देववाणी (दस)
मेरे इस विवेचन में अनेक नई बातें पढ़ने को मिलेंगी जो प्रचलित तुलनात्मक भाषा विज्ञान के पंडितों को इतनी आघात पहुंचानेवाली लगेंगी की वे इसे बकवास कह कर आगे कुछ सुनने तक को तैयार न हों, या शिष्टाचार के नाते चुप चाप सुनते रहें तो भी इतने अन्यमनस्क रहें की उनका ध्यान कहीं और चला जाये और कुछ सुन तक न पाएं. इसके मेरे पास कई अनुभव हैं, पर फिर जब सवालों के घेरे में आते हैं तो उनकी हालत देखते बनती हैं।
मेरी बातें विषय से अनभिज्ञ व्यक्ति को अधिक आसानी से समझ में आ जाती हैं क्योंकि उसके पास मान्यताओं का वह दबाव नहीं होता, परन्तु उसे स्वयं अपनी समझ पर भरोसा न होने के कारण यह संदेह बना रहता कि यदि यह सही है, तो फिर इस विषय के अधिकारी लोग इसे क्यों नहीं स्वीकार करते।
ले दे कर बात उसी पाले में पहुँचती है जहाँ पुरानी जानकारी का भूसा इस हद तक भरा है कि मेरी आवाज उसके दिमाग कि ध्वनिग्राही कोने तक पहुँच ही नहीं पाती।
मेरी व्याख्या भले न पहुंचे प्रश्न पहुंचता है और जब उसका जवाब उससे देते नहीं बनता हो तो उसका जो जवाब मैं देता हूँ उसको वह ध्यान से सुनता है। प्रलोभन होता है १९६९ से एशियाटिक सोसाइटी के सभागार में एक व्याख्यान, कोलकता विवि. में भाषाविज्ञान में रीडर दयानन्द श्रीवास्तव, सुनीति बाबू, भारतीय पुरातत्व के एक के बाद एक पांच महानिदेशकों, गोरखपुर के इतिहास विभाग दे विभागाध्यक्षों और भारतीय नृतत्व के निदेशक और people ऑफ़ इंडिया के विश्वकोशीय खण्डों के संपादक कुवंर के एस सिंह से अपने अनुभवों को आप से साझा करूं, पर समय का अपव्यय होगा। इसे कहीं अन्यत्र कुछ प्रसंगो में दर्ज भी कर चुका हूँ, इसलिए यहां इतना ही की हर बार वही नजारा सामने आया।
हम उस प्रश्न से आरम्भ करें जिसका जवाब वे नहीं दे सकते, देंगे तो पकड़ में आ जाएंगे और जिससे उन लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा जो मनस्वी होते हुए भी भाषाविज्ञान से सीधा परिचय नहीं रखते:
तुलनात्मक भाषाविज्ञान का लक्ष्य क्या था?
इसका लक्ष्य था यह पता लगाना कि भारत से लेकर यूरोप तक की भाषाओं में समानताएं कैसे पैदा हुईं? संस्कृत इन सभी में सभी दृष्टियों से समृद्ध, सबसे पुरानी, सबसे नियमित, और सभी की ऐसी उलझनों को सुलझाने में समर्थ थी, जिन्हें कोई दूसरी भाषा, यहां तक कि उनके सटे पड़ोस की भाषा सुलझा नहीं सकती थी।
इसका इतिहास उनके आकलन के अनुसार भी बहुत पीछे जाता था जब कि उनका लिखित इतिहास केवल ग्रीक और लातिन के मामले में इसवी सन से कुछ सौ पीछे जाता था और शेष का उससे कई सौ साल बाद आरंभ होता था।
यह विश्वास सर्वमान्य था कि संस्कृत का ही प्रसार पूरे भारोपीय क्षेत्र में हुआ है, परन्तु यह संभव कैसे हुआ यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था। इस विश्वास ने यूरोप में उस खास चरण पर जब वह विश्व में अन्य सभी से अपने को, दूसरी संस्कृतियों से अपनी संस्कृति को, दूसरे धर्मों से अपने धर्म को, दूसरों की रंगत से अपनी चमड़ी के रंग को श्रेष्ठ को मानता ही था और संस्कृत का देश उसके अधीन भी था, कितना मर्माहत करने वाला था कि इसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते ।
अतः तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान भाषाओं को समझने के लिए नहीं, इस ग्लानि से बचने का कोई ऐसा तर्क तलाशने के अभिप्राय से आरंभ हुआ जिससे वे स्वयं अपने आप को यह विश्वास दिला सकें कि ऐसा नहीं हुआ, ऐसा हो ही नहीं सकता था।
इसके बाद का सारा अध्यवसाय अकादमिक शोध कम और वकालत अधिक था। बहाने खीच तान कर तलाशे गए और संस्कृतभाषी आर्यों के नैन नक्श से ले कर सांस्कृतिक उजड्डपन के तरह तरह के नक्शे बनाए, आजमाए और फिर टिकाऊ न पाकर खुद ही खारिज करके नई कहानियां गढ़ी जाती रहीं । इनकी ही अन्तिम कड़ी था भारत पर आर्यों का आक्रमण, और दूसरी कहानियां।
परन्तु अब जब उन कहानियों का इस हद तक खंडन हो चुका है कि कोई बददिमाग ही उनको, अपनी अकादमिक साख खतरे में डालते हुए, दुहरा सकता है और यह भी सिद्ध हो गया कि सुदूर अतीत में भारत सभ्यता में उसी ऊंचाई पर पहुंचा हुआ था जिसकी पुष्टि आर्य शब्द से, ऋग्वेद में वर्णित सभ्यता से होती है और दोनों की अभिन्नता को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर स्थापित किया जा सका है, दूसरे शब्दों में जब यह खुली किताब की तरह पढ़ा जा सकता है कि हड़प्पा के विदेशों में स्थापित अड्डों के माध्यम से इस भाषा का प्रसार यूरोप के सीमांत तक हुआ, तब उन भाषावैज्ञानिक अध्ययनों का क्या महत्त्व रह जाता है जिन पर इतना श्रम यह सिद्ध करने के लिए किया गया था की आदि भारोपीय यूरोप में कहीं बोली जाती थी, कि उस भाषा की दो शाखायें हुई जिनका नामकरण सौ के लिए आदि भारोपीय में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण के आधार पर केंतुम और सतेम में किया गया, केंतुम को सतेम शाखा से पुरानी सिद्ध किया गया और इसी आधार पर आदि भाषा की धातुओं या आदिम घटकों का निर्णय और समानता रखने वाले या सगोत्र शब्दों के आद्य रूपों के कोश तैयार किए जाते रहे।
अब हम लौट कर उस समस्या पर आएं जिससे हमने आरम्भ किया था और कुछ नए सवालों का सामना करें:
1. जिसे हम इतिहास और तुलनात्मक भाषा विज्ञान का अधिकारी व्यक्ति मानते हैं उसने अपना समस्त ज्ञान उन्ही प्रकांड पंडितों की पुस्तकों और मान्यताओं को कंठस्थ करके या उसी दायरे में अपने भी कुछ तीर तुक्के भिड़ाते हुए अपना शोध कार्य सम्पन्न किया है। वह स्वयं अवसन्न सा है: जिस मान्यता का आधार ही ध्वस्त हो गया वह टिकी कैसे रह सकती है ?
किसी साधारण मनस्वी व्यक्ति से उसकी क्या भिन्नता है? यही न की उसके पास वह सारी जानकारी है जो गलत सिद्ध होने के बाद भी उस जगह को घेरे हुए है जिससे वंचित रहने के कारण अन्य सुधी जनों का दिमाग खुला हुआ है? इसीलिए मैंने कहा था की विषय पर अधिकार के अभाव में भी वे इस नई सोच को अधिक आसानी से ग्रहण कर सकते है।
२- यदि हम अधिकारी व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण समझाने चलें तो वह सुनने को तैयार भले न हो परन्तु यदि उससे प्रश्न करें कि यदि पुरानी कहानी ही उलट गई तो अब इस समस्या का उसके पास क्या समाधान है और वह इधर उधर की बातें करे तो कुछ और शंकाएं सामने रखें और जब वह निरुत्तर हो जाय तो नम्रता से यह बताएं की हुआ यह लगता है और इसके ये प्रमाण थे जिनकी अनदेखी की गई तो वह करबद्ध न भी खड़ा हो, निरुत्तर होकर चुप रह जाये तो भी आपको उसकी चुप्पी अपनी पराजय के स्वीकार जैसी लगेगी। अब तक हर बार ऐसा ही हुआ है।
३- परन्तु एक प्रश्न अपने आप से भी पूछना रह जाता है. क्या उन प्रकांड विद्वानों को हम धूर्त करार दे सकते हैं और उनके जीवन भर के इतने श्रम से किए गए काम को क्या हंस कर उड़ाया जा सकता है जिनमे बौना लगने वाला विद्वान भी मुझ से इतना क़द्दावर लगेगा की उससे नजर मिलाने के लिए गर्दन टेढ़ी करनी पड़ जाय? इस अंतिम सवाल से अपनी बात हम कल आरम्भ करेंगे.