Post – 2017-05-05

देववाणी (चैबीस)
अर्थविस्तार और आत्मविस्तार

‘अब ‘शेष कल’ वाली बात पर तो आओ।’

‘जिधर भटक गए उसकी गलियों से तो जान पहचान हो जाये। जिस तार को छेड़ दिया है उसके स्पंदन का तो अनुभव हो जाए ।’

उसके चेहरे से लगा, वह इस उत्तर से प्रसन्न नहीं है। शायद उसे डर था कि अब उसी बात को लेकर मैं उसके बेहोश होने तक अपना राग अलापता रहूंगा। मै उलझन में पड़ गया, फिर सोचा संक्षेप में कुछ तो बताना ही होगा। कहा, देखो ‘मैं कुछ उदाहरणों से यह बताना चाहता था की किसी बोली के प्रभाव से कुछ भाषाओँ में, जिनमें अन्य कोई समानता नहीं पाई जाती मूर्धन्य अनुनासिक ण के प्रति इतनी आसक्ति पैदा हुई कि वे न का ण के रूप में उच्चारण करने लगे। तमिल में तो ण के साथ साथ न के दो उच्चारभेद हैं। एक को हम अन्द = वह, इन्द= यह मेँ पाते हैं तो दूसरे को एन्रु = कब? किस दिन ? किस समय? मेँ । इसके बाद भी इसमें मन, मानव, मनन, आदि के आशयों में न को ण में बदलने की झक देखी जा सकती है:
माणम = महिमा उत्कृष्टता,
माणवकन् = विद्यार्थी
माणवन् = मानव
माणाक्कन् = विद्वान
माण = महत्व, सम्मान

देववाणी जिसे णकार का पता ही न था कौरवी क्षेत्र में पहुँच कर मनिआर (भोज. मनिहार) को मणिकार और मनका को मणि कहना पसंद करने लगी.
और एक बात की और भी ध्यान दिलाना चाहता था। लम्बाई नापने के लिए हाथ, ऊंचाई नापने के लिए अपने शरीर के जोड़ों और फिर अपनी काया और उससे ऊपर के अनुसार और दूरी नापने के लिए पांवों का सहारा लेता था। अतः अंगुल, वितस्त= बालिश्त , हस्त, भोग या भुज क्रम में माप होती थी, जिसमे हस्त को मान भी कहते थे. हस्त को तुम अंग्रेजी हैंड में और मान को मैनि- में देख सकते हो. ध्यान रहे मैन – मनु या मनुष्य से और मैनीपुलेशन हाथ के पर्याय मान से सम्बंधित है।

धरती की माप का संकेत विष्णु के तीन पग जमीन मांगने से समझा जा सकता है. और गहराईं मापने का सांकेतिक हवाला ऋग्वेद के दशवें मंडल के इकहत्तरवें सूक्त में मिलेगा जिसमे आदध्नास, उपकक्षास प्रयोग आए हैं और तुम आवक्ष, आशीर्ष और पुरुष प्रमाण या दोनों हाथ ऊपर उठाने के बाद की गहराई जिसके लिए पोरसा का प्रयोग होता है को इस क्रम में रख सकते हो। इससे अधिक गहरा हुआ तो अथाह!

एक बार कोई तार टूट जाय तो उसकी श्रृंखला बिखर जाती है. आपको यह याद दिलाना भी भूल गया की सचाई का अणु भी झूठ के पहाड़ की व्यर्थता प्रमाणित कर देता है. अंग्रेजी का मैन और दूसरी भाषाओँ में इसके सहोदर यह सच्चाई बयान करने के लिए काफी थे की होमो क्षेत्र का सम्पर्क मनु के देश से जुड़ा था या मनु की संतानें होमो प्रदेश में अपनी भाषा और संस्कृति के साथ पहुंची थीं. यहां मेरे उन पुराने लेखों को याद रखें की मनु युग या मानव युग देव युग के बहुत बाद में आता है. देव युग के पालतू पशुओं में मुख्य बकरी और गधा (अश्व) थे और मनु युग गोरू पालन के साथ आरम्भ होता है.

एक बात और याद दिलाने की थी कि मांड़, मड़िया संस्कृत में इसलिए न मिलेगा क्योंकि मड का कौरवी प्रभाव में मृदा हो गया। परन्तु बोलियों में यह चलता रहा। कौरवी प्रभाव संस्कृत पर पड़ा और अपने क्षेत्र में तो था ही। इससे बाहर यह लगभग निष्प्रभाव रहा। इसी तथ्य ने भाषाविज्ञानियों को सचमुच उलझन में डाल दिया था जिसका जिक्र हम पीछे कर आए हैं। अतः यह सोचना उचित नहीं कि हिन्दी का मिट्टी या भोज माटी, मटिया- मिट्टी का छोटा बर्तन, मेटा, मिट्टी का बर्तन, मृदा से व्युत्पन्न हैं। परन्तु मधुतता, मधु,ए मृदु आदि का सीधा संबंध मृदा और मृदु से है तथा मद, मत्त, मदन, का मत से। यह मुझे अभी ठीक लग रहा है परन्तु हो सकता है विचार क्रम में कोई दूसरा सूत्र सामने आए और इसमें सुधार करना पड़े। इसलि, मैं चाहता हूं आप इसे ध्यान से पढ़ें और प्रमसध्स न मानकर विचार प्रक्रिया मानें और खटकने वाली बातों से समय समय पर अवगत भी कराएं।

परन्तु आज तो तुम्हारे हस्तक्षेप के कारण जो कहना चाहता था कह ही न पाया।