Post – 2017-04-16

छूटी हुई कड़ी

हमने स्वतन्त्रता के बाद देशनिष्ठा, समाजनिष्ठा और आत्माभिमान में जैसी गिरावट देखी वैसी गुलामी के दिनों में भी नहीं देखी थी। मध्यकाल जो निरंकुशता का काल था, जिसमें समाज विविध प्रकार से उत्पीड़ित था, उस दौर में भी मनोबल का ऐसा ह्रास देखने में नहीं आया। [लोगों ने यातनाएं सहीं, कल्पनातीत यंत्रणाएं सहीं, अकल्पनीय नरसंहार सहे, उनकी दिल दहला देने वाली कहानियां कहते सुनते रहे, दुर्भिक्ष के दिनों में भी लगान-वसूली की नंगातलाशी झेली, दबाए गए, दब कर रहना भी पड़ा पर झुके नहीं। प्राण दिए पर सम्मान न दिया। दुखी थे, अममानित अनुभव करते रहे, आंसू के घूंट पीने का मुहावरा उनके लिए मुहावरा न था]। कंपनी के शासन में अंधी लूट झेली, पर माथा उतना नहीं झुका जितना स्वतन्त्रता के बाद हम तनने की कवायद में, तनने के लिए झुके । दूसरों से अधिक तनने के लिए अधिकाधिक झुकते गए और अकशेरुक जीवकोटि में पहुँच गए। इसकी ग्लानि से बचने के लिए हमने स्वाभिमान की परभाषाएँ भी बदल दीं, मानो झुकना भी तनने का पर्याय हो।

समस्या कष्ट सहने या मौज मस्ती से रहने के बीच चुनाव की नहीं है, समस्या मनोबल के आपातिक गिरावट की है, कटने के लिए तन कर खड़ी गर्दन का टुकड़े उठाने के लिए एकाएक झुक कर टुकड़े बटोरने की होड में शामिल होने और अपनी झोली दूसरों से अधिक भर लेने पर गर्व करने की है।
इसे मैंने अपनी आंखों देखा था। देख कर इतना आहत हुआ था कि स्वतंत्रता पर भी ग्लानि अनुभव होने लगी थी।

परन्तु इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि मैं उन दिनों शाखा में जाया करता था। उसमें कांग्रेस की और खास तौर से गांधी जी की बहुत निन्दा हुआ करती थी। कम्युनिस्टों की निन्दा नहीं होती थी, परन्तु अमरीका की तारीफ होती थी, ‘जहां का मजदूर भी कार में सवार हो कर मजदूरी करने जाता है।‘
राजनीति मैं जानता नहीं था। शाखा में स्वास्थ्य लाभ के लिए जाने लगा था वह भी अपने चुनाव से नहीं, पिता जी के आदेश से और उस आदेश के पीछे यह लिहाज था की जब गांव के सबसे बड़े जमींदार दरवाजे पर आकर इतना छोटा सा अनुरोध कर रहे हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य सुधारना भी शिक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं है, तो इसे न मानना उनका अपमान होगा।

परन्तु यदि यह कहूं कि शाखा में जाने के बाद मेरी सोच में अन्तर नहीं आया तो यह गलत होगा। चौदह पन्द्रह साल के उस आवेश भरे दौर में आदमी को शिक्षा और प्रोत्साहन से देवता, महामानव, हैवान, जानवर या पूरी तरह जड़ बनाया जा सकता है, यह मैं इन अनुभवों से गुजरने के बाद ही समझ पाया।

गांव में एक ही अखबार रघुनाथ सिंह मंगाते थे. पहले उसे डाकिये से लेकर गांव के कुछ समझदार समझे जाने वाले चौकी पर बैठकर पढ़ते और राजनितिक बहस करते फिर उनके घर पहुँचता और अगले दिन स्कूल जाते समय मेरे समवयस्क और मेरी ही कक्षा में पढ़ने वाले जगदीश चाचा अखबार पढ़ते और मैं कविता की इज्जत बचाने की कोशिश में अख़बार को देखते हुए भी अदेखा करते हुए खीझता खड़ा रहता और उसके बाद हम स्कूल को प्रस्थान करते।

मेरी राजनीतिक समझ और नासमझी की जड़े जितनी गहरी हैं उतना ही गहरा हैं किन्हीं मूल्यों की रक्षा के लिए समर्पण भाव और अनुचित और अनैतिक के प्रति वितृष्णा । यह मेरा अर्जित नहीं है, मेरी विमाता के निजी और सामाजिक व्यवहार की भिन्नताओं को समझने के प्रयत्न से उपजा ज्ञान है जिसे कभी मूल्यवान माना ही नहीं ।

आज अनुभव करता हूँ कि मेरे मन में तलदर्शिता का दुराग्रह से बचने का निश्चय इसके अतिरक्ति किसी दूसरे उपाय से पैदा हो ही नहीं सकता था । एक ओर मैं जिंदगी भर रोता रहा कि मेरी विमाता ने मेरा शैशव और बचपन मुझसे छीन लिया ; दूसरी ओर उसे नमन करता हूं कि मेरे जैसा अल्पमति उस प्रक्रिया से गुजरे बिना कुछ बन ही नहीं सकता था।

इसका परिणाम यह था कि जिस कोण से मैंने अपने ऐतिहासिक विकास को देखा वह दूसरों से भिन्न था। मैं हीनता, उसकी क्षतिपूर्ति और आत्मदैन्य का ऐसा पुतला बना रहा कि उसे कोई मनोविश्लेषक ही सही मुहावरों में प्रस्तुत कर सकता है । मुझे केवल इतना मालूम है कि इस गठीले स्वभाव के कारण मुझसे ऐसी मूर्खताएं हुईं कि सोच कर झेंप अनुभव करता हूँ और आलोक का ऐसा ज्वार भी देखने को मिला जो मेरे अतिरिक्त किसी अन्य ने देखा ही नहीं.

आज़ादी के बाद एक साथ प्राकृतिक विप्लव की तरह जैसा नैतिक क्षरण देखने में आया जिससे मुक्त केवल गाँधीवादी मिले उसके लिए मैं जल्दबाज़ी में नेहरू को अपराधी मान लेता हूँ। यथा राजा तथा प्रजा के सूत्र के दिमाग में गहरे उतर जाने के कारण। यह गलत नहीं है पर पूरा सच नहीं है. अंग्रज़ी में एक कहावत है- तुमको वैसा ही नेतृत्व मिलेगा जिसके काबिल तुम हो।

मैं एक व्यक्ति को पूरा देश मान लेता हूँ, जो सही नहीं है। हमारा दुर्भाग्य की यह पूरी तरह गलत भी नहीं है. आजादी के स्टॉक मार्किट में बहुत कम लोग थे जिन्होंने त्याग की आड़ में इन्वेस्ट नहीं किए थे. अपनी जमा पूंजी नहीं लगाईं थी.

नेहरू परिवार का इन्वेस्टमेंट इतना सुनियोजित था कि उसे कोई भांप न सका और यदि उस वंश परम्परा में यह मानसिकता रुग्णता की सीमाएं न लाँघ जाती जिसमे यह दावा निर्लज्जता से किया जाने लगा कि भारत नेहरू वंश का है, और इसके बाद भी नेहरू के कार्य और व्यवहार में इसे झुठलाने वाला कोई प्रमाण मिल जाता तो ऐसा कहने की अशिष्टता मैं नहीं करता.
इसे मैंने २००० से पहले ही ताड लिया था. परन्तु स्वतन्त्रता का फल चखने की ललक तो नीचे से ऊपर तक भरी थी यह नेहरू जी के नियति से मिलन की आधी रात के बाद की गिरावट से ही जाहिर हो गया था.

यह एक अजीब गणित है जिसमें जो सही लगता है वह गलत से कम सही रह जाता है। राजनीति में जब गणित भी फेल हो जाता है तो आदमी सही कैसे रह सकता है। कितने सही एक साथ कितने गलत हो जाते है:
1. उपनिवेशवादी सही थे कि वे भारतीयों को स्वायत्तता या स्वतन्त्रता देना चाहते हैं परन्तु यह जिम्मेदारी देने से पहले उनको यह जिम्मेदारी संभालने के योग्य बनाने के लिए, इसे धीरे धीरे, योग्यता में बढ़त के अनुसार देना चाहते हैं।
2. उनका यह दावा भी सही था कि वे समस्त प्रजा को उनका न्यायोचित लाभ देना चाहते हैं, इसलिए इसकी कोई समझदारी भारतीयों में विकसित हो जाने के बाद ही ऐसा करना संभव है।
3. कांग्रेस का यह दावा सही था कि वह पूरी भारतीय जनता का, पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्वि करती है .
4. लीगियों का यह तर्क भी सही था कि यदि भारत आजाद हुआ और लोकतन्त्र स्थापित हुआ तो उनको कहीं जगह ही नहीं मिलेगी, बहुमत तो हिन्दुओं का ही निकलेगा इसलिए सत्ता हिन्दुओं के हाथ में चली जाएगी जिससे बचने के लिए मुसलमानों को पृथक और सुनिश्चित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और वह इनता प्रभावशाली होना चाहिए कि अपनी आवाज बुलन्द कर सके इसलिए यह प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं, उससे बहुत अधिक होना चाहिए।
5. उनका यह दावा भी सही था कि कांग्रेस उनकी न्यायोचित मांग को नहीं मान रही है इसलिए वह हिन्दुओं की पार्टी रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी।
6. कांग्रेस का यह दावा भी सही था कि सत्ता हस्तान्तरण के लिए विलंब करते हुए अंग्रेज सामाजिक माहौल को सांप्रदायिक बना रहे हैं आगे जो जितना ही विलंब होगा इसके उतने ही बुरे परिणाम होगे ।
7. गाँधी जी और कांग्रेस का यह कहना भी सही था की हिंसा हिंसा को बढ़ावा ही नहीं देती अपितु अहिंसा के नाम पर भी हिंसा भड़काई का सकती है ।
8. क्रांतिकारियों का यह मानना तो सोलह आने और आज के हिसाब से सौ पैसे सच था की आज़ादी भीख में नहीं मिलती.

सच के अनंत रूपों में इतिहास का सच केवल वह होता है जो घटित हुआ, जिसे रोका न जा सका, जिस रूप में हुआ उसे बदला नहीं जा सका और इसको सच बनाने वालों ने जिन हथियारों का प्रयोग किया उनसे बचा नहीं जा सकता था भले माउंट बैटन द्वारा गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता से अभिभूत नायक को अपनी बूढी मर्दखोर औरत को परोस देने जैसा टुच्चा दांव ही हो. इतिहास का रथ बहुत कमजोर और ढीले जोड़ों पर पर्दा डालते हुए आगे बढ़ता है.