Post – 2017-04-17

सत्य होता नहीं है गढ़ा जाता है

और इसलिए एक ही तथ्य से अपनी अपनी जरूरत के अनुसार लोग अपने अपने सत्य गढ़ कर तैयार करते हैं जैसे एक ही धातु से शिल्पी ग्राहकों की मांग के अनुसार विविध प्रकार के अलंकार, हथियार, औजार या उपादान बनाता है।

वस्तु जगत में चालाकी पकड़ में आ जाती है इसलिए लोग झूठ और मिलावट से यथासम्भव बचते हैं। कोई नहीं कहेगा कि आभूषण विशेष या आभूषण मात्र सोने चांदी का एकमात्र उपयोग या रूप है. चांदी वस्तु है जिसके असंख्य उपयोग हो सकते है जिनमे से कुछ का हमें पता तक नहीं, परन्तु हमारी सभी जरूरतों को वह पूरा नहीं कर सकती, और कर सकती है तो किसी अन्य कारण से जिनमें एक है उसकी दुर्लभता और अविकारी गुण, जिसके कारण यह शोभा की वस्तु से ऊपर उठ कर सिक्का बन जाती है और जिसके बल पर यह हमारी सभी भौतिक जरूरतों को पूरा कर सकती है।

पर सिक्का चांदी का प्रतीकात्मक उपयोग है, उसका सत्य नहीं। चांदी को सिक्के की भूमिका से और स्वयं सिक्के को हटाया जा सकता है। वस्तु विनिमय में चांदी या सिक्का बीच में नहीं आता था, आधुनिक बैंक प्रणाली में चांदी हट सकती है पर उसकी प्रतीकात्मक उपस्थिति नहीं।

इन सभी संभावनाओं के बाद भी चांदी अपने आप में एक उपादान है, एक वस्तु है, सिक्का बनने के साथ यह उपादान से प्रतीक बन जाती है और उपादान अर्थात चांदी को उस जगह से हटा दो तो वस्तु के रूप में न रहते हुए भी प्रतीक के रूप में उपस्थित रहती है इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता की चांदी का कोई अंतिम सत्य होता है।

जो वस्तु जगत में द्रव्य या उपादान या वस्तु है वह विचार जगत में तथ्य या प्रतीक बन जाता है और उसकी वास्तविकता के ओझल हो जाने के कारण उसका उपयोग करने वाले अपने गढ़े हुए को अन्तिम सत्य मान कर सत्य की विजय के लिए उसके अन्य सभी रूपों को नष्ट कर देना चाहते हैं जिससे सत्य की, उनकी समझ से अन्तिम और एक मात्र सत्य, की प्रतिष्ठा को सके।

इसे धर्म, राजनीति, दर्शन सर्वत्र देखा जा सकता है। इसलिए सत्य में घालमेल से बचने के लिए भौतिकवादी तरीका अधिक सुरक्षित है।

परन्तु जो अपने को भौतिकवादी कहते हैं उनमें से अधिकांश भाववादी हैं। मार्क्सवाद का सत्यानाश इन भाववादियों के कारण हुआ न कि वह रास्ता इतना गलत था। पूरी तरह सही क्या है इसे मालिक जनता और गुलाम उसका पालन करता है , अन्यथा बहुत सी चीज़ें न तो पूरी तरह गलत होती हैं न सही । उनका प्रयोग या परिणाम जिसका दूसरा नाम इतिहास है, बताता है कि जो सही लगता था वह सही था या नहीं और वह किनको उनकी अपनी जरूरतों के कारण सही लगता था ।

यदि उस पर भाववादी ढंग से अमल न किया गया होता तो भारत की आज की विकल्पहीनता में वह एक विकल्प बन सकता था। अब नहीं बन सकता क्योंकि अपने भाववादी आग्रहों के कारण वह अपने पुनराविष्कार की ही नहीं उसकी पूर्वापेक्षा, आत्मनिरीक्षण की शक्ति भी खो चुका है । उसका भविष्य तय है भारत का भविष्य अनिश्चित।