Post – 2017-05-03

देववाणी (बाईस)
सान्ध्यराग

उसे नींद आई थी या नहीं, नही जानता । उठा आंख मलते ही थी, वह भी चाय के लिए आवाज लगाने पर, हाथ मुंह धोकर चाय के लिए बैठा तो प्याला उठाने के साथ बोला, ‘हां अब बताओ!’

मैं हंसने लगा।

‘हंसने से काम नहीं चलेगा। बगलें मत झांको। जवाब तो देना ही पड़ेगा।‘

‘मैं जब कहता हूं पश्चिम का प्रखर से प्रखर बुद्धिजीवी भाषा की उत्पत्ति को नहीं समझ सकता तो न तो मेरे मन में उनकी बौद्धिक क्षमता को लेकर कोई सन्देह है, न ही उनके अध्यवसाय को लेकर। इन सभी मामलों में वे हमारे लिए अनुकरणीय हैं। उनकी अनुसंधान पद्धति हमसे अधिक विकसित है, जिस सीमा तक हम उसका निर्वाह करते हैं, परीणाम अच्छे ही आते हैं। हम उनका निर्वाह नहीं कर पाते पर उन्हें बचपन से ही, कहो छोटी कक्षाओं से ही इसकी आदत डाल कर इसे उनके सामान्य आचरण का अंग बना दिया जाता है। हम अनेक दृष्टियों से पश्चिम से पीछे हैं और कुछ माने में अपने गौरवशाली दिनों में भी उनसे आगे नहीं रहे। साधनों और सुविधाओं की तो कोई तुलना संभव ही नहीं।

इसके बाद भी जब मैं मानविकी के क्षेत्र में उनकी कुछ अशक्यताओं की बात करता हूं तो इसलिए कि जिन प्रतिज्ञाओं का पालन वे प्रकृत विज्ञान के क्षेत्र में करते हैं उनका निर्वाह वे मानविकी में नहीं करते। ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि यहां विजय का संकल्प (the will to conquer), प्रभुत्व का आवेग (the urge to dominate) इतना प्रबल रहा है कि विवेक इन आवेगों का गुलाम बन जाता रहा है। वैज्ञानिकता से प्रेम की कसमें खाने के बाद भी वे कुछ मामलों में इतने जाहिल सिद्ध होते हैं कि उनकी सर्वोत्तम मेधाएं भी परिवेशीय दबाव में इस तरह झुक, मुड़ और बदल जाती हैं कि जब तक यह समझ न लो कि अमुक कारणों से ये ऐसी गलतियां कर सकते हैं और ऐसे स्थलों को पहचानते न चलो तब तक उस विडंबना को समझ ही नहीं सकते जिसके शिकार अन्यथा बहुत सचेत और तत्वदर्शी विद्वान भी हो जाते रहे हैं।

मैं स्वयं इसे समझाने चलूँ तो तुम्हारी खोपड़ी में यह बात घुसेगी ही नहीं, इसलिए अपने प्रिय भाषाविज्ञानी सस्यूर की कुछ निष्पत्तियों की ओर तुम्हारा ध्यान दिलाना चाहूंगा। मैं ज्योतिषी नहीं हूँ परन्तु इस बात का पूर्वानुमान मुझे भी था कि तुम किस तरह के सवाल मुझसे करोगे, इसलिए जब तुम सो रहे थे मैं अपने नोट तलाश रहा था, जिसे जो मान बैठा उसे बहुत कुछ हासिल होगा, परन्तु यह आत्मविश्वास नहीं कि मैंने अपनी जानकारी का सही उपयोग करते हुए सत्य को समझने का प्रयास किया है और हमने अपनी समझ पर विश्वास करनेवालों को गुमराह नहीं किया है। पहले इन वाक्यों को हृदयंगम करो और आराम से चाय पिओ फिर बात करेंगे:
१. The sense of a term depends on presence or absence of a neighbouring term.
२. The system leads to the term and the term to the value.
३. system of words as opposed to the word in isolation.
४. what are our ideas, apart from our language ? They probably do not exist.
५. … there is nothing at all distinct in thought before the linguistic sign.
६. Idea of different tenses, which seems quite natural to us, is quite alien to certain languages। As in the Semitic system (Hebrew) there is no distinction, as between present, future and past; that is to say these ideas of tense are not predetermined, but exist only as value..
७. So the whole language system can be envisaged as sound differences combined with differences between ideas.
८. There are no positive ideas given, and there are no determinate acoustic signs that are independent of ideas.
९. In the end, the principle it comes down to is the fundamental principle of the arbitrariness of the sign.

इसका लाभ मुझे तो मिला पर वह मेरे नोट में इस तरह उलझ गया कि उसकी चाय ठंढी हो गई और इतना नुकसान सहने के बाद एक लाभ उसे भी हुआ, उसने सवाल किया, ‘इसमें गलत क्या है?’

मैंने कहा, ग़लत यह है की इसके कारण तुम्हारी चाय ठंढी हो गई। मैं जानता था चाय तो ठंढी होगी ही, इसलिए केतली में गर्म पानी बचा रखा था। अब तुम चाय पियो और मेरी बात ध्यान से सुनो! मैंने नई चाय बनाई और पेश करने के बाद जब वह चाय पीने चला तो कहा, अब बोलूंगा मैं, और तुम मेरी बात पूरी होने तक चुपचाप सुनोगे।

जवाब में उसने चाय की चुस्की ली और मेरी ओर कुछ इस अंदाज से देखा जैसे कह रहा हो। ‘मंजूर !’

मैंने कहा इन वाक्यों का एक एक कथन इतना सही है की मैं इनमें से किसी का विरोध नहीं कर सकता, पर कमी यह है की विचारक ने अपनी ही प्रतिज्ञाओं का निर्वाह नही किया है। यदि श्रव्य संकेत के बिना विचार संभव ही नहीं है और विचार रहित श्रुत संकेतों का कोई अर्थ ही नहीं तो श्रुत संकेतों का एक निरर्थक पर्यावरण होना चाहिए जिसमें कुछ ऐसे लक्षण होने चाहिए जिनके कारण किसी श्रुत इकाई को किसी विचार का वाहक माना जा सके। इसमें एक सीमा तक मनमानापन भी है की किसी अर्थ में एक ध्वनि के रूढ़ हो जाने के बाद यह प्रयत्न रहे की वही ध्वनि किसी दूसरे के लिए प्रयोग में न आये, परन्तु इसमें अनुनाद की जो स्पष्ट भूमिका थी उसे आंकने में उनसे चूक हुई क्योंकि:
१- पाश्चात्य भाषाएं अपनी जड़ों से दूर होती गई हैं इस लिए वे अनुनादी शब्दों की भूमिका का महत्त्व न समझ सके न समझ सकते थे क्योंकि वे वे यूरोपीय भाषाओँ को सबसे उन्नत भी सिद्ध करना चाहते थे और सबसे पुरानी भी।
२. सास्युर को यह पता था की रोमांस बोलियों की पड़ताल से पुरानी धारणा बदली की मानक भाषाओँ से बोलियां पैदा हुई हैं और एक उल्टा सत्य सामने आया की मानक भाषाएं किसी एक बोली के अभ्युदय के फलस्वरूप अस्तित्व में आई है। फिर उन्हें पूर्ववर्ती चरणों के लिए अपेक्षाकृत अल्पविकसित बोलियों की बात करनी चाहिए थी। हम इसके लिए उन्हें दोष नहीं दे सकते क्योंकि वह इस झमेले में पड़े ही नहीं, प्रामाणिक आंकड़ों के आधार पर ही अपने विचार रखते रहे।
३. परन्तु हम उनको इस बात के लिए दोषी तो मान ही सकते हैं जिसके लिए नहाने के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक देने का मुहावरा बना है।
मुझे और कुछ नहीं कहना है। अब तुम कुछ कहना चाहो तो सुनने को तैयार हूँ।

उसने कहा, ‘यार मुझसे तेरी ऐसी क्या दुश्मनी है। कभी तो मुझे भी यह भरम पालने का मौका दे दिया कर की मैं भी कुछ जनता हूँ।’