देववाणी (ग्यारह)
जो आज गलत सिद्ध हों गया कल तक सही था वह गलत हों कर भी पूरी तरह व्यर्थ नहीं होता। न्यूटन का गुरुत्व सिद्धांत आइंस्टीन के साथ कालातीत हो गया पर ज्ञानातीत हुआ क्या? वस्तुजगत हो या विचार जगत मलबे में भी बहुत कुछ उपयोगी होता है जो रिसाइकल किया जाता है।
सच्ची निष्ठा और सत्यपरकता से किये गए काम जब गलत सिद्ध कर दिए जाते हैं तो भी सर्वथा व्यर्थ नहीं होते। उनकी सत्य की अपनी समझ और सीमाएं होती हैं। उस सीमा के भीतर वे अखोट होते हैं। उससे बाहर लुढ़क जाते हैं।
यह सीमा पाणिनि सहित हमारे सभी मूर्धन्य वैयाकरणों के साथ थी जो यह सोच ही नहीं सकते थे कि देववाणी और इसलिए संस्कृत के निर्माण में असुरों और राक्षसों की बोलियों की कोई भूमिका हो सकती थी। परन्तु इसके कारण यदि हम उन्हें त्याग दें तो हम विपन्न हो जायेंगे। हमारे पास कुछ बचेगा ही नहीं।
संस्कृत वैयाकरणों का पूर्वाग्रह एक ग्रंथि से परिचालित था तो पाश्चात्य वैयाकरणों का दूसरे से, पर दोनों में समानताएं भी हैं और दोनों हमारी नई समझ के लिए सबसे उपयोगी भी बन जाते हैं। उनके समर्थन के बिना हमारी आवाज तो कोई सुनेगा ही नहीं। मैं पाश्चात्य भाषा चिंतकों की आलोचना भी करता हूँ और उनको ही प्रमाण मान कर अपने प्रस्ताव को अकाट्य भी बनाता हूँ, उन्हीं के तर्क की परिणति सामने लाकर, उनकी मान्यताओं का खंडन भी करता हूं।
पाश्चात्य अध्येता पूरे विश्वास से यह मान कर अपनी व्याख्यायें कर रहे थे कि आदि भारोपीय उनके ही भूभाग में कहीं बोली जाती थी और उसकी तलाश में पूरी ईमानदारी से काम कर रहे थे, ठीक संस्ककृत वैयाकरणों की तरह। संस्कृत का सम्मान वे भी करते थे। यूरोप का कोई ऐसा भाषाशास्त्री न होगा जिसने संस्कृत का गहन अध्ययन न किया हो। अपनी तुलनाओं में वे बराबर संस्कृत प्रतिरूपों का हवाला देते हैं। वे सिर्फ वहीं पीछे हट जाते हैं जहां भारतीय प्रतिरूप अधिक गहराई में उतरने की मांग करते हैं या जहां यह लगता है कि इससे आदि भाषा का निर्माण क्षेत्र सरक कर भारत की ओर चला जाएगा। यह तो उनकी पतिज्ञा के विरुद्ध था इसलिए संभव हो ही नहीं सकता था।
यदि पिछले चालीस साल के अध्ययनों से पूरी तस्वीर ही बदल न गई होती तो यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि उनकी भाषा विषयक मान्यताओं पर कोई पुनर्विचार की मांग तक कर सकता है।
यह उन्हीं की खोज थी कि आदि भाषा में घोष महाप्राण ध्वनियां थी और इतनी प्रबल थीं कि इनका प्रयोग एक साथ हो सकता था। संस्कृत में गकोष महाप्राण ध्वनियाँ पाई जाती हैं पर संस्कृत में उनके साथ आने पर पहले वर्ण का अल्पप्राणीकरण हों जाता हैं, केवल सघोषता बची रहती हैं । यह इस बात का प्रमाण हैं कि संस्कृत आदि भारोपीय नहीं, उसकी संतान हैं।
इसके साथ उन्होंने इस प्रबल विश्वास के कारण कि आदि भारोपीय यूरोप में बोली जाती थी उन्होंने स्वर अ को ए से बदल दिया था क्योंकि यूरोपीय बोलियों में शुद्ध अ का उच्चारण नहीं हो पाता इसलिए स्वरों के मामले में यूरोप अधिक भरोसे का था । भूतकालिक क्रिया के लिए भूव+भूव से बने भेभूव को संस्कृत ने बदल कर बभूव कर दिया।
यह संभव नहीं कि उनमें से किसी ने ग्रियर्सन की पूर्वी हिन्दी विषयक टिप्पणी न पढ़ी हो और उसके मन में एक बार को भी यह विचार न आया हो कि ऐसी प्राचीन भाषा तो भारत में पाई जाती है। यहीं आकर वे साक्ष्यों की उपेक्षा करने को बाध्य हो जाते थे । कहें घोष महाप्राण के बाद घोष महाप्राण तो वैज्ञानिक और अखोट था क्योंकि यह प्रामाणिक था। इसके बाद पूर्ववर्ती का ब रह जाना भी प्रामाणिक था। अकार का एकार बनाना यूरोप की सीमा थी और यह अप्रमाणिक या आग्रह से प्रेरित था और इस सीमा तक अवैज्ञानिक था।
हिन्दी और उसकी बोलियां संस्कृत के विघटन से पैदा हुई हैं यह अर्ध प्रामाणिक था क्योंकि भारतीय वैयाकरण भी ऐसा मानते थे और यह उनके विश्वास के अनुरूप था। ऐसा तभी हो सकता था जब यह भाषा कहीं अन्यत्र अपने आदिम चरण से विकसित हो क्र परिपक्वता के बाद भारत में पहुंची हो। यह स्वतः इस बात का प्रमाण था की आदि भाषा यूरोप में कहीं बोली जाती थी। पर प्रामाणिक होते हुए भी यह वैज्ञानिक नहीं थी क्योंकि इसका समर्थन आप्त वाक्य या अधिकारी विद्वानों के विश्वास पर आधारित था और उस विश्वास के अनुसार संस्कृत का अस्तित्व सृष्टि से पहले से था जो उन्हीं विद्वानों की आप्तता का खंडन करता था। यदि यह निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित होता तो यह वैज्ञानिक भी होता और प्रामाणिक भी होता।
पर उनके लिए यह तथ्यों पर भी आधारित था। यदि आप पिशेल के प्राकृत भाषाओँ का व्याकरण देखें तो साफ पता चलेगा कि संस्कृत के तद्भव रूप ही प्राकृतों में पाए जाते हैं और उनसे मिलते जुलते रूप बोलियों में।
हमारा काम यहीं आरम्भ होता हैं जिसकी पहली जरूरत ज्ञान नहीं सतर्कता हैं। इसके अभाव में अर्जित ज्ञान ज्ञानभास हैं जो अज्ञान से भी खतरनाक होता हैं। इस पर हम कुछ रुक कर बात करेंगे। यहां इतना ही कि भाषाविज्ञान में अग्रणी पश्चिमी अध्येताओं ने भारतीय सन्दर्भ में आंकड़ों को जुटाया, उनकी गहराई से पड़ताल नहीं की क्योंकि इससे उनका काम आसान हो जाता था।
परन्तु यह बनी हुई धारणा उन कारणों में से एक हैं जिससे भोजपुरी की इस विशेषता की उपेक्षा हो सकती थी। यदि किसी बोली में यदि घोष महाप्राण के साथ घोष महाप्राण पाया जाता है तो या तो यह अपवाद हुआ या इसकी कोई अन्य व्याख्या होनी चाहिए। उनकी बुनियादी स्थापना कि मूल भूमि यूरोप या इससे सटे पड़ोस में होनी ही चाहिए गलत नहीं हो सकती। जो भी तथ्य इससे अनमेल या इसके विरोध में हों विशेषतः ऐसा प्रमाण जो भारत के पक्ष में ho तो वह प्रमाण भी अप्रामाणिक माना जाएगा। उनकी दादागिरी और सर्वसहमति के आगे कोई भारतीय भाषाशास्त्री टिक कर अपनी साख गंवाने को तैयार न था। सुनीति बाबू की विवशता यही थी। विदवान की ख्याति भी उसकी आंख पर पट्टी का काम करती है। ख्याति और अपनी समझ के बीच वह ख्याति को चुनता है। भारत के प्रख्यात भाषाशास्त्रियों और भाषाविज्ञानियों ने, सिवाय उनके जो इस यश और पदीय प्रलोभन से मुक्त थे, भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कोई नया योगदान नहीं किया। उन्होंने पाश्चात्य स्थपनाओं को अपनी और से प्रामाणिक बनाने के लिए अपने अध्ययनों में उसी पर अमल किया। यदि कोई नया योगदान हैं तो वह उनका जो पद, प्रलोभन और ख्याति से दूर थे जैसे काशीनाथ विश्वनाथ रजवाड़े, किशोरीदास वाजपेयी, रामविलास शर्मा जिन्हे खोना कुछ न था इसलिए जो तथ्य था उसकी अपनी समझ के अनुसार व्याख्या करने का प्रयास किया। पूरी तरह सही ये भी नहीं हैं।
अब इस स्थिति में जब सही कोई नहीं हैं, फिर भी अपनी समझ और बोधवृत्त में सभी ने बहुत निष्ठा से काम किया हैं, हम किसी पर न तो निर्भर कर सकते हैं न ही किसी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमारे लिए ये सभी वहीं पर और वहीं तक स्वीकार्य हैं जहा तक ये अपनी ही प्रतिज्ञाओं पर सही उतरते और तथ्यों के अनुरूप मिलते हैं।