देववाणी (सात)
भोजपुरी बाहरी प्रभावों से मुक्त नहीं रही है। उसमें वे सभी परिवर्तन देखने को मिलेंगे जिनसे संस्कृत प्रभावित हुई। अपने लम्बे इतिहास में यह स्वयं भी अन्य भाषाओँ के सम्पर्क में आई लगती है यद्यपि हम इस बात का अनुमान नहीं लगा सकते की इसके संपर्क की प्रकृति क्या थी।
हम केवल इतना ही कह सकते हैं की अपनी जमीन से जुडी और व्ववहार में आती रहने के कारण इसने अपनी मूल ध्वनिप्रकृति उसी तरह नहीं छोड़ी जैसे दूसरी क्षेत्रीय बोलियों ने अपनी ध्वनिप्रकृति नहीं छोड़ी। इसी से इस बात का कुछ अनुमान हो पाता है कि किन क्षेत्रों में आज से दसियों हजार साल पहले से किन भाषाई समुदायों का जमाव दूसरों की तुलना में अधिक रहा है जिसके कारण अपना सब कुछ न गंवाते हुए भी दूसरी बोलियों को उससे समायोजित होना पड़ा और अनुमान हो पाता है कि उस क्षेत्र में पहुंचने पर संस्कृत में किस तरह के बदलाव आए हो सकते हैं।
संस्कृत उन क्षेत्रों में पहुंचने और संस्कृत भाषियों के कृषि विद्या में अग्रता के कारण कृषि कर्म अपनाने वाले स्थानीय जनों के बीच अपनाई जाने लगी और संस्कृत सीखने वालों के माध्यम से स्वयं रूपान्तरित हुई. संस्कृत की तरह क्षेत्रीय बोलियों को अपने मूल निवास से हटना नहीं पड़ा और संस्कृत के चलन के बाद भी बोलियों का व्यवहार स्थानीय स्तर पर चलता रहा। इसीलिए सभी में उनकी मूल प्रवृत्तियां बनी रह गई हैं और उनमें स्थानभ्रष्ट संस्कृत जैसा रूपान्तरण नहीं हुआ।
संस्कृत भाषियों के इतर क्षेत्रों में पहुंचने के बाद स्थानीय जनों की संख्या अधिक होने के कारण उनके उच्चारण की सीमाओं के चलते संस्कृत का चरित्र बदला। यह बहुत स्वाभाविक और लक्ष्य न की जाने वाली प्रक्रिया थी। इसलिए स्वयं संस्कृत के भी कई रूप हो गए।
हम पहले कह आए है कि उत्तर भारत की प्रधान भाषाओं या भाषा प्रवृतितयों का उदय भोजपुरी क्षेत्र में होता है और जब यह शौरसेनी क्षेत्र में पहुंचती है तो उपका मानक रूप उभरता है जो अपनी मूल बोली से इतना अलग होता है कि पहचान में न आए परन्तु इसके बाद ही इसे व्यापक स्वीकृति मिलती है।
यह सूझ मेरी अपनी नहीं है। इसे सुनीति कुमार चटर्जी ने हिंदी के प्रसंग में पाली, प्राकृत का हवाला देते हुए और हिंदी जिसकी बोली का आधार कौरवी है उसके भी पूर्व में स्वीकार, संवर्धन और फिर सौरसेनी क्षेत्र में उसका मानक रूप स्थिर होने और इस लिए इसे पुरे भारत के लिए सहज स्वीकार्य भाषा होने का समर्थन करते हुए रेखांकित किया था।
परन्तु इसमें वह स्वयं संस्कृत को नहीं जोड़ सकते थे। यह उनकी समझ से पश्चिम से आई थी। इसका उदगम वह मारिया जिम्बुतास के सुझाव के अनुसार कुर्गान संस्कृति का क्षेत्र मानते रहे जब कि उनका स्वयं का कहना था कि लिथुआनिया और यूगोस्लाविया की परम्परा के अनुसार उनके पूर्वज गंगा के तट आए वेदवुद्स थे जो अपने साथ समस्त ज्ञान विज्ञान ले कर वहां पहुंचे थे। इस पर ध्यान देने की जगह उन्होंने इस परम्परा को ही कल्पित ठहरा दिया था.
अब हम भोजपुरी की ध्वनि प्रकृति को आधार बना कर आदि भारोपीय या देववाणी की ध्वनिमाला का निर्धारण कर सकते हैं:
इसके स्वरों में अ, इ और उ हैं जिनके दीर्घ आ, ई, ऊ हैं. इनके अतिरिक्त ह्रस्व ए (एगो) और ह्रस्व ओ (ओके) तथा दीर्घ ए (एक) और दीर्घ ओ (ओकर) हैं परन्तु इनका विकास बाद में हुआ लगता है! भोजपुरी में ऐ और औ नहीं हैं. इनके स्थान पर द्विस्वर इअ (इअवा), उअ (बबुआ), अइ (अइसन), अउ (अउरी) हैं। इनके अतिरिक्त ह के साथ इकार उकार का ऐसा प्रयोग होता है जिसमें ह स्वर की तरह प्रयोग में आता है, हइ (हइहै), हउ (हउहार)।
वर्गीय ध्वनियों में कवर्ग, तवर्ग और पवर्ग की ध्वनियां पुरानी और चवर्ग और टवर्ग की ध्वनियां किसी अन्य बोली से ग्रहण की गई लगती हैं क्योंकि इनका व्यवहार उतना नियमित नहीं है। परन्तु रामविलास जी का यह सुझाव बहुत मूल्यवान है कि यदि किसी वर्ग की कुछ ध्वनियाँ किसी भाषा में पाई जाती हैं तो यह नहीं मान लेना चाहिए की उस वर्ग की सभी ध्वनियाँ उसमें सदा से रही हैं ! (आगे जारी)