Post – 2017-05-08

#देववाणी (सत्ताइस)
शब्द निर्माण प्रक्रिया

‘यदि तुमने किसी सारंगी वादक को तारों पर आघात के सूक्ष्म अन्तर से अलग अलग ध्वनियां निकालते देखा हो तो भाषा के विकास के उस चरण को भी समझ सकते हो जिसमें बोलना तक एक आह्लादकारी अनुभव से गुजरना था। नये प्रयोग अर्थ सेचार के साथ सर्जना के आनन्द की अनुभूति भी कराते थे। शब्द फूल जैसे हल्के, नैसर्गिक प्रतीत होते थे और उनका अर्थ गंध की तरह स्वतः बिना परिभाषित किए श्रोता तक पहुंच जाता था। बोलियों में, सभी बोलियों में, ये तत्व आज तक नष्ट नहीं हुए हैं। कृत्रिम भाषाएं तो कागजी फूल है। उनमें भाषा का अपना आनन्द नई व्यंजनाएं गढ़ते हुए ही प्राप्त होता है। पर यह अपनी कारीगरी पर मुग्धता होती है, जिसका संचार उतना सहज नहीं होता।

देववाणी का यह गुण वैदिक में कुछ कुछ बचा रह गया था, इसलिए हमने ऋग्वेद से जिन शब्दों को अपने तकनीकी भंडार में शामिल किया, वे हिन्दी में उसी तरह घुल गए जैसे नमक पानी में घुल जाता है। निविदा, संविदा, सदन, सदस्य, संसद, समिति आदि ऐसे ही शब्द हैं। पर ऋग्वेद तक देववाणी अपना सौष्ठव काफी दूर तक खो चुकी थी। तकनीकी जरूरतों और सूक्ष्मतर संकल्पनाओं की मांग नैसर्गिक तरीकों से पूरी नहीं हो पाती।

जहां से हम प्रकृति में हस्तक्षेप करते हैं, वहीं से उस सूनृता वाक् में भी हस्तक्षेप करते हैं जिससे हमने भाषा का विकास किया था। औजारो और युक्तियों का जोड़तोड़ करते हुए नए आविष्कार करने वाले भाषा में भी जोड़तोड़ करते हुए अपनी अपेक्षाएं पूरी करने को बाध्य थे।

यहीं से वह इंजीनियरी आरंभ होती है जिसमें भाषा की निर्माण प्रक्रिया भी बदलती है और इसे समझने की युक्तियां भी बदलती हैं। बदलती भी इस हद तक हैं कि हम पिछले चरण की विकास प्रक्रिया तक के प्रति अनभिज्ञ होते चले जाते हैं। यही संस्कृतीकरण की प्रक्रिया है। यहां कौरवी की एक कारक भूमिका भी है। यही कारण है कि जब तक कोई भाषा हमारे सुख दुख, राग विराग के प्रकृत स्तर पर बनी रहती है उसका काम देववाणी की युक्तियों से चल जाता है, परन्तु जब वह विचार और दर्शन की ओर अग्रसर होती है तो उसे संस्कृत से सहायता लेनी होती है, वह संस्कृतमय होती चली जाती है।

ऋग्वेदिक समाज तकनीकी दृष्टि से बहुत आगे बढ़ा हुआ था, इसलिए कई विफल प्रयोग नयी चीजे बनाने वालों ने भी किए ही होंगे, वैसे ही कुछ अटपटे भोंड़े प्रयोग शब्द गढ़ने में भी किए गए, जैसे सास्युक्थ्यः (सः+ असि+उक्थ्यः) एतायामोप (आ+इत+ अयाम+उप) इहेहमातरा (इह इह च सर्वत्र माता), अक्रविहस्त (निष्पाप) , अदब्धव्रतप्रमतिः (जिसे जो ठान लिया उससे कोई डिगा न सके ), आदि ।

इन विरल अपवादों को छोड़ दें जिनकी संख्या अधिक नहीं है तो दूसरे रूप अपेक्षाकृत अधिक सटीक और कम अटपटे हैं जैसे अकृत्तरुक (लकदक), अकामकर्शण (अनाकर्षक), हृदयाविध (मर्मभेदी), अतिविद्ध (ऐसा मनका जिसका छेद अधिक चैड़ा हो गया हो), आदि।

परन्तु वैदिक शब्द निर्माण प्रक्रिया बोलियों की अपनी निर्माण प्रक्रिया के निकट पड़ती है जिसमे निर्माण जैसा कुछ लगता ही नहीं, सारंगी के तार का स्पर्श और धर्ष का दबाव और स्पंदन बदल जाता है. केतु, प्रतीत, प्रतीक, अंक, अच्छा, अजस्र, अंकी, अंकुश, अंग, अजस्र,, तन्द्रा, अति, अद्भुत, अद्य, अनवद्य, अध्यक्ष, अधिवक्ता, उपवक्ता, दूत, सम्राट, अधिराट। हिन्दी में ये शब्द भी घुलमिल गए।

यह स्मरण दिलादें कि वैदिक में इनमें से अधिकांश शब्दों का अर्थ वही नहीं है जिससे हम परिचित हैं। यह गढ़े हुए शबदों की अपनी सीमा है जिसे हम बता आए हैं। यहां हम इस प्रश्न को इसलिए उठा रहे हैं कि जिने सुन्दर, सरल और मार्मिक शब्द वैदिक समाज गढ़ सका वैसे नए और सर्वजनग्राह्य शब्द हमारे शब्दनिर्माता क्यों न गढ़ सके? अंग्रेजी में जो तकनीकी शब्द समस्या पैदा नहीं करते वे हिन्दी में समस्या क्यों पैदा करने लगते हैं? इसका उत्तर यह है कि जब तकनीकी विकास में प्रयत्नशील समाज अपने नये अविष्कारो और तकनीकी आवश्यताओं के अनुसार शब्द गढ़ता है तो उसमें वस्तु बोध और शब्दबोध में वह दूरी नहीं होती जितनी दूरी बिना कुछ किए, उधार की तकनीक लेकर, उसका भी सही उपयोग न कर पाने वाले समाजों की भाषा में पाई जाती है । समस्या श्रमिकों, उत्पादकों, विविध उद्यमों में जुड़े लोगों के शब्दों को अपनाने की जगह, शब्द से शब्द गढ़ने की समस्या के कारण पैदा होती है। इसे मैं प्रायः भैंस से दूध दुहने की जगह भैंस दुहने की समस्या मानता हूं।

पर रोना वही की भूमिका में ही समय निकल गया। बात तो देववाणी के शब्द निर्माण पर करनी थी जो हो सकता है कल आरम्भ हो जाए।

आज इतना ही कि भाषा की इंजीनियरी श्रम से परहेज़ करने वाले पंडितों द्वारा गढ़ी गई है इसलिए उसमे आडंबर है, वह स्वाभाविकता नहीं जो वैदिक जार्गन में मिलती है ।

संस्कृत का सहारा लेने वाली बौलियाँ भी संस्कृत की तरह अपना अलग संसार रचने लगती है, अपनी जड़ों तक को भूलने लगती है और जब जड़ें ही कमजोर हो जायं तो भाषा की प्राणवगा चुकने लगती है और समाज के सामान्य संचार की भाषा नहीं रह जाती और काल कवलित हो जाती है।

इसलिए चिरायु होने के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटना, उस रस का जिसे पत्तियां ग्रहण करके वृक्ष का पोषाहार बनाती हैं जड़ों तक वापस जाना और जड़ों से खाद पानी ग्रहण करना दोनों साथ साथ चलता रहे तो भाषा स्वाभाविक भी बनी रहेगी, अमूर्तन की अपेक्षाओं को भी पूरा कर सकेगी।

हम इस झमेले से निकल कर उस चरण पर लौटें जिसकी तलाश दुनिया की सभी बोलियों में की जा सकती है। मूलोच्छिन्न भाषाओं में यह अपेक्षकृत कम मिलेगा, मूल से जुड़ी भाषाओं में किंचित अधिक। परन्तु आज तो यह संभव नहीं।