Post – 2017-04-21

देववाणी (दस)
मेरे इस विवेचन में अनेक इतनी नई बातें पढ़ने को मिलेंगी जो प्रचलित तुलनात्मक भाषा विज्ञान के पंडितों को इतनी आघात पहुंचानेवाली लगेंगी की वे इसे बकवास कह कर आगे कुछ सुनने तक को तैयार न हों, या शिष्टाचार के नाते चुप चाप सुनते रहें तो भी इतने अन्यमनस्क रहें की उनका ध्यान कहीं और चला जाये और कुछ सुन तक न पाएं. इसके मेरे पास कई अनुभव हैं, पर फिर जब सवालों के घेरे में आते हैं तो उनकी हालत देखते बनती हैं. मेरी बातें विषय से अनभिज्ञ व्यक्ति को अधिक आसानी से समझ में आ जाती हैं क्योंकि उसके पास मान्यताओं का वह दबाव नहीं होता, परन्तु उसे स्वयं अपनी समझ पर भरोसा न होने के कारण यह संदेह बना रहता कि यदि यह सही है तो फिर इस विषय के अधिकारी लोग इसे क्यों नहीं स्वीकार करते. ले दे कर बात उसी पाले में पहुँचती है जहाँ पुराणी जानकारी का भूसा इस हद तक भरा है कि मेरी आवाज उसके दिमाग कि ध्वनिग्राही कोने तक पहुँच ही नहीं पाती. मेरी व्याख्या भले न पहुंचे प्रश्न पहुंचता है और जब उसका जवाब उससे देते नहीं बनता हो तो उसका जो जवाब मैं देता हूँ उसको वह ध्यान से सुनता है. प्रलोभन होता है १९६९ से एशियाटिक सोसाइटी के सभागार में एक व्याख्यान, कोलकता विवि. में भाषाविज्ञान में रीडर दयानन्द श्रीवास्तव, सुनीति बाबू, भारतीय पुरातत्व के एक के बाद एक पांच महानिदेशकों, गोरखपुर के इतिहास विभाग दे विभागाध्यक्षों और भारतीय नृतत्व के निदेशक और people ऑफ़ इंडिया के विश्वकोशीय खण्डों के संपादक कुवंर के एस सिंह से अपने अनुभवों को आप से साझा करूं, पर समय का अपव्यय होगा. इसे कहीं अन्यत्र कुछ प्रसंगो में दर्ज भी कर चुका हूँ इसलिए यहां इतना ही की हर बार वही नजारा सामने आया.
हम उस प्रश्न से आरम्भ करें जिसका जवाब वे नहीं दे सकते, देंगे तो पकड़ में आ जाएंगे और जिससे उन लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा जो मनस्वी होते हुए भी भाषाविज्ञान से सीधा परिचय नहीं रखते.