पंडित के पास जाते रहे हैं और वह नामकरण करता रहा है।’
‘मैंने कहा न जब जनमकुंडली वाली समझ से भाषा की उत्पत्ति तलाशने चलोगे जिसमें ध्वनियों का भंडार तुम्हारे पास है, सिर्फ चुनाव करना है कि इस नई चीज को कौन सा नया नाम दूं जो दूसरे लोगों या चीजों को दिए गए नामों से अलग हो तो इस तरह की यांन्त्रिकता रहेगी।
अंतर इतना ही है कि हमारे यहां जैसा कि पतंजलि ने कहा था कि लोग नाम रखवाने के लिए वैयाकरण के पास नहीं जाते, वे अपनी जरूरत के अनुसार स्वयं नाम गढ़ लेते हैं, पर यान्त्रिकता हमारे यहां भी थी। वह ज्ञान व्यवस्था ही ऐसी थी कि उसमें भाषा की उत्पत्ति को ही नहीं इसके चरित्र को भी समझने में कठिनाइयां थीं। इसी से घबराकर फ्रांस में जब भाषा विषयक अनुसंधान की संस्था बनी तो उसमें यह चेतावनी थी कि इसमें भाषा की उत्पत्ति पर बात न की जाएगी।
‘इसका मुझे पता नहीं था, ‘ उसने सहज भाव से स्वीकार किया।
‘ मेरा भी ज्ञान, तुम्ही बताते हो कि बहुत अच्छा नहीं है और सिर्फ इस मामले में तुम्हारी जानकरी ठीक है। खैर इसका हवाला मैक्समुलर ने दिया था और इसका अनुमोदन करते हुए दिया था फिर भी वह शब्दों के इतिहास की बात करते हैं, व्युत्पत्ति की बात करते हैं।’’
वह मुस्कराने लगा, जबान से कुछ न कहा।
‘भाषा की उत्पत्ति की समस्या भाषावैज्ञानिकों में से कुछ की इस चिन्ता से आरंभ हुई कि आज की दुनिया में यदि सभी देश और समाज एक ही भाषा में बात करें तो सबका ज्ञान सबके द्वारा साझा किया जा सकता है। विगड़ते हुए हालात में भाषाई अहंकार को त्याग कर सभी राष्ट्र किसी एक भाषा में बात करें तो राष्ट्रों के बीच तनाव कम किया जा सकता है। इसी आशा और विश्वास से नई भाषा गढ़ने के क्रम में उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सवाल पर फिर विचार करना आरंभ किया और कई तरह के सुझावों के बीच एक ऐसी भाषा तैयार की जिसे मैं दुनिया की सबसे सरल और सुन्दर भाषा मानने को तैयार हूं। यह थी एस्पेरान्तो जिसं संयुक्त राष्ट्रसंघ की भी मान्यता प्राप्त है।
‘परन्तु बहुत सुथरी और निखोट कृत्रिम रचना नैसर्गिक विकास का स्थान नहीं ले सकती, न ही उन रहस्यमय पक्षों को आत्मसात् कर सकती है जो उसमें है। एस्पेरान्तो नहीं चल पाई। राष्ट्रसंघ के प्रोत्साहन और आधुनिक विश्व की जरूरत के बाद भी। यह एक खतरनाक प्रस्ताव था, इसे भी नहीं समझा गया। नैसर्गिक विविधताओं को नष्ट करते हुए कुछ को सर्वोत्तम मान कर शेष को मिटाने या उनके मिटने की परिस्थितियां तैयार कर देना एक खतरनाक विकल्प है । सबसे रोचक बात यह कि नई भाषा गढ़नेवालों ने यह समझने का पूरा प्रयास किया कि भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई और उसी का सहारा लेकर अपनी नई विश्वभाषा गढ़ना चाहते थे। इसे लेकर हास्यास्पद अटकलबाजियां करते रहे परन्तु समझ न सके। जो नई भाषा गढ़ी वह भी यूरोपीय भाषाओँ का वैसा ही पचमेल था जैसा PIE के रूट्स की उद्भावना करते हुए किया जाता रहा है और जिसकी आलोचना स्वयं ऐसे भाषाविज्ञानी भी करते रहे थे। यूरोप का आदमी कितना भी प्रखर हो वह भाषा की उत्पत्ति को नहीं समझ सकता।’
अब उसके ठठा कर हंसने की बारी थी, हंसी थमी तो बोला, ‘मैं पहले से जानता था तुम आओगे इसी ब्रह्मसूत्र पर।’
‘मैं यही कह रहा था कि तुम पहले से सब कुछ जानते हो इसलिए न कुछ धैर्य से सुन सकते हो न अपने माने हुए से अनमेल पड़ने वाले किसी सत्य को समझ सकते हो। यहां तक कि तुम सही सवाल तक नहीं कर सकते नहीं तो अपना फैसला सुनाने से पहले पूछा होता कि मई ऐसा कह किस आधार पर रहे हो ?
उसका उत्साह ठंडा पड़ गया, सम्भलने में कुछ समय लगा, फिर बोला, ‘चलो, तब नहीं तो अब सही। अब तो बताओ कि यह राय तुमने बनाई किस आधार पर है?’
‘थक गए होंगे। आराम करो। शाम को बात करेंगे।’