देववाणी (नव)
काकल्य (लैरिंजियल) ध्वनियों के सन्दर्भ में का.वि. राजवाडे की एक व्याख्या की याद आना स्वाभाविक है। पाणिनीय सूत्र ‘ससजुषीरुः’ की व्याख्या करते हुए उनका यह दावा कि कभी प्राचीनतम अवस्था में स का उच्चारण कंठ में बहुत पीछे होता था जिसके कारण उच्चरित ध्वनि स ह और र के रूप में सुनी जा सकती थी। इसका उन्होंने बड़े तर्कपूर्ण ढंग से विवेचन किया है और सुझाया है कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य स्थिति में यह संभव न था कि वही विसर्ग ध्वनि कहीं स् में बदले, कहीं ह में बदले और कहीं र में बदल जाय । इस समय उनकी पुस्तक (संस्कृत भाषेचा उलगडा) नहीं है, जिसमें उन्होने उन रूपों और प्रयोगो को उदाहृत किया है। परन्तु यह याद दिलाना उचित होगा कि वही विसर्ग ओ (रामः अयम् = रामो अयं), आ (अन्तः राष्ट्रिय – अन्ताराष्ट्रिय) में भी बदल सकती है। अर्थात एक काकल्य ध्वनि है जिसके प्रभाव से आ, ओ, स, र, ह ध्वनियां पैदा हो सकती हैं। भाषाविज्ञान में मेरी रुचि उन चकित करने वाले आंकड़ों के कारण पैदा हुई जिनकी ओर दुनिया के किसी भाषाविज्ञानी ने ध्यान नहीं दिया और जो इन तुलनात्मक अध्ययनों से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उसकी चर्चा हम आगे करेंगे। इसकी चर्चा हम इस लाक्षागृह से बाहर निकलने के बाद विस्तार से करेंगे। शास्त्रीय पक्ष का मेरा ज्ञान कार्यसाधक ही है अतः इन प्रत्यक्ष दृष्टान्तों के होते हुए भी मैं इसकी प्रक्रिया को पूरी तरह आत्मसात् नहीं कर पाता हूं और यदि इनकी कोई अपनी व्यख्या प्रस्तुत करने चलूं तो शास्त्रीय अध्ययन और प्रशिक्षण से गुजरे लोगों का ज्ञानवर्धन होने की जगह मनोरंजन अधिक होगा। इसलिए इसे भी एक विचारणीय पक्ष के रूप में लिपिबद्ध करके मुक्त होना चाहता हूं कि सस्युर के अनुमान, राजवाडे की इस व्याख्या और भोजपुरी में हकार की भूमिका के तार मुझे परस्पर जुड़े दिखाई देते हैं।
हिन्दी और भोजपुरी में हम जहां हां हां कहते हैं, वहां तमिल जिसमें महाप्राण ध्वनियों का सर्वथा अभाव है, उसमें आम आम = आमाम कहा जाता है। ये दोनों एक ही शब्द हैं यह समझने में समय लगता है।
हमारे सामने समस्या यह है कि क्या एक बोली थी जिसमें ठीक उसी तरह सघोष और महाप्राण ध्वनियाँ ही थीं और इसने अघोष अल्पप्राण ध्वनियों काे तमिल जैसी किसी भाषा के सम्पर्क में आने के बाद ग्रहण किया, या जिन तीन वर्गों को उ सकी निजी ध्वनियां मानते हैं उनकी भी केवल कुछ ध्वनियाँ थीं.
यह उलझाने वाला सवाल है फिर भी इसका कामचलाऊ समाधान यह है कि जिन ध्वनियों का प्रयोग शब्द के आदि में न होता हो उन्हें किसी अन्य के प्रभाव से या अपने भाषाई समाज में ऐसे लोगों के मिलने का परिमाण मानें, जिनमें इनका आदिस्थानीय प्रयोग होता है. दूसरी कसौटी यह है कि अन्य ध्वनियों को वह किन ध्वनियों में बदलती है. पहली कसौटी पर ङ या कवर्ग का अनुनासिक रूप देववाणी में नहीं होना चाहिए. आज भोजपुरी में कोई शब्द ङ से आरम्भ नहीं होता. पर दूसरी कसौटी पर हम इसे एक स्वतंत्र ध्वनि पाते हैं. हिंदी गंगा – भो. गङा, हि. चंगा -भो. चङा, हि. चंगुल – भो. चङुल. पहले पंचमाक्षर का पालन करने वाले हिंदी में गङ्गा, चङ्गा, आदि लिखा करते थे। यह गलत था। हिन्दी में और इसी आधार पर संस्कृत में भी का उच्चारण नहीं होता, कहीं स्वतन्त्र प्रयोग नहीं होता इसलिए गङ्ग, चङ्ग में प्रथम वर्ग के अनुनासिक ङ का प्रयोग नहीं होता, अपितु ग और च के साथ अनुस्वार का प्रयोग होता है। कहें ङ देववाणी की ध्वनि थी पर संस्कृत और हिंदी की ध्वनि नहीं है. हिंदी में इसका अभाव संस्कृत के कारण नहीं है अपितु संस्कृत में ङ का अभाव उस बोली के कारण है जो उस क्षेत्र में बोली जाती थी.
जब तक देववाणी का प्रवेश कुरुक्षेत्र या सरस्वती, आपया और दृषद्वती के कछार में कृषिकर्मियों के मनचाहे क्षेत्र में (नि त्वा दधे वर आ पृथिव्यां इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम् । दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ।ऋ. 3.23.४) हुआ तब तक वे तालव्य व मूर्धन्य प्रेमी समुदायों के संपर्क में आ चुके थे. तालव्य प्रेमी समुदाय के गहन सम्पर्क में वे देववाणी के अपने क्षेत्र में ही आ चुके थे. इसलिए उसके पांचवां अक्षर ञ का भोज. में शब्द के आरम्भ में प्रयोग नहीं होता पर अंत में होता है – चीञा, टोइञा । हिंदी और संस्कृत में ञ का स्वतंत्र प्रयोग नहीं होता. वर्ग के नियम से इसे कल्पित कर लिया जाता. परन्तु मूर्धन्य ध्वनियों के संपर्क में देववाणी का प्रयोग करने वाले इस नए क्षेत्र में आने के बाद आए, इसलिए ण का यद्यपि आद्यक्षर के रूप में जैन प्राकृत को छोड़कर कहीं प्रयोग नहीं मिलता, हिंदी में यह मध्य और अंत में स्वतंत्र अक्षर के रूप में प्रयोग होता है. भोज. में नहीं होता. अतः ण का पंचमाक्षर के रूप में भी हिंदी और संस्कृत में प्रयोग होता है जब कि भोजपुरी में नहीं. ऐ औ पश्चिमी बोलियों की जिनमें उनसे प्रभावित हिंदी संस्कृत, भी आती हैं, ध्वनियाँ हैं. देववाणी में वे नहीं थीं।
भोजपुरी और हिंदी या कहें देववाणी और संस्कृत की कुछ अन्य भिन्नताएं हैं जिन पर आगे चर्चा करेंगे.