Post – 2017-05-06

देववाणी (पचीस)
भाषाविज्ञान की कब्र

– तुम्हें एक भेद की बात बताउॅ, भाषा की सबसे अधकचरी जानकारी वैयाकरण की होती है। वह उसे सूखे काठ के रूप में, एक बढ़ई की नजर सेख् देखता है न कि एक जीवन्त वृक्ष की तरह, जैसे एक बागबान देखता है। इस मामले में उसका मुकाबला कोशकार ही कर सकता है जो भी उसी का छोटा भाई होता है। और यदि किसी भाषा का भाग्य उनको सौंप दिया जाय तो, या तो वह भाषा मर जाएगी, नही तो वह समाज जिसने उसे अपना लिया है। सरकारी हिन्दी के साथ यही दुर्भाग्य घटित हुआ।

– मैं जानता था तुम यही करोगे। तुम्हें बेतुकी बातें करने की बीमारी है। बात शब्दों की करनी थी और मुड़ गए वैयाकरणों की ओर। जानते हो, तुम जिन वैयाकरणों को कोसते नहीं थकते, वे न होते तो संस्कृत का पता तक न चलता।

– मैं कोस नहीं रहा हूं अपनी हैरानी जता रहा हूं कि इतनी मोटी बात भी तुमलोग नहीं जानते जब कि करने के नाम पर जिंदगी भर हिंदी पढाने का ही काम किया है ।

यह मेरी अपनी बात नहीं है, इसे तो पतंजलि और भर्तृहरि कह गये हैं।
तुमको पतंजलि की बात तो बताई भी थी कि भाषा का निर्माण वे करते हैं जिनको अपने अनुभवों, परिस्थितियों, उत्पादों, क्रियाओं, आदि को दूसरों तक पहुँचाना होता है। वे उनका नामकरण करने के लिये वैयाकरण के पास नहीं दौड़ते अपनी भाषा चेतना से नये शब्द गढ़ लेते हैं।*

‘यह बात तो तुमने पहले कभी नहीं कही.’

‘ठीक इन्हीं शब्दों में नहीं कही. पतंजलि ने एक उदाहरण देकर संक्षेप में यही बात कही थी, परन्तु भर्तृहरि ने तो साफ कहा था की भाषा को लोक गढ़ता है, उसके नियम कायदे सब वही बनाता है. तुम कहोगे की जब भाषा लोक गढ़ता है तो वैयाकरण क्या करता है?

‘ वैयाकरण एक ही जैसी बोली की भिन्नताओं से पैदा समस्या का समाधान करने के लिए किसी एक उपबोली को सबके लिए बोधगम्य बनाने के लिए उसका मानकीकरण कर देता है। उन स्वतंत्रताओं को नियंत्रित करने का प्रयास करते हुए दरजी या बढ़ई की तरह काट छाँट और जोड़ तोड़ करता है जिनसे भाषा की प्राणवत्ता बनी रहती है । कहो, उसकी प्राणवत्ता और लोच को भी कम कर देता है. वैयाकरण बनने के बाद आदमी न देश दुनिया को समझ पाता है,न कोई दूसरा उसे समझ पाता है और वह खुद उस भाषा की हथकड़ियों बेड़ियों को तो अच्छी तरह समझता है, पर अफ़सोस कि भाषा को नहीं समझता है।

मैं कोस नहीं रहा हूं अपनी हैरानी जता रहा हूं । सोचो क्या बोलने वाला व्याकरण के नियम तलाशते हुए अपने प्रयोग करता है। उस प्राथमिक चरण पर जब ध्वनि ही (१) उस स्रोत की संज्ञा थी जिसकी किसी क्रिया से या जिसके साथ हुई छेड़छाड़ से वह ध्वनि पैदा हुई, उदाहरण के लिए सर – जल, (२) वह ध्वनि ही उस क्रिया का बोधक थी, जिससे यह पैदा हुई, उदाहरण के लिए प्रवाह या गति, सरन, सरकना (३) वह ध्वनि ही उस ध्वनि की लय की,उस विशेषता का द्योतक थी जिससे यह पैदा हो रही थी, उदाहरण के लिए सर सर, (४) वह ध्वनि ही उस गुण को प्रकट कर सकती थी जो उस वस्तु में है उदाहरण के लिए, सरस, (५) वह ध्वनि ही उस वस्तु के भंडार को अभिहित कर सकती थी, उदाहरण के लिए, सर = सरवर > सरोवर, सरि, (६) वह ध्वनि ही उस क्रिया वाली वस्तुओं के लिए प्रयोग में आ सकती थी, उदाहरण के लिए, सर=बाण, (7) कभी कदा उसके आदि अक्षर को उपसर्ग के रूप में काम में लाया जा सकता था, उदाहरण के लिए ‘स’ ! यहां याद दिलादें कि यह प्रस्ताव हम एक वैदिक प्रयोग के आधार पर कर रहे हैं जिसमे ससर्परी प्रयोग आया है, और इसका सघ (सह) के आद्यक्षर के उपसर्ग बनने से नहीं।

हम इसे और विस्तार देने से बचते हुए यह कह सकते हैं कि जैसा कि हम बट बीज और शुक्राणु और अंडाणु के उदाहरणों से पहले कह आये है आद्य रूपों में अव्यक्त रूप में परवर्ती विकास निहित होता है इसलिए अनुनादी शब्दों में ही, संज्ञा. क्रिया, विशेषण, क्रियाविशेषण, उपसर्ग और अन्तःसर्ग या निपात और प्रत्यय बनने की ही क्षमता नहीं थी, बहुत कुछ और को नामित करने की क्षमता भी थी।

पाश्चात्य भाषाविज्ञानी असाधारण श्रम और संकल्प के बाद भी अनुनादी शब्दों में से केवल कुछ को पहचान पाए और उनका ज्ञान नाद और उससे जुडी संज्ञा से आगे बढ़ ही न पाया। अपने उत्साह में वे अनुसन्धान कर रहे थे या भाषाविज्ञान की कब्र खोद रहे थे?

मकबरा बुलन्द है पर उसमें दबी लाश पर फूल चढ़ाए जा सकते हैं, हासिल कुछ न होगा। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान विज्ञान है ही नहीं, इसकी घोषणा भी उनके ही एक मेधावी को करनी थी!uŷ