‘हिरना समुझि समुझि बन चरना!’
मेरी भाषा संबंधी टिप्पणियों को भी समझते हुए पढ़ने की जरूरत है। मुझसे पहले इस तरह किसी ने सोचा नहीं। न तो अकेला चना भाड़ फोड़ता है न किसी क्षेत्र में नई लीक बनाने वाला गलतियों से बच पाता है और अकेले कोई पुरानी मान्यताओं को पूरी तरह ध्वस्त कर पाता है। अनेक लोग काफी समय लगा कर सामग्री जुटाते और उस सामग्री को व्यवस्थित करने के लिए सोच विचार करते हुए,अपना समाधान देते हुए लेखन करते हैं तो पहले की कमियां दूर होती हैं और हम सचाई के अधिकाधिक निकट पहुँचते जाते हैं। अच्छा हो मेरी पोस्ट को पढ़ने वाले, इसे पढ़ कर आगे न बढ़ जायँ अपितु प्रत्येक प्रस्ताव पर गौर करें। आप की जो भी मातृभाषा (बोली) हो उसके ऐसे शब्दों, लोकोक्तियों, मुहावरों, को अपनी किसी नोटबुक में टांकना और उन पर सोच विचार करने की आदत डालें। ऐसे चार पांच पाठक मेरे लिए पांच हजार के बराबर हैं जो ध्यान से पढ़ें और मेरी चूक पर ऊँगली रखें।
हम जो सोचते हैं वह दो चीजों से निर्देशित होता है। एक हमारे तथ्य और दूसरा उस विषय में बने हुए विचार। यदि तथ्यों के चयन और संयोजन में कोई आग्रह भी काम कर रहा हो तो आरम्भ ही गलत हो गया। वस्तुपरक चिंतन और विश्लेषण में भी हम दूसरे बिंदु से बच नहीं पाते और इसलिए कुछ तथ्यों की और हमारा ध्यान नहीं जा पाता और हम गलत नतीजा निकाल लेते हैं। मैं इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहता हूँ।
हमने देववाणी (छह) में अन्य बातों के अतिरिक्त देववाणी के स्वरप्रेम के प्रसंग में निम्न टिप्पणी की थी:
भाषा के सन्दर्भ में भोजपुरी या उससे भी पहले की देवभाषा में स्वर और संगीतात्मकता को भी इस विशद परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा। इसमें बात स्वर प्रधानता पर ही समाप्त नहीं होती, अपितु स्वरों में भी अ और आ दूसरे स्वरों पर भारी पड़ते हैं जिसे भाई – भइया, माई – मइया, आजी – अजिया, बहिन – बहिनी, बहिनी, बहिनिया में देखा जा सकता हैं। पर इससे भी रोचक हैं देस- देसवा, परदेशी – परदेसिआ, करमवा जैसे प्रयोग। जहाँ पश्चिम की बोलियों में स्वरों को क्षिप्रता के तकाजे से खा जाने की बेताबी हैं वहाँ पूर्व में उतने से ही संतुष्ट न होकर अतिरिक्त स्वर जोड़ने पर ही अनुराग और आत्मीयता पैदा होती हैं।
इसका एक कारन क्या यह हो सकता हैं की आदिम कृषि के चरण पर जंगली जानवरों या लुंचन कारियों के संकट के समय लम्बी गुहार लगा कर सहायता के लिए दूसरों को बुलाने के क्रम में यह प्रवृत्ति पैदा हुई हो? कारण और पूर्व में बढ़ने पर अकार का ओकर भले हो जाय, ये प्रवृत्तियां नहीं पाई जातीं।
समस्या भाषा की थी और पहुँच गई दिशा और जलवायु पर। चेतना में गहरे कहीं बंगाल की उमस भरी गर्मी से बेचैन मैकाले जैसे गोरों की खीझ भरी उक्तियाँ थीं। वास्तविकता यह है की पूरे भारत में आहार संचय के चरण पर ही विभिन्न समुदायों के किसी न किसी अनुपात में सर्वत्र बिखरे होने के कारण कुछ साझेदारियां कायम हो चुकी थीं जिसे भारत को एकभाषी क्षेत्र (इंडिया ऐज ए लिंगविस्टिक एरिया) कहने वाले एमेनो भी समझ नहीं पाए थे।
इसका शब्दभंडार से अधिक प्रभाव व्याकरण पर पड़ा था। अखिल भारतीय वाक्यविन्यास की समानताएं – कर्ता कर्म क्रिया और उनके विशेषण उनसे पहले भाषा परिवारों की सीमाओं के पार, जब कि यह समानता भारोपीय परिवार की भाषाओं तक में नहीं है। इम इसके विस्तार में न जाएंगे। इन समानताओं के बीच आंचलिक विशिष्टताएं बची रही थीं, इसका संकेत हम पहले कर आए हैं।
यह कौरवी (कुरु अंचल की भाषा) की विशेषता थी कि वह इतनी व्यंजनप्रधान थी कि स्वर उसके समुदाय को सुनाई तक नहीं देता था। आज भी हरयाणवी और कुछ दूर तक पंजाबी में स्वरलोप या स्वरविपर्यय की प्रवृत्ति बनी रह गई है जब कि पांच हजार साल से यह संस्कृत का केन्द्र रही है। एक सरदार जी ने कृप्या पधारिए जैसा कुछ अपनी दूकान के आगे लगा रखा था। मैंने समझाया कि इसे कृपया लिखवा दीजिए। वह बार बार मुझे समझाते रहे कि उन्होंने कृप्या ही लिखा है और मैं उन्हें एक एक अक्षर का अलग उच्चारण करते हुए समझाता रहा कि कृ-प-या, पर समझा न सका। इसी से यह निष्कर्ष निकाला कि वे स्वरों को ठीक सुन तक नहीं पाते थे और यह क्षिप्रता उस अकेली भाषा के कारण थी। न कि जलवायु या पूरब पश्चिम के कारण।
तथ्य यह है कि जैसे हमारी कला में अलंकरणप्रियता कुछ अधिक है जो सादगी और भव्यता में बाधक बनती है, उसी तरह हमारी सभी भाषाओं में शब्द के अन्त में कुछ आलंकारिक ध्वनियां लगाने की प्रवृत्ति रही है और यह तथाकथित आर्य द्रविड और मुंडा सभी समूहों में देखने में आती है और संस्कृत पर भी इसका प्रभाव पड़ा हो सकता है। उक्त टिप्पणी लिखते समय भोजपुरी के भइया के साथ यदि भाउू, भावे, भवनानी आदि की ओर ध्यान गया होता तो परिणाम भिन्न होता।
हम हार्नले और ग्रियस्रन की नासमझी या भ्रान्ति का हवाला पहले दे आए हैं। संस्कृत और पश्चिमी हिन्दी के चरित्र को अपने परिवेशीय भाषाओं से भिन्न पाकर उन्होंने आर्यों के दो आक्रमणों की कल्पना कर डाली थी। उनका मानना था कि उत्तर भारत की बोलियों में पाई जाने वाली समानताएं पहली जमात के आयों के आक्रमण का नतीजा है और फिर उन पर आयों का दूसरा आक्रमण हुआ। जिनके कारण वे चारों ओर बिखर गए और केन्द्र में वह भाषा स्थापित हुई जो ऋग्वेद में मिलती है। उनके पास सुनीति बाबू के इस प्रश्न का कोई उत्तर न था कि यदि वे पश्चिम से आए तो पश्चिम की भाषाओं में वे समानताएं कैसे बनी रह गईं। वे आर्यों से भरे किसी तालाब में उल्कापात की तरह तो गिरे न होंगे कि बीच में वे रह गए और दूसरे चारों ओर बिखर गए।
इसकी ओर ध्यान उस किश्त को लिखने के साथ ही चला गया था परन्तु प्रवाह में भंग के डर से उसे उस समय नहीं उठाया। फिर इस बात की प्रतीक्षा में भी रहा कि आप लोगों में से कुछ का ध्यान तो इस बात की ओर जाएगा ही। किसी का ध्यान इसलिए नहीं गया कि हममे से अधिकांश लोग पैसिव रीडिंग करते हैं। यदि कोई बात बहुत अटपटी नहीं लगी तो तर्कप्रवाह में बह जाते हैं। जरूरत सविमर्श पाठ की, मीन मेख परक पाठ की है। जिन्हें हम बहुत प्रखर मेधा का मानते हैं वे भी सविमर्श पाठ नहीं कर पाते। ऐसा न होता तो कोसंबी जैसा व्यक्ति, भगवतशरण उपाध्याय जैसा व्यक्ति दो तीन चार पता नहीं कितने आर्य आक्रमणों की कहानियां उसी हार्नले और ग्रियर्सन से न निकालता।
यदि दूसरों का नहीं तो मेरे लिखे का पाठ जांच पड़ताल के साथ करने वाले दो चार लोग भी निकल आएं तो उनका उपकार मानूंगा।