Post – 2017-04-16

देववाणी (6)

भोजपुरी संस्कृत के प्राकृत और अपभ्रंशों के स्खलन से पैदा नहीं हुई, यह उस देववाणी की उत्तराधिकारिणी है जिसके कई चरणों के विकास के बाद संस्कृत स्वयं अस्तित्व में आई थी। इसका प्रमाण यह है की भारोपीय भाषाओँ की जिस जननी भाषा के लक्षणों की परिकल्पना भाषा शास्त्रियों ने की उसके जो लक्षण संस्कृत में नहीं पाए जाते वे भोजपुरी में पाए जाते हैं।

इनमे एक विशेषता महाप्राण ध्वनियों का उस प्राचीन रूप में बचा रहना है जिसे देख कर ग्रियर्सन स्तब्ध रह गए थे और यह कह कर छुट्टी पा ली थी कि पूर्वी हिन्दी भारोपीय भाषाओं में सबसे अधिक रूढ़िवादी है।

जो लक्षण भारोपीय की किसी शाखा में, यहां तक कि सभी बहनों में ज्येष्ठा संस्कृत तक में नहीं बचे, भोजपुरी में कैसे पैदा हो गए? आर्यों के ही नहीं भारोपीय जनों के पूर्वज कब पूर्वी हिंदी क्षेत्र में पहुँच गए यह सवाल तक नहीं उठाया गया, क्योंकि लिंगविस्टिक सर्वे का छिपा लक्ष्य भाषा की आड़ में भारतीय समाज को बाँटना, आर्यों के हमले की पुष्टि करना था न की भारतीय भाषा समस्या को समझना।

यह काम उन्होंने और हार्नले ने किया भी और उन्हें रामप्रसाद चाँद जैसे नृतत्वविद भी मिल गए जिनकी स्थापनाओं का खंडन सुनीति बाबू ने बड़े तर्कपूर्ण ढंग से किया था।

हम उस बहस में न उलझ कर यह याद दिलाना चाहते हैं कि भाजपुरी के विषय में अतिप्राचीन ध्वनियों की अतिजीविता की ओर उनका भी ध्यान गया और इसे उन्होंने दुहराया भी, फिर वह इस तथ्य को रेखांकित क्यों न कर सके कि वह भाषा जिससे भारोपीय भाषाओँ की जननी पैदा हुई उसका क्षेत्र पूर्वी हिंदी क्षेत्र है। जिस भाषा का विश्व में प्रसार हुआ वह वैदिक समाज की बोलचाल की भाषा थी पर इस समय तक उसमें भी अनेक पुराने लक्षणों का लोप हो चुका था।

दुराग्रह कितने प्रबल होते हैं कि इतने प्रबल भाषावैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा करते हुए दो सौ साल तक भारोपीय का जन्म कहां हुआ था इसे लेकर पहेलियां बुझाई जाती रहीं। यह जानते हुए कि इसका समाधन भारत में ही सम्भव है और यहां इसके निर्णायक प्रमाण मिल सकते हैं भारत को विचारणीय क्षेत्रों बाहर रखा जाता रहा और हमारे विश्वविख्यात माने जाने वाले भाषाशास्त्राी भी मुग्धभाव से उन मूर्खतापूर्ण सुझावों को मानते रहे जिनमें सभी इतने लचर थे कि जिसे जो भी स्थल रास आता था उसे क्षीणतम अटकलों कि आधार पर क्रोडक्षेत्र मन कर अपनी भड़ास निकाल लेता रहा जब की दूसरा उसकी बखिया उधेड़ कर रख देता था, जैसा की मैलोरी ने रेनफ्रू के साथ किया और मजे की बात यह कि आज भी उसे दुहराने वाले मिल जाएंगे।

हम भषाविज्ञान और इतिहास की राजनीति की ओर बहकने की जगह तुलनात्मक अध्ययनों से भाषाशास्त्री जिन नतीजे पर पहुंचे थे उसे अपने ढंग से रखना चाहेंगे :

1. जननी भाषा में पूर्ण भूतकालिक क्रिया के लिए क्रिया रूप की आवृत्ति की जाती थी घन+अ +घन = घनाघन जो ऋ . घनाघनो क्षोभणश्चर्षणीनाम।
२. बाद में मध्य नकार का लोप हो गया और स्वर आगे जुड़ गया और इसका रूप घघान हो गया।

३. संस्कृत भाषी भिन्न भाषाभाषी पृष्ठभूमि वाले ऐसे जनों के अपने समाज में विलय के कारण जो प्रयत्न के बाद भी एक साथ आए दो घोष महाप्राण ध्वनियों का उच्चारण नहीं कर पाते थे, स्वयं भी इसे अपना लिया । सम्भवतः इस भाषा में चवर्गीय ध्वनियों के लिए विशेष आग्रह था इसलिए पूर्ववर्ती ध्वनि का महाप्राणन समाप्त हो कर वह घोष ही नहीं हो जाती थी अपितु घोष भी चवर्गीय हो जाता था और जघान रूप बनता था। ऐसा कवर्ग के साथ होता था इसलिए इसकी गुत्थी सुलझाने के लिए उन्होंने आदि भाषा की कवर्गीय ध्वनियों के जिह्वामूलीय उच्चारण वाले एक अन्य वर्ग की कल्पना की। इनके सूत्र उन्हें पाणिनीय व्याकरण से ही मिल भी रहे थे। वे समस्त विकास नस्ली ढंग से तलाश रहे थे, यही सीमा पाणिनि की भी थी इसलिए संस्कृत के विकास में किसी भिन्न भाषाई समुदाय के योगदान की बात उनको न सूझी। इससे आदि भारोपीय की कल्पित वर्णमाला अनावश्यक रूप से बोझिल हो गई।

४. जहां घोषमहाप्राण की समस्या नहीं घोष के बाद घोष आता था वहां पूर्ववर्ती में घोष का लोप होकर गम +गम = गगाम – जगाम रूप, कर+कर= ककार – चकार; घस + घस= घघास – जघास जैसे रूप बनने लगे।

५. दूसरे वर्गों में घोषमहाप्राण की आवर्तिता पर पूर्ववर्ती ध्वनि का घोष रूप ही उच्चारित होता था : धर+धर = दाधार; भू+भू=बभूव

६. चवर्ग सहित दूसरे वर्गों की अन्य ध्वनियों में कोई परिवर्तन न होता था – चर+चर= चचार; मर+मर= ममार, तर+तर= ततार।

भोजपुरी में ये विकार क्यों नहीं आए इसकी चर्चा हम कल के लिए स्थगित रख सकते हैं।