Post – 2017-04-18

देववाणी (आठ)

देववाणी में अन्तस्थ य और व की ध्वनियों की जगह स्वर ई और ऊ का शब्द में उनके स्थान के अनुसार ह्रस्व और दीर्घ दोनों रूपों में (हिंदी यहाँ भोज. इहां; हिंदी यह – भोज. ई ; हिंदी वहां = भोज. उहां/ उहवाँ ; हिंदी वह – भोज. ऊ ) होता था और दूसरी बोलियों के प्रभाव में व्यंज. ज और ब के रूप में होने लगा (हिंदी यदि – भोज. जो; हिंदी वस्तु भोज. बस्तु)! परन्तु आज तक उसमे य और व को जगह नहीं मिली।

अंतस्थ ध्वनि र का उच्चारण सम्भवतः घर्षित होता था जिसके उच्चारण में देववाणी सीखने वाले अन्य भाषाभाषियों को कठिनाई होती थी जिसके फल स्वरूप ऋ स्वर का अविष्कार हुआ जिसका भी उच्चारण किंचित घर्षित रि और रु के रूप में होने लगा

हम पहले कह आए हैं की कवर्ग, तवर्ग और पवर्ग देववाणी में थे. ऐसी स्थिति में यह सुझाव देना पहली नजर में अटपटा लगेगा की तवर्गीय अन्तस्थ ल देववाणी में नहीं था। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि ऋग्वेद में ल की ध्वनि दुर्बल है।

ऋग्वेद में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनमे जहां पहले रकार था वहां संस्कृत में लकार का प्रयोग होने लगा. रोका – लोक ; क्लोश – (आ)क्रोश; अश्रीर – अश्लील (अश्रीरा का अर्थ सायण ने अश्रीका किया है जो सदर्भ और अन्य प्रयोगों से मेल नहीं खाता ‘अश्रीका तनूः भवति रुषती पापया अमुया’), ह्राद – ह्लाद, रिप्त – लिप्त, अरंकृत- अलंकृत, रेल्हि-लेहि, श्रुति – श्लोक, वार – बाल ।

इस बात के भी नमूने हैं जिसमें ऋग्वेद में दोनों प्रयोग मिलते हैं – इरा, इला। और एक नमूना ऐसा है जिसमें ऋ. में ल है जो बाद में र बना. ऋ. सम्मिश्ल – मिश्र! इसकी व्याख्या किस तरह की जाय? हम कहना चाहेंगे कि र का ल दे रूप में उच्चारण करने वाला समुदाय किसानी संस्कृति और देववाणी अपना चुका था इसलिए उसके कतिपय प्रयोग ऋग्वेदिक पाठ में बचे रहे जब कि उस समय भी चलने वाला प्रयोग मिश्र या सम्मिश्र दिखाई नहीं देता। दूसरी और जहाँ हिंदी में ल मिलता है वहां भोजपुरी उसे र में बदल देती है:
हिंदी/ संस्कृत फल – भोज. फर; जलना- जरल/ बरल; धवल – धंवर, बलिष्ठ – बरिआर, कपाल – कपार।

पाणिनि ने भी र और ल में भेद न होने की बात कही है- रलयोः अभेदः। इसलिए यह कहने का लोभ होता है कि देववाणी के घर्षी र के उच्चारण की जिस कठिनाई के कारण कुछ अन्य भाषाओं ने इसका उच्चारण ऋ और रु के रूप में करना शुरू किया वहीं कुछ दूसरों ने लृ ल्रू के रूप में, जब कि ऋ और लृ का वास्तविक उच्चारण क्या है इसे लेकर संस्कृत के विद्वानों में भी अनिश्चय पाया जाता है।. भोजपुरी भाषी के लिए ऋग्वेद रिगुबेद है।

ऊष्म ध्वनियों में दन्त्य (स) और कण्ठ्य (ह) ध्वनियाँ भोजपुरी मैं पाई जाती है. श और ष नही थीं। ह देववाणी की सबसे प्रधान ध्वनि प्रतीत होती है। इसके तीन रूप थे। एक स्वर के रूप में प्रयोग में आता है, या कहें उच्चरित होकर भी शून्य अर्थ-मूल्य रखता है (हऊ = ऊ; हई = ई; हीहां = इहाँ). दूसरा ह का ध्वनिमूल्य और अर्थ और तीसरा विसर्जित मूल्य जो भोजपुरी में लगभग समाप्त है पर संस्कृत में बना रह गया है।

सस्यूर ने काकल्य ध्वनियों की कल्पना की थी जिनका भारोपीय की किसी शाखा से पुष्टि नहीं हो पाई थी। उनको लगा था कि प्रचीन जर्मन में यह ध्वनि रही होगी। इसको लेकर काफी उत्साह देखा गया. इसका उच्चारण क्या था यह अज्ञात होने के कारण इसे ह१, ह२, ह३ के रूप में लिपिबद्ध किया गया। बाद में यह पता चला कि हिट्टाइट के पुरभिलेखो से इसकी पुष्टि भी होती है । आगे बढ़कर यह दावा किया गया कि जननी भाषा से सबसे पहले अलग होने वाली शाखा इंडोजर्मन थी जो इस कसौटी पर ग्रीक और लैटिन से भी पुरानी बताई गई।

इसके विषय में मैं इतना हतप्रभ अनुभव करता हूँ कि किसी दावे का खंडन तक नहीं कर सकता। ध्यान रहे कि फर्डिनांड डी सस्यूर ने अपने एक लेख में जननी भाषा के की ध्वनियों पर विचार करते हुए यह नतीजा निकाला था की उसमे आ और ओ पृथक ध्वनियाँ थीं और इसी क्रम में उन्हें कुछ काकल्य ध्वनियों का ख्याल आया जो आज तो अस्तित्व में नहीं हैं इसलिए उनके सही उच्चारण का पता नहीं परन्तु उनके होने की सम्भावना की पुष्टि इस बात से होती है की इन ध्वनियों के प्रभाव से इनके आसन्न व्यंजन के उच्चारण में फर्क आया. इसकी व्याख्या जिस रूप में एक अधिकारी विद्वान ने की है उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं.
The evidence for them is mostly indirect, but serves as an explanation for differences between vowel sounds across Indo-European languages. For example, Sanskrit and Ancient Greek, two descendants of PIE, exhibit many similar words that have differing vowel sounds. Assume that the Greek word contains the vowel e and the corresponding Sanskrit word contains i instead. The laryngeal theory postulates these words originally had the same vowels, but a neighboring consonant which had since disappeared had altered the vowels. If one would label the hypothesized consonant as *h1, then the original PIH word may have contained something like *eh1 or *ih1, or perhaps a completely different sound such as *ah1. The original phonetic values of the laryngeal sounds remain controversial .
(Indo-European Language Association )

प्रश्न ही कर सकता हूँ की अभी हमने भोजपुरी में ह ध्वनि के जिन रूपों की पुष्टि की है उसको इससे समझने में कोई मदद मिलती है?