Post – 2017-04-24

सत्यान्वेषण

गलतियों को पहचानने और उनको दूर करते रहने का ही दूसरा नाम सत्य की खोज है। जब मैंने महापुरुषों तक की गलतियां गिना दीं तो मैं किस गिनती में आता हूं। मैं जिन आंकड़ों को पेश करता हूं उनमें जो गलतियां होंगी उनमें से कुछ को आप ताड़ सकते हैं और इसके लिए पत्थर की नजर की भी जरूरत न पड़ेगी। आप कह सकते हैं ‘आप अपना काम कर रहे हैं, कीजिए, हम इस पर अपना समय क्यों लगाएं। मैं कहना कई बहानों से यह कह आया हूं कि यह मेरा काम नहीं है, हिन्दी का काम है। इसीलिए मैं अपनी पूरी सेवाएं ऐसे किसी व्यक्ति को अर्पित करने को तैयार रहा हूं जो इस काम को करे। इसीलिए मैंने इसे एक महायज्ञ मानते हुए आप सबको अपनी आदुति झोंकने के लिए निमन्त्रित किया।

अब मैं गलतियों और कमियों पर आऊँ। मेरी कुछ गलतिया तो इस कारण होती हैं की कृतिदेव में लिख कर यूनिकोड में बदलता हूँ तो नई ग़लतियाँ हो जाती है। कुछ जल्दबाजी के कारण और कुछ शाम की आर्द्रता के कारण। इन्हे आप पहचान भी लेते हैं इनकी उपेक्षा भी कर देते हैं।

तथ्यों के साथ भी ऐसा हो सकता है । आज के उदाहरण में सुकमा को चंडीगढ़ के उच्चारण के बहाव में सुखमा कर दिया। आज एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना न होगई होती तो इस चूक की और ध्यान भी न जाता।

पर अंतिम हैं विवेचन में कुछ कमियां जिनकी और मेरा ही ध्यान जा सकता है। एक बार मैंने कहा था आज तक मैं एक ही किताब की कमियां दूर करने की कोशश में लिखता और नए लिखे में नई कमियां तलाशते उन्हें दूर करने की कोशिश तो करता आया हूँ पर कभी ऐसा कुछ लिख पाऊँगा जिसमे मेरी नज़र में कोई कमी न रह जाय यह संभव न होगा।

गड़बड़ी मेरे साथ नहीं है, सत या परिघटना के चरित्र के कारण है। छोटी से छोटी सत्ता के यथार्थ के इतने स्तर होते हैं की एक पर्दे को उतारें तो उसके नीचे सात परदे नज़र आते है। मज़ा तब आता है जब रौशनी भी पर्दा बन जाती है।

इसे समझने के लिए फिर सुक पर आएँ । सुक का अर्थ पानी है तो यह पानी वाला अर्थ देववाणी या उसकी परिष्कृत भाषा अर्थात संस्कृत में क्यों नहीं। इससे निकला या उपार्जित अर्थ सुख ही क्यों है? इसका अर्थ पानी कैसे हुआ इसे समझने में हमारी मदद अंग्रेजी का सक (suck ) = चूसना और (succulent ) रसीला ही नहीं (success / succession ) आगे बढ़ना, उत्तर क्रम और प्रकारांतर से सफलता जो इसका मुख्य अर्थ बन गया, तथा सकर (succour ) परित्राण कर सकता है। कहें जल को यह सज्ञा किसी रसीली चीज़ या रसीले फल को चूसते समय पैदा ध्वनि के आधार पर मिली और फिर अर्थविस्तार तो जल के गुणों और क्रियाओं और उनके परिणामों के अनुसार होना ही था। समस्या सुलझने लगी तो एक नई उलझन सामने आ गई।

यदि इसका अर्थ यूरोप में जाकर खुलता है तो यह भरोपीय शब्द हुआ। यह इसका प्रमाण भी है की भाषा यूरोप से भारत में आई।

इसी तरह के ढकोसलों पर तुलनात्मक भाषा विज्ञानं पला और बढ़ा। प्रश्न यह है की यूरोप की किसी भाषा में पानी के लिए सक/ सुक जैसा कोई शब्द क्यों नहीं मिलता?

प्रश्न यह है की यूरोप की किसी भाषा में सक से निकटता वाला कोई शब्द क्यों नहीं मिलता? मिलता तो है, एकुआ का suck से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता? हो तो सकता है पर अक से सक नहीं बन सकता, सक से हक और अक, शेक, हैक, सिक कुछ भी बन सकता है ?

यह अपने मूल अर्थ में मूल ध्वनि के साथ संस्कृत में गायब और एक पिछड़ी, ‘आर्येतर’ भाषा में कैसे बची रह सकती है?

जब हम सोचते थे की जो प्रयोग यूरोप से लेकर भारत तक पाए जाते हैं वे भारोपीय हुए और यूरोप की भाषाओँ में जो नहीं हैं पर संस्कृत में हैं वे विशेषताएं भारतीय आर्य भाषा ने भारत में आकर ग्रहण कीं, तब हमारा ध्यान इस बात की ओर नहीं जाता था की यूरोप तक संस्कृत का नहीं हडप्पा की कारोबारी भाषा का प्रसार हुआ था, जिसमेँ तमिल का onru संस्कृत का उन बनकर यूरोप तक उनुस और वन बन कर पहुँच सकता था और ओनली, onorous , वन्स, यूनिट, यूनियन, यूनाइटेड जैसे प्रयोगो को प्रेरित कर सकता था, पर अब घर की ओर लौटें तो शुक्ल – श्वेत का कोई सम्बन्ध सुक से हो सकता है या नहीं?

एक और चूक की ओर ध्यान दिलाएं। हमने कहा सुख में अंत में अकार का आकार हो जाने के कारण पानी का अर्थ उलट कर सूखा हो गया। इसे समझने में भी अंग्रेजी के सक से मदद मिलेगी। चूसना के आशय से सोखना या पानी का लोप बना लगता है। इसका मूल चोषण बना और फिर शोषण। अब यह पुनर्विचार की मांग करता है कि क्या सुक देववाणीं के प्रभाव में चुक से सुक बना। चूसना, चूकना, चूक, चुकाना (अर्थात अपना घर खली कर के दूसरे को पंहुचाना आदि प्रयोग उस देवेतर वाणी के प्रभाव के कारण हैं। अपनी निर्माण प्रक्रिया में देववाणी ने अपने उपक्रम में शामिल होने वालों के प्रयोगों को आत्मसात किया और वे उसकी सम्पदा बन गए। उसके देशांतर प्रसार में ये सभी तत्व पहुंचे और उनमें से कुछ को वहां की बोलियां अपने अनुसार ग्रहण कर सकीं।

अब जरा इस सक/सुख की ध्वनि से निकले शब्द भंडार पर विचार करें :
सुख/चुक – १. पानी, २. सुख, ३. चोका= धारोष्ण दुग्ध पान , २>४- सौख्य > ५. फा. शौक / शौक़ीन, ६- सोखना > ७- सूखना>८. सं. शुष्क, ६>९. शोषण / शोषित /शोषक, १०. चोषण, ११. चूसना, १२. चस्का, १३. सु- (उपसर्ग) १४. सु-तर (सुंदर),> १५. सुधर /सुधार, १६. सं.(धातु) चूष पाने, १७. शुष शोषणे.
हमने अपनी सीमा के कारण यूरोपीय प्रतिरूपों को छोड़ दिया. ऊपर के आंकड़ों पर ध्यान दें तो धातुओं से ये शब्द नहीं निकल रहे हैं. धातुएं इस शब्दभंडार में से कुछ को समझने के लिए गढ़े घटक हैं. यात्रा धातु से शब्द की ओर न होकर क्रिया विशेष से उत्पन्न ध्वनि से शब्द श्रृंखला से धातु की दिशा में हैं और अब यह धातु उनमें से कुछ का अर्थ समझने में तो सहायता करेगी पर इस पहेली का जवाब न दे पायेगी कि इस ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे.

कौन कह सकता है की यह समाधान सही है पर यह खेल तो सही है ही। लत लग गई तो सब कुछ छूट जायेगा, यह न छूटेगी।