Post – 2017-05-04

देववाणी (तेईस)
आधी जानकारी का आढ़ती

‘एक बात कहूं तो बुरा तो न मानोगे? उसने शायद पिछली खीझ मिटाने की भूमिका बनाते हुए सवाल किया।
‘तुदेम इस डर से कि कोई बुरा मान जाएगा, किसी बात को कहने में घबराहट अनुभव करोगे, यह पता लगने पर भी बुरा नहीं मानूगा, क्योंकि मैं जानता हूं इसके लिए अपनी समझ पर विश्वास और नैतिक दायित्व की जरूरत होती है। वह तुमलोगों के पास होता नहीं क्योंकि यह उस दाल या संगठन का नीतिगत फैसला हुआ करता है.

वह हत्प्रभ नहीं हुआ, ‘मैं यह कह रहा था कि तुम भरोसे के आदमी नहीं हो। अपने लिखित वादे भी पूरा नहीं कर पाते।’
मैं सचमुच चौंक उठा।

‘तीस अप्रैल की पोस्ट के अन्त में तुमने लिखा था ‘शेष कल।’ मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि वह छूटा हुआ हिस्सा क्या है, पर वह कल तो आज तक हुई नहीं।

मुझे दिमाग पर जोर देना पड़ा। याद नहीं आ रहा था, पर इतना पता तो था ही कि कई विषयों को पूरा नहीं नहीं कर पाता इससे पहले ही चर्चा किसी दूसरे विषय की ओर मुड़ जाती है। यहां तक कि जिस बात को कहने की भूमिका बनाता हूं उसके तर्कों का दबाव ही दिशा बदल देता है। मैंने हाथ खड़े कर दिए, ‘यार अब तो हाल यह है कि कई बार अपना नाम तक भूल जाता हूं। याद नहीं आ रहा उस पोस्ट में लिखा क्या था.’

उसमें तुम मणि शब्द की हड्डी पहसली अलग करते चांद पर कदम रख चुके थे। मैंने सोचा इससे आगे सूरज की ओर तो बढ़ नहीं सकते, बढ़े तो भस्म हो जाओग, इसलिए चर्चा पूरी मान ली थी। फिर ‘शेष कल’ पढ़ कर उत्सुक था कि अधूरी जानकारियों का यह आढ़ती देखें कल कौन सी गठरियां खोलता है और इतजार में पांच दिन बूढ़ा हो गया।

अजीब बात है । भूलता हूँ तो कुछ भी यद् नहीं आता और फिर याद आता है तो पूरा दृश्य उपस्थित हो जाता है, ‘अब याद आया। लेकिन तुमने यह कैसे सोच लिया कि चांद के बाद सूरज का नम्बर नहीं आ सकता। देखो चांद और सूरज में आज जितना फर्क दिखाई देता है उतना पहले नहीं था। वे दूर तो थे पर उतने दूर और पराये भी नहीं। इनसे हमारी रिश्तेदारियां थीं। इसी से तुम हमारी पुरानी हैसियत नाप सकते हो. सूरज तो चाँद से भी अधिक पास था. सुना है वह बच्चों के खेल में गाया जाने वाला गीत – चान मोर मामा सुरुज मोर पित्ती. ज्योतिर्विज्ञान में जैन चिन्तकों का काम कम नहीं है लेकिन वे मानते थे कि चांद सूरज से भी बहुत दूर है, क्योंकि उसकी गर्मी पता ही नहीं चलती जब कि निकट होने के कारण सूर्य अपने ताप से झुलसा देता है।’

उसे हैरानी हुई।

‘और जहां तक शब्दों का प्रश्न है, दोनो हमारे लिए चमकदार हैं, इसलिए चान या चन्नन को सूर्य बनते देर न लगेगी। चन्द्रमा में मे जो चन है वही अंग्रेजी में सन है और तमिल चेन्नै का मतलब जानते हो?’

नहीं जानता था। मैं सचमुच अधूरी जानकारियों का आढ़ती हूँ, अब मुझे भी लग रहा था.

‘चेन का अर्थ कभी सूर्य था, अब भूल गया लगता है। चेन्नम के अनेक आशयों में एक है सूर्यवंश। चेन्नै मद्रास का पुराना नाम था जिसका उद्धार करनेवाली जया ने अपने समाचार चैनल का नाम सन टीवी रखा था। यद्यपि चेन्नै के नामकरण के विषय में कुछ अन्य किंबदन्तियां भी प्रचलित हैं। चान, सन, और सनि (शनि) में चन को स्पष्ट देखा जा सकता है। तुम कहोगे शनि नहीं, सनीचर, शनिश्चर, शनैः चरति इति शनैश्चरः । मैं चुप लगा जाऊँगा, अपनी अधूरी जानकारी के कारण.

‘तब एक बात की ओर तो मेरा ध्यान गया ही नहीं था, इसलिए तार्किक संगति के आधार पर यह मानते हुए भी कि चन्द्रमा के मध्य पद द्र का प्रयोग भी किसी समुदाय में चन्द्रमा के लिए प्रयोग होता रहा होगा, मुझे ऐसा कोई शब्द ध्यान में नहीं आ रहा था जिसका प्रकाश, ज्ञान या किसी ग्रह नक्षत्र से संबंन्ध हो।

मुझे कौरवी प्रभाव में बने द्र के उस प्रभाव से मुक्त रूप पर विचार करना चाहिए था। वह था तर पर उस समय तरणि, तारा, और मुहावरे का आंख का तारा याद ही न आया । अब साथ ही यह भी देखो कि आंख की पुतली के लिए एक भाषाभाषी समुदाय पुतली का, दूसरा कनि / कनी या कनीनिका का और तीसरा तार / तारा का प्रयोग करता था। कन को ही चवर्गीय समाज चन कहता था जो चान, बना।

आज की स्थिति में हम तय नहीं कर सकते कि (१) चन/ चान , (२) तर/तार (३) मन और (४) मस किन बोलियों में प्रचलित रहे होंगे, पर यह कह सकते हैं कि तर का प्रयोग करने वाला अल्पप्राण और अघोषप्रेमी प्रेमी रहा होगा। इस प्रसंग में आज तमिल का स्मरण हो आता है। पर तमिल का अपना शब्द कन था या तर यह तय करने चलें तो समस्या पैदा हो जाएगी। कन तमिल में आंख के लिए प्रयुक्त मिलता है, जिसमें अनुनासिक मूर्धन्य है, तर के विषय में कोशकार संस्कृत का आभार मानते हैं।

खैर हम कह सकते हैं कि यह समुदाय घोषप्रेमी समुदाय के संपर्क में तर को दर भी पुकारने लगा होगा या यह तर बोलता रहा होगा । घोषप्रेमी उसे दर सुनता और बोलता रहा होगा और कौरवी ने इसका कबाड़ा करके द्र/ दृ आदि में बदला जिससे एक ओर तो हमारी दृग, दृष्टि. दृश्य, दृष्ट, दृष्टान्त और वैदिक दृशीक, द्राक्षीत का संबन्ध है, दूसरी ओर दर्प और दर्पण का दृ से जो शब्द भंडार तैयार हुआ है उसे दुहराने का औचित्य नहीं। इसके विपरीत तर ने तृषा, तृप्त, तृप्ति, तरु, तरणी ही नही तर्पण, तारतम्य और तरीका आदि शब्दों का आविर्भाव किया।

तर, तर तर चूना, किसी पत्ती पर पड़ी बून्द के ढरकने की ध्वनि को, या जैसा पसीने की बून्द के खिन रुक कर एक झटके में नीचे जाने के क्रम में ध्यान से सुने स्वन पर ध्यान दें तो पता चलेगा यह अनुनादी शब्द है. यही हाल चन/ चम का है. मन मत और मस का है. सभी जल की ध्वनियाँ हैं. यदि अभी तक चंचल, हलचल; तरपत / तड़फड़ाने का अर्थ समझ न पाए हो तो याद करो पानी के अभाव में विकलता को।
भाषाविज्ञानियों की चिंता थी भाषा का इतना जटिल ढांचा अनुनादी स्रोत से कैसे पैदा हो सकता है. हम ऊपर के किसी अनुनाद को लेकर उत्पन्न विपुल शब्दभंडार पर ध्यान दें जिसमे क्रिया मूल या धातुएं हैं, संज्ञाएँ हैं, विशेषण हैं, भाववाचक और गुणवाचक शब्द है, और उपसर्ग और प्रत्ययों का आदि रूप हैा
परन्तु मैं उस दिन जो बात कहना चाहता था वह इससे अलग थी।