Post – 2017-04-19

आत्मसाक्षात्कार

नीचे लिखी पंक्तियां मैंने दलित समस्या पर 1.7.2016 को लिखी अपनी पोस्ट में लिखी थीं। आज अचानक इसकी याद दूसरे सिरे से आ गई। क्या आप सोचते हैं कि हिन्दू समाज कुछ सवालों और घटनाओं को लेकर बौखलाया हुआ है? यदि हां, तो उसे उपचार की जरूरत है। यह मैं नहीं कह रहा हूं, मेरी समाज और इतिहास की समझ कह रही है।

इस बौखलाहट और उत्तेजना से क्षणिक रूप में दूसरे समुदायों का भी नुकसान हो सकता है, परन्तु हिन्दू समाज को जो नुकसान होगा उसकी तुलना में वह बहुत कम होगा। यही सवाल मैं मुसलमानों से भी करना चाहता हूं जिनके अपने कारनामे और हिन्दुओं की जज्बाती बातों और कार्यो से कम बौखलाहट नहीं दीखती। अच्छे भले भी बह जा रहे हैं। यदि इसका वही पाठ वे भी कर सकें तो उनको भी इसके परिणामों का पता चल जाएगा, यद्यपि वे किसी हिन्दू के सुझाव को सुनने से भी परहेज करें तो इसका बुरा न मानूंगा।

इस समय आप अपनी परंपरा और संस्कृति का सम्मान नहीं कर रहे हैं, उनके हाथों में खेल रहे हैं जिनका चेहरा सामने नहीं आता और जिनके कारिन्दों को जो आप के लाडले बन कर, आपकी संस्कृति के नाम पर आप को उत्तेजित और अर्ध विक्षिप्त बनाते है उन्हें आप गले लगा लेते हैं।

जज्बाती होना किसी समाज के हित में नहीं होता पर उसके दुश्मनों के काम का होता है। हिन्दू समाज अगर जज्बाती होकर मुसलमानों के प्रति घृणा का विस्तार कर रहा तो वह उस देश के हाथों में खेल रहा है जो उसे घृणा करने वाला और इसलिए स्वयं भी घृणित सिद्ध करना चाहता है। ठीक यही बात यदि मुसलमान समझ सकें तो ठीक अन्यथा उन दुश्मनों का और उनके मुल्लाओं का भला होगा, मुसलमानों का इतना नुकसान होगा जिसकी वे कल्पना नहीं कर सकते। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि उनके मुल्लाओं के हाथ उनके दुश्मनों से मिले हुए हैं और वह दुश्मन हिन्दू नहीं जो खुद उसी मर्ज का शिकार हैं अपितु वह दुश्मन हैं जिसे आप देखते हुए भी नहीं देख पाते हैं और जिसके कारण में आस्तीन में छुरा रखने वालों को आप दिल से लगा लेते हैं ।

यदि हम अपने इतिहास से इतना भी न सीख सके तो इतिहास की पढ़ाई तो पहले से बन्द है, इतिहास की इस समझ को भी पुरावस्तु मान कर किसी उपयुक्त संग्रहालय में रखेंः
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‘तुम्हारी बात अपनी जगह, पर यह जो दलित समाज है, उसे जो पीड़ा
और अपमान भोगना पड़ा है, उससे उसे राहत देने वाले एक मात्रा नेता के बारे
में आलोचना सुनने पर आघात लगता है। वह बौखला उठता है।’

‘जब तक बौखलाता रहेगा तब तक डरावना भी लगेगा, पर अपने दिमाग
से काम नहीं ले सकेगा और अपनी किसी समस्या का समाधान नहीं कर
पाएगा। दलित की वेदना को समझा जा सकता है, पर दलित इसे अपनी ओर
से और गहन बनाते हुए अपनी सोच को भी दलित बनाए रखे, यह दुर्भाग्यपूर्ण
है। उसे आवेग विह्वल प्रतिक्रिया से जिसे वह अपनी सोच मान लेता है और
अपनी इस सोच को अनन्य मान लेता है, बाहर लाना होगा। उसकी इस ग्रंथि
से टकराते, उसके तार-तार अलग करते हुए, एक सामाजिक मनोविश्लेषण
की भूमिका निभाते हुए उसे भावुकता और विडंबनापूर्ण आत्ममुग्धता से बाहर
लाना होगा। यह उन लोगों का काम है जो शांत चित्त होकर सोच सकते हैं
और दलित समाज को अमानवीय स्थितियों से बाहर लाना चाहते हैं।’

‘तुम सोचोगे उनके लिए? तुम जिसने वह पीड़ा नहीं झेली, वे अभाव
नहीं देखे, जो आज तक उनकी पहचान को भी गाली बना देते थे?’

‘किसी की पीड़ा को कोई दूसरा नहीं झेल सकता। एक दलित भी दूसरे
की पीड़ा को नहीं झेल सकता। हम पीड़ा के दूसरे क्षण में या उससे बाहर
आने के बाद उस पीड़ा को झेल नहीं सकते। एक मां तक अपने बच्चे की
पीड़ा को चाहकर भी झेल नहीं सकती। उसे पीड़ित देखकर बेचैन अवश्य हो
सकती है। हम दूसरे की पीड़ा को समझ सकते हैं और समझ भी इसलिए
सकते हैं कि पीड़ा का कोई एक रूप नहीं है। उसके अनन्त रूपों में से
किसी न किसी रूप को सभी को झेलना पड़ता है और उसी के सहारे, अपनी
सर्जनात्मक कल्पना से, उसके अनुपात, संदर्भ और आयाम का विस्तार करके
हम दूसरों की पीड़ा को समझते हैं। यही बात अभाव की भी है। यही तो बु(
का बोध था कि दुःख से मुक्त कोई नहीं है और यही नानक दुखिया सब
संसार में भी प्रकट है। बौ( मत को अपनी मुक्ति का धर्म और दर्शन मानने
वाले भी इसे भूल जाएं तो हम उसका क्या कर सकते हैं।