Post – 2017-05-09

देववाणी (अठ्ठाइस)
नाद ही शब्द, नादभेद ही अर्थभेद

हम जिसे देववाणी की विशेषता मानते हैं वह, हमारी अपनी समझ से, सभी आदिम बोलियों की विशेषता थी, इसलिए इसे विशेषता कहना भी केवल विकसित और मानक भाषाओँ के सन्दर्भ में ही सार्थकता रखता है। आज आदिम अवस्थाओं में जीने वाले समाज भी हमारी समझ के कारण आदिम हैं, अन्यथा अपने आदिम जीवन के लिए कुख्यात आस्ट्रेलियाई आदिवासियों तक के जीवन पर दूसरी संस्कृतियों का प्रभाव लक्ष्य किया गया है।

हम भाषा के सन्दर्भ में जिस प्राचीन चरण की बात कर रहे हैं उसमें ध्वनि परिवर्तन से अर्थभेद किया जाता था, दुनिया की कुछ भाषाएँ आगे भी उसी जुगत का प्रयोग करती रहीं. उदाहरण के लिए अरबी और इससे प्रभावित भाषाओँ में स्वरभेद से ही अर्थभेद – किताब-क़ुतुब-कातिब – किया जाता है. अंग्रेजी में सिंग-सैग-संग-सांग के पीछे भी यही तर्क बचा हुआ है। वैदिक में यह संस्कृत की अपेक्षा अधिक क्रियाशील था। उदाहरण के लिए भोज. में हिंदी सब के लिए आज भी कुछ लोग ‘सभ’ का प्रयोग करते हैं। हिंदी के प्रभाव से ‘सब’ का प्रयोग भी चलता है और हिं. ‘सभी’ के लिए अनपढ़ भी ‘सब ही’ (एमे सब ही केs हिस्सा चाही = इसमें सभी को हिस्सा चाहिए) का प्रयोग करते पाए जा सकते हैं. परन्तु सामान्य प्रयोग (एहमे सभकेs हिस्सा चाही) ही है। देववाणी का सभ हिन्दी में सब हुआ और वह कौरवी प्रभाव में सर्व हुआ, न कि सब, सर्व का अपभ्रंश है, और सभी सब के साथ निश्चयात्मक, हि, प्रत्यय जुड़ने का परिणाम है। अब क्रम सभ > सभा > सभी का बना जो वैदिक में सभेय और संस्कृत में सभ्य उसी तर्क से बना जिससे इह यह, और इहां, इहवां, यहां, बना फिर ‘सभ्य’ का अर्थविस्तार होने के बाद वैदिक में भी सभासह बना और सं. में सभासद ।

हम आपका ध्यान दो बातों की और दिलाना चाहते हैं. पहला यह कि संस्कृत वैयाकरणों के नियमों का एक नई दृष्टि से अध्ययन जरूरी है। जिसे वे ऐतिहासिक बदलाव मानते हैं वह आंचलिक बदलाव है। उनके अनुसन्धान अमूल्य हैं, पर तभी जब हम समझें कि बोली बानी के भेद के कारण एक ही शब्द को कई भाषाई समुदायों के सम्पर्क में आने के बाद उनके विविध रूप हो जाते थे। हमारे वैयाकरणों ने इन्हे ऐतिहासिक संदर्भ में देखा। आंचलिक विविधताओं की ओर भी उनका ध्यान गया, अन्यथा पाणिनि यह न लिखते कि गान्धारों में ‘शव’ का अर्थ गमन होता है। परन्तु इस सर्वेक्षण में चूक यह थी कि वह यह न देख सके कि मरने के लिए लोक में गुजरने का प्रयोग गांधार तक सीमित नहीं है।