देववाणी (छब्बीस)
बोलियां, लोक भाषा और मानक भाषा
भाषा, समाजशिक्षा, सामाजिक सर्जनात्मकता और राष्ट्रीय उत्थान की समस्यायें परस्पर जुड़ी हुई हैं, और इस दृष्टि से किसी देश की शिक्षा नीति और सरकारी कामकाज की भाषा विषयक निर्णय बहुत महत्व रखते हैं। हम इस विषय पर पहले से लिखते आए हैं। परन्तु हमारा क्षेत्र विचार या मानसिक बदलाव तक सीमित है न कि इसके आन्दोलन से जुड़ा। आन्दोलन में शक्तिशाली यदि गलत या अन्यायी हो तो भी उसकी जीत होती है और अंग्रेजी की वरीयता के पीछे जितना व्यापक और बहुआयामी समर्थन है उसका सामना करने वाला आन्दोलन नहीं खड़ा किया जा सकता। विचार में सत्य और न्याय का पक्ष अपने दायरे का विस्तार करता है और स्वतः अपने औचित्य के बल पर इतनी प्रबल शक्ति बन जाता है कि वह अपने विरोधियों को निस्तेज करके व्यर्थ कर दे। कुछ यूं कि हउनके सारे हथियार और औजार व्यर्थ हो जायं।
मुझे इस पोस्ट के माध्यम से कुछ भ्रान्तियों का निराकरण करना, या उनके विषय में अपना मन्तव्य प्रकट करना जरूरी लगा।
पहली बात हम बोलियों का प्रयोग उन उपबोलियों के क्षत्र क्षेत्र के रूप में कर रहे हैं जिन्हें हम अपनी मां और अपने परिवेश से सीखते हैं और बोलते हैं, परन्तु जिनमें इतने अन्तर होते हैं कि या तो इनका कोई मानक रूप तैयार किया जाय तो अपने पूरे प्रसार क्षेत्र में एकरूपता बनाए रख सकती हैं, और उस दशा में आरंभिक शिक्षा का भी माध्यम बन सकती हैं, अ्न्यथा अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्याग कर अपने स्थानीय चरित्र को बचाए रख सकती हैं।
ध्यान में रखना होगा कि पूरे बोली क्षेत्र में व्यवहार के लिए जिस मानक भाषा का निर्धारण किया जाएगा वह अल्पायु ही होगी। उपबोलियां उस मानक रूप में नीचे अपनी गति से चलती रहेगी। परिवर्तनों से गुजरने के बाद भी ये चिरायु हैं। इनका भी अन्त हो सकता है यदि पूरे समाज के शिक्षा, संस्कृति और आर्थिक स्तर में समरूपता पैदा हो सके और शैक्ष भाषा निजी व्यवहार में आ कर उस ग्राम्य पद्धति को ही बदल दे जिसमें अनपढ़ ओर अपने ही भौगोलिक परिवेश में सिमट कर रहने वालों की संख्या इतनी कम हो जाय कि उनकी भाषा, भाषाई परिवेश का निर्धारण न करे।
दूसरी बात यह कि मानक भाषाएं तभी तक जीवन्त बनी रह सकती हैं जब तक वे लोक भाषा को अपना आदर्श मानें। यहां लोक भाषा से मेरा तात्पर्य उस मानक भाषा के लोक व्यवहार वाले रूप से है, न कि क्षेत्रीय बोलियों से। कहें, यह मानक भाषा का वह रूप है जिसे आप हाट बाजार में बोलते हैं और जिसे बोलते समय इस विषय में अतिरिक्त रूप में सावधान हुए बिना आप की वाक्य रचना में सरल वाक्यों की संख्या बढ़ जाती है, ऐसे शब्द प्रयोग में नहीं आते जिनको समझने में अशिक्षित को भी कोई कठिनाई हो।
ऋग्वेद में मरुतों के वाहन चित्रमृग (चीतल ) के लिए पृषती प्रयोग में आया है, बोलियां भी चितकबरी हैं, रंगबिरंगी हैं। बहुत ग्रहणशील फिर भी सब कुछ अपनी प्रकृति में ढाल कर अपनाती हैं। कौरवी ने देववाणी को भी अपने रंग में ढाल लिया था। आज संस्कृत किसी क्षेत्र के काम काज की भाषा नहीं है, सामान्य बोलचाल की भी नहीं, परन्तु कौरवी उससे पहले भी थी आज भी है और आगे भी रहेगी। यह सौभाग्य किसी मानक भाषा को प्राप्त नहीं हुआ, यह हम पहले कह आए हैं, परन्तु इसका कारण यह था कि ये मानक भाषाएं कृत्रिम भाषाएं बनती हुई, अपने ही वायवीय जगत में विचरण करती हुई लोकभाषा से अपना नाता तोड़ बैठीं।
हिन्दी ने भी यह किया। सरकारी भाषा बनने की अपेक्षा पूरी करने के लिए। और सरकारी भाषा का हाल यह कि इसका मूल पाठ अंग्रेजी में तैयार किया जाता है, फिर उसे हिन्दी में अनूदित किया जाता है और वह हिन्दी जार्गन बोझिल होती है। विन्यास अंग्रेजी से प्रभावित होता है। हिन्दी जार्गन को समझने के लिए यह याद करना होता है कि यह किस अंग्रेजी शब्द का अनुवाद है। अर्थात् सरकारी हिन्दी जानने की एक अघोषित शर्त यह है कि आपको अंग्रेजी शब्दों का अर्थ पता होना चाहिए। ऐसी स्थिति में हिन्दी जानने वाले के सामने भी यदि कोई सरकारी ज्ञापन या पत्र हो और उसके साथ अंगेजी पाठ भी सुलभ हो तो वह अंग्रेजी पाठ पढ़ेगा, न कि हिन्दी पाठ।
मैं एक दुखद सचाई की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं। वह यह कि सरकारी हिन्दी सरकारी अंग्रेजी से अधिक दुर्बोध भाषा है और इसलिए इसके नाम पर आप हिन्दी दिवस मना सकते हैं, हिन्दी पखवाड़ा मना सकते हैं, विश्व हिन्दी सम्मेलन कर सकते हैं, परन्तु इसे कामकाज की भाषा नहीं बना सकते, क्योंकि यह कर्मकांड की भाषा बन चुकी है। इसे कर्मकांड की भाषा से बदल कर व्यवहार की भाषा बनाना हिन्दी बचाओ, हिन्दी चलाओ, आन्दोलन से अधिक जरूरी है।
संसार भावुकता से नहीं व्यवहार से चलता है, जिसमें भावुकता का भी अर्थशास्त्र होता है। अपनी भाषा की महिमा का राग अलाप कर हिन्दी का विरोध करने वाले बंगालियों और तमिलों ने भाषावार राज्य बनने और राजभाषाओं के स्वीकार के बाद भी अपने अपने राज्य में अपनी भाषा को अमल में लाने में सबसे अधिक समय लिया था।
संस्कृत का नाम आते ही भावुक हो जाने वाले ब्राह्मणों में उच्च पदों पर बैठे ब्राह्मण अंग्रेजी के सबसे बड़े समर्थक हैं। जातिवाद और वर्णवाद को पानी पी पी कर गाली देने वाले दलित और पिछड़े जातिवाद और वर्णवाद के सबसे बड़े समर्थक हैं। वर्णवाद के समाजशास्त्र से अधिक प्रबल है वर्णवाद का अर्थशास्त्र।
इसलिए हम जब किसी समस्या पर विचार करते हैं तो हमारे सामने यह बहुत साफ होना चाहिए कि हम उस समस्या का समाधान चाहते हैं, या उसे इसलिए बनाए रखना चाहते हैं कि हम उसको लंबे समय तक उछालते हुए उसका राजनीतिक लाभ उठा सकें और उस चिन्ता से अपने को कातर दिखा कर अपना रुतबा बढ़ा सकें।
यदि समस्या का समाधान चाहते हैं तो समस्या की प्रकृति को समझना होगा। समझने के लिए भावुकता से दूरी बनाते हुए विवके का सहारा लेना होगा। अपने विवके से काम ले रहे हों तो यह समझ जरूरी है कि उस वस्तु व्यापार को प्रभावित करने वाले घटक क्या हैं? उनके जिस संबंध से वह समस्या पैदा हुई है उनमें कुछ बदलाव लाया जा सकता है या नहीं? यदि हमने यह समझ लिया कि उन संबंधों में बदलाव लाया जा सकता है तो आधी समस्या हल हो गई। आधी समस्या का हल इस समझ पर निर्भर करेगा कि उन संबंधों को बदला कैसे जाए। हो सकता है यह कठिन काम हो, परन्तु जब तक हम पहली को नहीं समझते, तब तक सबसे कठिन समस्या समझने की ही है ।
हम पहले जार्गन बहुल या विशिष्ट क्षेत्र की भाषा जिसे हम तकनीकी शब्दावली से भरी भाषा कहते हैं उसे समझ लें। जार्गन शास्त्रीय होता है। सबसे कम भरोसे का होता है और लोक शास्त्र का विपक्ष है। जार्गनबोझिल भाषा उसकी भाषा नहीं हो सकती, फिर भी विवशताओं के कारण बहुत सारे जार्गन उसकी भाषा में जगह बना लेते हैं। जार्गन से जार्गन की कोई यात्रा नहीं है, वह भाषा के प्रवाह के बीच एक प्रतीक के रूप् में उपस्थित होता है जो न रहे तो उसी बात को समझाने के लिए हमें एक व्याख्यापरक टिप्पणी देने की आवश्यकता होगी और इस क्रम में भाषा इतनी पृथुल और इसके कारण ही उससे भी अधिक दुर्बोध हो जाएगी जितनी तकनीकी शब्दों या जार्गन के प्रयोग से दीखती है। अतः यह समझना जरूरी है कि जार्गन भाषा को या कथन को सरल बनाने का उपाय है, न कि उसे कठिन बनाने का।
दूसरा यह कि जार्गन बदले जा सकते हैं, उनका सांकेतिक अर्थ उनके द्वारा या किसी अन्य शब्द या संख्या के द्वारा उसी सटीकता से व्यक्त किया जा सकता है। परिचित श ब्दों को जार्गन के रूप् में प्रयोग किया जा सकता है। चाणक्य ने जिन शब्दों को जार्गन बना कर प्रयोग किया उनका अर्थ नए सिरं से समझना होता है। वेद से लिए गए शब्द संविदा, निविदा, संसद, परिषद उसी अर्थ में प्रयोग में नहीं आते थे जिस अर्थ में हमने उनको ग्रहण किया।
जार्गन विषेशज्ञों के उपयोग में आते हैं और हमारे बुनकर, चर्मकार, मछियारे, नौचालक, सभी जार्गन का प्रयोग करते है और उस क्षेत्र की जानकारी के लिए उनके जार्गन और उन्हीं क्षेत्रों के पाश्चात्य जार्गन को समझना और उनके बीच चुनाव करना जरूरी है।
जार्गन का एक परिवेश और इतिहास होता है जिसे वे प्रतीकब़द्ध करते हैं। यदि वह आपका सिरजा हुआ नहीं है, उसे आपने उधार लिया है तो शराफत का तकाजा है कि उसे अपना बनाने की जगह उस शब्द को अपनी भाषा का अंग बना लें। आपकी भाषा सरल न भी हो तो कम दुरूह रह जाएगी।
भाषा में बेईमानी नहीं चलती। शुद्धतावाद नहीं चलता। सबका स्थान प्रयोग, प्रयोज्य और प्रयोजनीयता ले लेती है। जिन अर्थों में जो शब्द लोकभाषा का अंग बन चुके थे उनको नकारते हुए अपनी ही लोकभाषा को नकारते हुए लोकविमुख भाषा दूसरी किसी भाषा की अनुचरी हो सकती है, स्वतन्त्र भाषा नहीं हो सकती।
वह अपने को रेाक न पाया। ‘यार, मैं तुम्हें सुनता हूं तो लगता है तुम जानी समझी बातों को भी दुर्बोध बना देते हो।’
मेरे पास उससे सहमत होने के अतिरिक्त कोई चारा न था, ‘तुम ठीक कहते हो। सच को जानने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को जानना जरूरी होता है। उसके अभाव में सच दुर्बोध हो जाता है। यही है भाषा और जार्गन की भेदरेखा।