देववाणी (१३)
देवसमाज का गठन
मैं जब देव और ब्राह्मण को दो भिन्न भाषाई पृष्ठभूमियों के स्थाई खेती में लगने की बात कर रहा था तो एक तीसरे समुदाय का जिक्र करने से रह गया था क्योंकि इनके साथ आग लगा कर झाड़ झंखाड़ जलाने का सन्दर्भ नहीं आता । ये अपने को सुर कहते थे । सुर, सर, सिर, सिल, सबका अर्थ पानी होता है पर यही अर्थ चुर, चर, चुल, चिल का भी है । पर इतने सारे शब्दों से सन्तोष नहीं। ये सू और चू का भी अर्थ पानी करते थे । सन्तोष की बात इसलिए नहीं कि ये शब्द नहीं हैं पानी के टपकने से लेकर बहने तक की असंख्य ध्वनियों में से कुछ । सू की ध्वनि पानी की धार निकलने से भी पैदा होती है । इसी तर्क से यह पैदा होने, पैदा करने, किसी पदार्थ से रस के बाहर निकलने आदि के आशय वहन कर सका। सुत=पेर कर निकाला हुआ रस, आसवित द्रव या सुरा, सुत पैदा किया हुआ बच्चा। इसी सु =जल को आप सुखना झील में पाते हैं जो चंडीगढ़, छत्तीसगढ़, और असम तक फैला मिलेगा।
यही जल तृषा मिटने, तृप्ति या सुख का सूचक बना और द्रविड़ नियम से आ जुड़ने पर जल के अभाव का द्योतक सूखा भी बन गया। हमने यह छोटा सा हवाई सर्वे यह याद दिलाने के लिए किया कि सुर असुर के चक्कर को समझा जा सके । अपने को सुर या उत्पादक कहने वाले उसी असुरर समाज के विद्रोही थे जो आहार संग्रह को अपने लिए गौरव की बात मानता था और कृषि कर्म से घृणा करता था। इस चवर्ग प्रेमी समाज से देवों ब्राह्मणों के समुदाय का संपर्क कुछ बाद में परन्तु बहुत विलंब से नहीं हुआ। इसके आने से देव वाणी में ही परिवर्तन नहीं हुआ देववाणी सीखने के क्रम में यह च की ध्वनि का ही स के रूप में भी उच्चारण करे लगा। कभी स कभी च।
हमने देव भूमि का जो आदि क्षेत्र सुझाया है उससे नीचे मैदान में आने पर नदी= ताल से सट् चिलवां, चिल्लूपार, चुरिया, चुरहट, सुरहा ताल जैसे नाम देउिरया, देवकली, लहुरा देवा जैसे स्थान नाम ही नहीं मिलते, कोलडिहवा, चौपानी मंडो, महगरा जैसे पुराने स्थान है। महगरा में मगहर का वर्णविपर्यय है, परन्तु ये नाम तो कोलों, मुंडारियों और मगों की बस्तियाें की ओर ही संकेत करते हैं जो आठ हजार साल पहले स्थाई बस्ती बसा और किसानी अपना चुके थे । हमने जिन स्थानों का नाम गिनाया है उनसे न बँधकर यह देखें की इन तीन जमातों से बनी थी वह सामाजिकता जिसे आर्य या कृषिकर्मी समाज कहा जाता रहा। दूसरे लोगों से आगे बढ़े होने और भू स्वामित्व के कारण ये अपने को दूसरों से श्रेष्ठ और और आदरणीय समझते थे, अतः यह शब्द सभ्यता और श्रेष्ठता का भी वाचक बना। नागर सभ्यता और व्यापारिक गतिविधियों के चलते श्रेष्टिन या सेठ की तरह यह व्यापारियों के लिए और सुदूर देशों में उनकी बस्तियों के नाम के साथ भी जुड़ा।
ये सभी उसी असुर या उत्पादन विमुख समाज से निकले थे. इनकी भाषाओँ के घातप्रतिघात से विकसित हुई थी वह ध्वनिमाला जिसे देववाणी की ध्वनिमाला कह सकते हैं।
ये तीन समुदाय हैं जिनकी पहचान क्विपर (kuiper) ने भी की थी जिसका हवाला हम कुछ समय पहले दे आये है, परन्तु एक चौथा प्रभाव अभी आना था. यह आया कुरु भूमि में इन किसानी करने वालों के पहुँचने के बाद जिससे ऋग्वेदिक भाषा अस्तित्व में आई।
अब हम कुछ रुककर देववाणी की विशेषताओं पर बात कर सकते हैं जो देवों की बोली-बानी अपनाने वालों के संपर्क में विकसित हुई थी.
इसमें घोष और महाप्राण ध्वनियों के प्रति विशेष आग्रह था. घोष महाप्राण ध्वनियाँ मुंडा अपनी सीमा में मुंडा समुदाय में गिनी जानेवाली बोलियों में भी थीं इसे किसानी से विमुख जत्थों द्वारा दिए गए नामों से समझा जा सकता है – झाँसी, झूंसी, झज्झर, झारखंड, झड़ौदा कलां, झुमरी, झुंझनूं आदि. हिंदी में ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनमें झ ध्वनि पाई जाती है- झरोखा, झमेला, झाड़ी, झाड़ू आदि। हिंदी और भोजपुरी में अंतर सवर्णता से बचने और सवर्णता को अधिक पसंद करने के भेद के कारण है। भोज. झांझ, झोंझ, झिझिया, झांझर, झंझवा आदि।
हिंदी में जहाँ ज मिलेगा उसे भी भोज. में कई बार झ में बदल दिया जाता है. हिंदी जटा – भो. झोंटा, जंजाल- झंझट, चट – झट आदि. हिंदी के ऐसे सभी शब्द जिनमें झ की ध्वनि है विरल अपवादों को छोड़कर पूर्वी प्रभाव माने जा सकते हैं, और इसका एक कारण यह है कि हिंदी का आरम्भिक चरण भोजपुरी और अवधी प्रभाव में रहा है।
दूसरी घोष महाप्राण ध्वनियों में भी संस्कृत/ हिंदी और भो. का यह अंतर् लक्ष्य किया जा सकता है: गहन – घन, गहगहा – घघाइल आदि.
सबसे प्रधान अंतर् यह है कि देववाणी में सवर्ण सयोग होता था. परन्तु अन्तस्थ वर्ण ह के साथ जुड़ते हैं। ऐसा प्रयोग वैदिक में मिल जाएगा पर संस्कृत में नहीं जैसे वै. मील्ह! भोज. मेल्हल, कर्हिआंव (कमर), कर्हावल (भैंस को कर्र्ही की उूंची आवाज देकर अपने पास बुलाना)। कल्हारल, मीर् हल आदि. हिंदी में मल्हार मे और कश्मीरी कल्हण, विल्हण में इसे देखा जा सकता है.पर रह का संयोग नहीं मिलेगा।
अब आप समझ सकते हैं कि मैं क्यों इस काम को किसी ऐसे योग्य व्यक्ति को सौंपना चाहता था जिसके पास लगन हो, समय हो, शक्ति हो, जिनमें से पहले को छोड़ कर सभी का अभाव अपने साथ देखता हूं। हमारी बालियों की वर्णमाला से अधिक महत्वपूर्ण है ध्वनिमाला जिसके लिए नागरी जैसी समृद्ध लिपि में भी बहुत सी ध्वनियों के लिए चिन्ह नहीं है, इनकी पूरी पड़ताल नहीं हुई है और ध्वनिमाला से भी जरुरी है स्वर-व्यंजन विन्यास की तालिकाएं और उनकी परिवार या भाषा समुदाय के भीतर भी तुलनात्मक अध्ययन और अन्य परिवारों या समुदायों के साथ भी।
तुलनात्मक अध्ययन. यदि मेरे मित्रों में से कुछ ने भी रूचि दिखाई तो वे कोई न कोई बोली लेकर छोटे पैमाने से यह काम आरम्भ कर सकते हैं। नई सूझ आंकड़ों के मिलान से पैदा होती है, किसी पोथी से नहीं। जिसे हम आर्य भाषा कहते हैं उसमें सभी भारतीय परिवारों की भाषाओँ की भूमिका है। जिसे हम अपना समाज कहते हैं उसमें किसी न किस अनुपात में सभी का संकरण हुआ है। यही हाल हमारी संस्कृति का है।
हमें उपलब्ध सामग्री के आधार पर हम कह सकते हैं कि धुरंधर कहे जाने वाले विद्वानों की पोथियों में इनके बारे में दी गई जानकारी या तो सतही है या गलत। आप इसे समझ भी लें तो पश्चिम के विद्वानों की धौंस आप के दिमाग से उतर जाए और हम बहुत कुछ कर सकते हैं यह विश्वास तो पैदा हो ही सकता है।