Post – 2017-04-06

हम अपने आप को उनकी नज़र से देखते हैं
वह हमको देखिये उलटी नज़र से देखते हैं

हमारे सामने दो प्रश्न हैं। एक तो यह कि जब हमारे इतिहास, समाज और मनीषा के विषय में पाश्चात्य अध्येताओं का सारा काम वर्चस्ववादी इरादे से, हमे बौद्धिक रूप से परजीवी बनाने के इरादे से किया गया है और सभी क्षेत्रो में पहल और कर्मठता मुख्य रूप से उनकी ही रही है तो उनकी लिखी सामग्री को दरकिनार करने के बाद हमारे पास उपजीव्य के रूप में बचता क्या है? दूसरा प्रश्न यह कि उनकी इस नीति की सफलता से तैयार हुए मानस को बदलने का क्या उपाय है?

इन दोनों प्रश्नों का समाधान हम कुछ समय के लिए स्थगित रख सकते हैं। अभी हम उन अध्येताओं की बात करें जो भारतीय इतिहास का अवमूल्यन करने वाले पश्चिमी विद्वानों का स्वयं विरोध करते हैं और भारतीय अतीत की सराहना करते हैं और जिनके कथन को दुहराते हुए कुछ लोग दिवास्वप्न में चले जाते हैं और उन्हें कुछ इस भाव से याद करते हैं मानो वे हमारे उद्धारकर्ता हैं जब कि अपने को मार्क्सवादी कहने वाले उनसे घबराहट अनुभव करते हुए भी उनके मूर्खतापूर्ण सुझावों को आप्तवाक्य की तरह दुहराते हैं।

भारतप्रेमी या हिन्दुत्व के प्रति सदाशयी और संवेदनशील दीखने का ढोंग रचने वाले पंडितों में सबसे पहला नाम रोबेर्तो दि नोबिली का है जो हिंदुओं के बीच पैठ बनाने के लिए पुरातनपंथी ब्राह्मणों की जीवन शैली अपना कर पांचवें वेद के रूप में बाइबिल के चुने हुए अंशों का प्रचार करते हुए ईसाईयों तक से छूतछात बरतता था।

धर्म की आड़ में पाखण्ड और फरेब के नमूने सर्वत्र मिलते हैं, परन्तु वे व्यक्ति की निजी गिरावट के कारण होते हैं और धर्म और तंत्र उनका अनुमोदन नहीं करता, पश्चिमी समाज राजनीति में ही नहीं, धर्म के मामले में भी धोखाधड़ी, मक्कारी, उत्पीड़न, आगजनी और नरसंहार तक का सहारा लेता रहा है और फिर भी दूसरे धार्मिक समुदायों और विश्वासों के लोगों का उद्धार करने को व्याकुल रहा है और ईसाई समाज इसको जन, धन के साथ नैतिक और कूटनीतिक समर्थन देता रहा है जिसका सबसे ताजा उदाहरण है अमेरिकी सीनेट के पक्ष और विपक्ष दोनों के बहुत सारे सदस्यों द्वारा इस प्रयोजन से गठित एक संगठन को विदेशी धन पर रोक के विरुद्ध पत्र।

जो काम नोबिली इतने प्रपंच के बाद भी नहीं कर पाए थे उसे गाँधी और नेहरू को छलावे में लेकर वेरियर एल्विन ने इतनी सफलता से किया की पृवोत्तर को जिसके लिए नेहरू ने उन्हें सलाहकार बनाया था ईसाई बहुल और भारत विमुख बना दिया और वनांचलों में कई स्थानों पर रहते हुए किसी उम्र की लड़की से, जिनमें एक मामले में जब उसकी अपनी उम्र चालीस थी और लड़की की आठ साल, शादी की, बच्चे पैदा किये और तलाक और गुजारे का प्रबंध करके दूसरी शादी की और इस तरह ईसाइयत और धर्मान्तरण की जड़ें जगह जगह कायम कीं जो आज असाधारण तेजी से बढ़, फल और फूल रही है।

परन्तु एल्विन के साथ एक खास बात थी। वह चौरीचौरा की दुर्घटना से पहले के भारतीय स्वतंत्रता ज्वार से ब्रिटिश शासन के अंत को ब्रिटिश राजविदों की तरह पढ़ सका था कि भारत की आज़ादी टाली जा सकती है, पर रोकी नहीं जा सकती। वह इस निश्चय के साथ आया था कि ब्रितानी राज्य के विदा होने के बाद ईसाइयत का साम्राज्य विस्तार हो और इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जुड़ कर गाँधी जी और नेहरू जी का आत्मीय बना, भारतीय नागरिक बना, आटविक जनों के बीच काम करते हुए भारतीय नृतत्व का पहला उप निदेशक बना और उसे इन कारणों से पद्मभूषण सम्मान भी मिला।

यह एक ऐसी स्थिति है जिसमे कोई भी धोखा खा सकता है। यहां तक कि सावधान रहने वाले या संदेह करने वाले की क्षुद्रता का एक प्रमाण इसे भी बनाया जा सकता है। मैं इस भर्त्सना का स्वागत करते हुए अपने को सिद्धदोष की तरह हाज़िर भी कर देता यदि वह गाँधी के सादी रहन के रास्ते उनका स्नेह और सद्भाव इस हद तक जीतने के बाद कि वह उसे पुत्रवत मानने लगते, वह उससे भी अधिक शुद्ध प्रकृतिवाद की तलाश में आदिवासियों की ओर न मुड़ता और मुड़ने के बाद पुरातात्विक सरोकार से बाहर न जाता और जिसको सर्वोपरि मानता था उसे मिटा कर ईसाइयत के विस्तार के केंद्र न बनाता। उनकी भाषा से अरुचि पैदा करके उनकी जबान को किनारे डाल कर अंग्रेजी को बढ़ावा न देता।

हमारा प्रयोजन यहां उनके मजहबी हस्तक्षेप और घुसपैठ से नहीं है जिसने प्रतिरोध और जाग्रति पैदा की और जिसकी आरम्भिक अवस्थाओं में इसे ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज और बाद में गाँधी जी के निजी प्रतिरोध में और संघ के दृढ प्रतिरोध और संकल्प में लक्ष्य किया जा सकता है।

जो खतरनाक बात थी और जिसकी घुट्टी विलियम जोंस, मैक्समूलर सहित दूसरे सभी ने पिलाई और जिसका शिकार होने से कोई न बच सका, वह है, पश्चिम और पूर्व का वह भेद जिसमे पश्चिम को भौतिकवादी और पूर्व को अध्यात्मवादी बताते हुए इसको अंतर्मुखी, व्यक्तिवादी, सामाजिक सरोकारों से शून्य, भाववादी, अतार्किक, अवैज्ञानिक, ढकोसलेबाज, कुहाछ्न्न या ऑब्स्क्योरैंटिस्ट और ब्राह्मणवादी निरंकुशता से ग्रस्त सिद्ध किया जाता रहा । इस चालबाज़ी को लक्ष्य इसलिए नहीं किया जा सका कि उसमे प्रकट रूप में जोर अध्यात्म और अतीन्द्रिय बोध पर दिया जाता रहा । इसलिए इसके जाल से कोई न बच सका और आज इससे सबसे अधिक ग्रस्त संघ और भाजपा और दूसरे हिन्दू संगठनों के लोग हैं जो ईसाइयत के मोर्चे पर अकेले सतर्क दिखाई देते हैं पर अध्यात्म और योगसाधना के चक्कर में भावुक और आत्मघाती रुझानों को बढ़ावा देते हैं।

जब घबराहट की स्थिति आ जाये तो कुछ कर गुजरने से अच्छा है, एक क्षण को अपने को सक्रियता के सभी मोर्चो पर, जो करते जा रहे थे, उसे रोककर, यह सोचना कि क्या हमें कुछ और करना चाहिए? सक्रिय राजनीति से जुड़े लोगों के पास अपने को बर्वाद करने वाले तरीक़ो को, उनका परिणाम जानने के बाद भी, उनको जारी रखने के लिए तरह तरह के बहाने और ढेर सारा समय होता है, पर यह समझने के लिए समय नहीं होता कि जो कुछ कर रहे हैं वह ठीक भी है या नहीं। बुद्धिवादी अपनी बुद्धि पर इतना भरोसा करता है कि जो उससे सहमत नहीं होते उनसे नाता तोड़ लेता है, पर यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि उससे भी कोई ग़लती हुई हो सकती है। अपनी मूर्खता के परिणाम झेलते हुए भी वह यह नहीं समझ पाता कि जो अनपढ़ हैं वे भी सोचते हैं!

हम लम्बी चर्चा से बचते हुए कुछ ऐसे विद्वानों कि पड़ताल करते हुए अपनी बात रखें तो समझने में आसानी होगी. इनमे अग्रणी हैं विलियम जोंस। उन्हें अधिक सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए। वह तीसरे व्याख्यान में ज्ञान, विज्ञान और कला का क्रोड एशिया को मानते हैं (Asia was the “nurse of sciences” and the “inventress of delightful and useful arts।”) पर जब एशिया के भीतर किसी भूभाग की बात आती है तो उसे भारत से बाहर ईरान में केंद्रित कर देते हैं। जो दावा जोंस ने किया वह उससे पहले बंगाली भाषा का व्याकरण लिखते हुए हालहेड अधिक सलीके से कर चुके थे.

हालहेड ने आधुनिक भारतीय भाषाओँ को संस्कृत से निकला माना था और संस्कृत को ही ग्रीक और लैटिन की भी जननी माना था। जोन्स हालहेड के विचारों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे थे। संस्कृत को आधुनिक भाषाओँ की जननी और उसका आदि क्षेत्र भारत मानना गोरों को काले बंगालियों की औलाद मानने जैसा था. ऊपर से किसी सुदूर अतीत में यूरोप को हिंदुओं के अधीन मानना था। जोंस इस शर्मिंदगी से यूरोप को बचाने के लिए सचाई को तोड़ मरोड़ रहे थे और अपने प्रस्ताव को स्वीकर्य बनाने के लिए अनर्गल लफ्फाजी से काम ले रहे थे:
Jones had read the Jesuit missionary sources with their occasional report of similarities between Sanskrit, Greek, and Latin.
Jones knew Nathaniel Halhed, read his books, quoted from them, and was probably influenced by Halhed’s Sanskrit-Latin-Greek comparisons grammar of Bengali, which he sent to Jones, spoke of Sanskrit as the parent of Greek and Latin, and it contained a list of Sanskrit roots and infinitives which, as already mentioned, may have had some impact on Jones’ idea of “affinity in the verb roots”. Jones accepted the grounds on which Halhed established the kinship of Sanskrit with Greek and Latin; he accepted Halhed’s view that Sanskrit was very ancient; but he did not accept Halhed’s suggestion that Sanskrit might be the parent language।

यह तो उस व्यक्ति का हाल है जिसे हम तुलनात्मक भाषा विज्ञान का जनक मानते हैं। भाषाओँ की उसकी समझ कैसी
थी कि उसका नमूना यह कि :
Hindus had a common origin with a vast array of nations, including the Egyptians, Phoenicians, Chinese, Japanese, even Peruvians…
ऊपर के उद्धरण एक ही पुस्तक से हैं WHY SIR WILLIAM JONES GOT IT ALL WRONG, OR JONES’ ROLE IN HOW TO ESTABLISH LANGUAGE FAMILIES Lyle Campbell (University of Canterbury, New Zealand) .

इतने समझदार आदमी को यूरोप का बड़ा से बड़ा भाषाविज्ञानी सर चढ़ाता रहा और यह भूलता रहा कि उसके कथन का जो रक्षणीय सत्य है वह उससे पहले किसी दूसरे ने अधिक तार्किक ढंग से रखा था और उसे इसलिए तुलनात्मक भाषाविज्ञान की चर्चा से बाहर कर दिया गया कि उसने भारत से लेकर यूरोप तक की भाषाओँ की जननी संस्कृत को माना था जो यूरोप को सह्य न था.

रोचक यह है कि जोंस के हेरफेर के बाद भी यूरोप में संस्कृत और भारत और आदि इंडो-युरोपियन का अकाट्य सम्बन्ध मान्य रहा और बना रहा काले बंगालियों की संतान होने का संताप । इससे बाहर निकलने का कोई तर्क तलाशा जाता रहा जो उनको इस आत्मग्लानि से बचा सके। तुलनात्मक भाषाविज्ञान में विलियम जोंस का महत्व और इसका विकास इसी ग्लानि से बचने की कवायद है पर इसे न पश्चिमी विद्वान् इसके नंगे रूप में पेश कर सकते हैं, न हमारे अपने अधिकारी विद्वानों ने इसे समझा न हमें समझने का मौका दिया। हम इस पड़ताल को आगे जारी रखेंगे।