Post – 2017-04-07

भाषा के विकास की उल्टी समझ

हम पहले निवेदन कर आए हैं कि व्यक्ति हो या संस्था या कोई उद्भावना वह अपने बीज रूप से प्रौढ़ता तक इतने कायाकल्पों से हो कर गुजरती है हम उसे प्रत्यक्ष देखते हुए भी विश्वास नहीं कर पाते। यदि उस प्रौढ़ भाषा के, जो जहां जहां लिपिबद्ध हो पाई उसके क्लैसिक रूप में ही पाते हैं, जातक को समझना चाहते हैं तो हमें इस अचरज के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

दुर्भाग्य से तुलनात्मक भाषाविज्ञानियों ने इस सीमा को समझते हुए भी उस प्रौढ़ भाषा के बहुनिष्ठ घटकों को ले कर ही उसकी ध्वनिमाला तैयार करनी चाही, किसका क्या अधिक पुराना है, क्या बदला है, यह तय करना चाहा और सबसे बड़ी बात यह कि उसके आद्यरूपों का विशाल कोश भी तैयार कर दिया। इसे अकाट्य मानने और मनवाने के लिए उन्होंने ध्वनि नियमों की अकाट्यता का सिद्धान्त तैयार कर डाला, जब कि यह भी पता चलता रहा कि भाषाओं की प्रकृति इतनी स्वविशिष्ट होती है कि एक के नियम दूसरे में तो काम आ ही नहीं सकते, उसमें भी पूरी तरह काम नहीं करते, इसलिए अपवादों का सामना करना होता है।

क्लैसिक भाषाएं सामान्य व्यवहार की भाषाएं नहीं होतीं, जार्गन से भरी होती हैं, विशेष दक्षता रखने वालों के बीच व्यवहार में आती हैं, और विचार, अनुभव और ज्ञान के उच्चस्तर पर जरूरी होती हैं, सामान्य संचार के लिए इनमें दक्षता रखने वालों को भी जनभाषा का ही सहारा लेना होता है और इसलिए असली भाषा वही होती है।

क्लैसिक भाषाओं के नियम भी उठे तो जनभाषा से ही होते हैं फिर एक वायवीयता या कृत्रिमता के शिकार हो जाते हैं और यह इतनी बढ़ जाती है कि इसके लिए व्याकरण अलग से सीखना होता है और बहुत सारा श्रम व्याकरण और भाषा सीखने पर ही करना होता है जिसकी जरूरत जनभाषा में नहीं पड़ती इसलिए हम उसमें सीधे कथ्य या वस्तुसत्य का साक्षात्कार करते हैं। संस्कृत, ग्रीक, लातिन, अवेस्ता सभी पर यह नियम लागू होता है। संस्कृत व्याकरण और धातु रूप भाषा की सचाई नहीं है, ध्वनि और आशय की बहुनिष्ठ इकाइयां हैं, जिनमें अर्थ का स्वतः आभास नहीं होता, उसका आरोपण करना होता है।

पश्चिमी तुलनात्मक भाषाविज्ञानियों ने पाणिनीय पद्धति को अपने यहां अपनी भाषाओं सहित या उनको प्रधानता देते हुए उसी तरह के बहुनिष्ठ घटकों से आद्यरूपों को समझने का प्रयास किया जो भाषा में होता नहीं कल्पित किया जाता है इसलिए वे उस आदिम भाषा की तलाश कर ही नहीं सकते थे। आंकड़ों का अंबार अवश्य खड़ा कर सकते थे इसलिए इस भाषा विज्ञान को सास्युर विवेचन से अधिक क्रीड़ा कहा थाः
Surprisingly, there was never a more flawed or absurd idea of what a language is than during the thirty years that followed this discovery by Bopp (1816). In fact, from then on scholars engaged in a kind of game of comparing different Indo-European languages with one another, and eventually they could not fail to wonder what exactly these connections showed, and how they should be interpreted in concrete terms. Until nearly 1870, they played this game without any concern for the conditions affecting the life of a language.
This very prolific phase, which produced many publications, differs from its predecessors by focussing attention on a great number of languages and the relations between them, but, just like its predecessors, has no linguistic perspective, or at least none which is correct, acceptable and reasonable. It is purely comparative. … Saussure’s Third Course of Lectures on General Linghuistics (1910-1911) publ. Pergamon Press, 1993 [28 October 1910]Introductory chapter: Brief survey of the history of linguistics.

हम न तो पाणिनीय व्याकरण, धातुपाठ और अर्थपाठ को व्यर्थ मान सकते हैं, न ही पाश्चात्य तुलनात्मक भाषाविज्ञानियों के प्रयत्न को। हमारा निवेदन मात्र इतना है कि इसके माध्यम से भाषाव्यवस्था या उसके लक्षणों को समझने में और ‘सही’ भाषा सीखने में मदद तो मिल सकती थी पर न तो इससे ‘जीवन्त’ भाषा तक पहुंचा जा सकता था न ही इस भाषा की पूर्वावस्थाओं का अनुमान किया जा सकता था और फिर भी उसके कुछ ऐसे रहस्यों का उद्घाटन हो सकता था जो सूखे काठ को अपने उपयोग के लिए काटने चीरने के बाद पता चलता और जिसको जीवन्त वृक्ष को देख कर हम समझ नहीं सकते थे, जैसे उसके हीर के घेरों की गणना से उसकी वास्तविक आयु का ज्ञान।

तुलनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन यह तय करने के लिए आरंभ नहीं किया गया था कि सादृश्य रखने वाली भाषाओं में सबसे पुरानी कौन है, या वह भाषा कैसी थी जिससे इन सबका जन्म हुआ। यहां समझने से अधिक कोई ऐसा तर्कसंगत बहाना तलाशने का उद्देश्य था, जिससे वे काले बंगालियों की संतान होने की शर्म से बच सकें। न तो वे उस भाषा के चरित्र को समझ सकते थे, न ही समझ पाए। धांधली करते भी रहे, इसे छिपाते भी रहे और तभी उनका ध्यान रोमान्स भाषाओं की ओर गया।
In the Romance sphere, other conditions quickly became apparent; in the first place, the actual presence of the prototype of each form; thanks to Latin, which we know, Romance scholars have this prototype in front of them from the start, whereas for the Indo-European languages we have to reconstruct hypothetically the prototype of each form. Second, with the Romance languages it is perfectly possible, at least in certain periods, to follow the language from century to century through documents, and so inspect closely what was happening. These two circumstances reduce the area of conjecture and made Romance linguistics look quite different from Indo-European linguistics.

किसी भी काल या क्षेत्र का लिखित दस्तावेज साहित्यिक भाषा में ही होता है जिसका चरित्र अपने ही क्षेत्र की बोलचाल की भाषा से भिन्न होता है। सास्युर इस मामले में भी सचेत थे। इस अध्ययन से जो मुख्य अन्तर आया वह था पहले जहां लिखित या साहित्यिक भाषा को अधिक महत्व दिया जाता था अब उल्टे बोलियों को दिया जाने लगा।
a scientific study will take as its subject matter every kind of variety of human language: it will not select one period or another for its literary brilliance or for the renown of the people in question. It will Pay attention to any tongue, whether obscure or famous, and likewise to any period, giving no preference, for example, to what is called a classical period’, but according equal interest to so-called decadent or archaic periods. Similarly, for any given period, it will refrain from selecting the most educated language, but will concern itself at the same time with popular forms more or less in contrast with the so-called educated or literary language, as well as the forms of the so-called educated or literary language. Thus linguistics deals with language of every period and in all the guises it assumes.

रोमांस भाषाओं के अध्ययन क्रम में वह सचाई सामने अवश्य सामने आई कि मानक भाषाओं के क्षरण से बोलियां नहीं पैदा होतीं अपितु बोलियों में से अनेक में से किसी एक के प्रधानता पाने के कारण उसका क्रमिक उत्थान होता है और वह उस क्लैसिक चरण पर पहुंचती है । एक वैज्ञानिक पड़ताल में यह जानने का प्रयास किया जाना चाहिए था कि यदि किसी भाषा ने, मान लीजिए अ ने किन्हीं भी कारणो से आ ई उ ए आदि क्षेत्रों में प्रसार पाया जिसके कारण सभी में कुछ गहरी समानताएं हैं, और इसके बाद भी सभी अपनी क्लैसिक ऊंचाई पर पहुंची दिखाई देती हैं, तो हमारे सामने कोई एक भाषा नहीं है अपितु सभी में अ तत्व है अआ, अई, अउ, अए आदि फिर अ का विकास कहां और कैसे हुआ। निश्चय ही वह इनमें से ही कोई क्षेत्र रहा हो सकता है ।

इसका उत्तर पाने के लिए हमें सभी क्षेत्रों की बोलियों के अध्ययन से सही देश काल का अनुमान हो सकता है। यह नहीं किया गया। क्योंकि इसका उत्तर भी उन्हें पता था और उस उत्तर से ही वे बचना चाहते थे] इसलिए भारोपीय के उद्भव क्षेत्र पर भारत को यह कह कर बाहर कर दिया गया कि एक समय में भारत के विषय में बहुत विचार हुआ है इसलिए अब उसे विचारणीय क्षेत्रों से बाहर माना जाता है। वह विचार लंबे समय तक कब हुआ, कहां हुआ, यह हमें पता नहीं क्योंकि जैसा कि हम पाते हैं, इस पर निर्णायक स्वर में कोई दावा करने के पहले ही प्रयास में विलियम जोन्स ने उस कल्पित लुप्त भाषा का जिसका आज अस्तित्व नहीं रह गया है, क्षेत्र] ईरान ठहरा दिया था और मजेदार बात यह कि वह स्वयं मानते थे कि अवेस्ता की भाषा का संस्कृत से वही संबंध है जो भारत की प्राकृतों का संस्कृत से है।

जो भी हो, मूल क्षेत्र का निर्धारण करना जहां से अपने मानक चरण पर पहुंच कर अ का भारोपीय क्षेत्र में प्रसार हुआ इतना आसान था जितना गणित का खेल पर नीयत में खोट हो तो गणित की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। हम विलियम जोंस के जिस कथन को बार बार दुहराते हैं वह निम्न प्रकार हैः
The Sanskrit language, whatever be its antiquity is of wonderful structure, more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either.

यदि यह दावा सही है तोः
1. तो कोई भाषा या संस्कृति जब अपने मूल स्थान से दूर जाती है तो उसमें उसका समग्र नहीं जाता, बहुत कुछ छूट जाता है, अतः जो कोपियस है वह उसका मूल क्षेत्र हुआ।
2. कोई चीज जब अपने मूल स्थान से हट कर किसी भिन्न परिवेश में पहुंचती है तो उसके साथ समायोजित होने में उसमें कुछ विकार या अनगढ़ता आती है, इसलिए जहां वह अखोट या परफेक्ट दिखाई देती है वह उसका मूल क्षेत्र हुआ ।
3. यही बात परिमार्जन के विषय में कही जा सकती थी ।
इसलिए जोंस स्वयं अपनी ही मान्यताओं का सारतत्व नहीं ग्रहण कर पा रहे थे क्योंकि वह संस्कृत के विस्थापन की प्राथमिक तैयारी करके और अपनी कार्ययोजना को अपने यात्रा काल में तय करते हुए आए थे।
4. बाद के अध्ययनों में जो बातें सामने आईं वे भी स्वतः सिद्ध थीं । यूरोपीय भाषाओं में केवल संस्कृत के ही तत्व नहीं पहुंचे अपितु द्रविड और मुंडारी के भी तत्व पहुंचे थे। एक को लेकर बरो आदि उलझन में थे तो दूसरे को लेकर हाफमैन आदि । पर उत्तर था जहां से यह भाषा अन्यत्र फैली वहां भले प्रमुख संपर्क भाषा संस्कृत बन गई हो, उस क्षेत्र में द्रविड़ भाषी और मुंडा भाषी भी थे और उस कार्यव्यापार में जिसके माध्यम से भाषा का प्रसार हुआ किसी न किसी स्तर पर उनकी भी भूमिका थी।
यदि बोलियां विकास करती हुई मानक चरण तक पहुंचती हैं तो इस विकास रेखा को समझने के लिए उस क्षेत्र की बोलियों का अध्ययन करना लाभकर हो सकता था। परन्तु जिसे नकारने के लिए इतने सारे लोगों ने अपनी जान लड़ा दी उसे वे स्वीकार कर ही नहीं सकते थे।
उनकी विवशता हमारी समझ में आती है] भारतीय इतिहासकारों और भाषाशास्त्रियों की विवशता समझ में नहीं आती ।