कहना चाहा उसे कहा ही नहीं
हम लम्बे समय से पराधीनता में रहते आए है, जिसके पीछे सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक तीनो कारण रहे हैं। इससे हम तालमेल बैठाते आये हैं; यह हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता चला गया है, इसलिए हमने क्या गंवाया है, इसका बोध तब तक नहीं होता जब तक हमारा पाला ऐसे समाजों से नहीं पड़ता जिनको उन अनुभवों से उतने लंबे समय तक और उस रूप में नहीं गुजरना पड़ा।
ऐसी नौबत आने पर यदि आप सतर्क हैं तो आपको आभास होता है इसके चलते हमारे मनोबल और आत्मविश्वास का क्रमिक क्षरण होता आया है। हम जो कुछ हैं, जिस भी दशा में हैं, उसी में संतुष्ट हो लेना या गर्व के कारण तलाश लेना पिछड़ी मानसिकता है, जिससे नई चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता। इसकी क्षतिपूर्ति अपना सबकुछ त्याग कर दूसरे जैसा बनने की दौड़ में होती है जो उससे भी दयनीय, गुलामी की, मानसिकता है।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुता ये नई अवधारणाएं हैं जो आकांक्षा के रूप में अति प्राचीन काल से सभी सभ्य समाजों में रही है और अर्थतंत्र तथा धर्मतंत्र इसमें बाधक भी रहे हैं और इनका दिखावा भी करते रहे हैं।
ये प्रत्येक मनुष्य के जन्मसिद्ध अधिकार हैं, यह बोध नया है, अतीत में इनका बोध क्षीण रहा है और हमें अपनी स्थितियों से समझौता करना पड़ता रहा है या कहें अपनी विवशताओं को अपनी नियति मान कर अपने को समझाना पड़ता रहा है। इसलिए यदि पहले हम इस विषय में सतर्क न रहे तो इसके लिए अपराधबोध की आवश्यकता नहीं। फिर भी जिन व्याधियों के प्रति हम सचेत न रहे हों उनके परिणाम से तो नहीं बच सकते।
हम इस कटु सत्य से तो आँख नहीं चुरा सकते कि आज की तिथि में आत्मविश्वास और देशाभिमान के मामले में हमारा आरेख कबीलाई समाजों की तुलना में भी नीचे जाता है, पाश्चात्य देशों की तुलना में नीचे जाता ही है।
विचित्र तुलना है, जिसमे मैं पाश्चात्य देशों को निष्ठा के मामले में कबीलाई समुदायों से भी गया बीता पाता हूँ और इस बात पर खेद जताता हूँ की पाश्चात्य देशों में जिस स्तर का आत्माभिमान और देशाभिमान मिलता है वह भी हममें नहीं है।
रहस्य यह है कि समाज के स्तर पर पश्चिम कबीलाई निष्ठा की तुलना में पिछड़ा है। सच कहें तो जिस आधुनिक राष्ट्रवादी भावना का पूंजीवादी ने अपने हितो की रक्षा के लिए इस्तेमाल किया उसकी प्रकृति कबिलाई है। एक रक्त, एक भाषा, एक विश्वास और एक क्षेत्र। पूंजीवाद ने इसका इस्तेमाल किया, इसको नष्ट किया और उस समाज का हर तरह से अनिष्ट किया जिसकी कबीलाई भावनाओं को उत्तेजित करके उसने सस्ते, कर्मठ और अपना प्राण उत्सर्ग करने वालों की सेवाएं कौड़ी के मोल प्राप्त की थीं और फिर अपने नंगे रूप में सामने आ गया था।
ऐसी स्थिति में अपनी रक्षा के लिए अपने ही समाज की सबसे सम्वेदनशील पीढ़ी को ड्रग एडिक्ट बनाने वाली व्यवस्था और अन्धाधुंध कमाई के लोभ में दूध से लेकर दवा तक में मिलावट करने वाले समाज को कहाँ रखें?
इन दुहरी चुनौतियों के बीच हम क्या हैं, कहाँ हैं, यह जांचना तो हमें ही पड़ेगा। आरम्भ हमें अपने आप से करना होगा।
आत्मविश्वास का एक मानदंड यह है कि आप अपने कार्य से स्वत: कितने आश्वस्त रहते हैं और कहाँ तक दूसरों के अनुमोदन की अपेक्षा करते हैं?
अनुमोदन में तुलनात्मक महत्व अपने समानधर्मियों को अधिक देते हैं या उनको जो स्वामित्व या बड़दाबोध के प्रकट या छद्म भाव से आपके साथ पेश आते हैं?
समर्थन में तर्क और औचित्य कि अपेक्षा रखते हैं, या मात्र पीठ पर हाथ रखने से तुष्ट हो जाते हैं।
पराधीनता के कुछ मूल्य अनुशाशन, शिष्टाचार, आस्था, विश्वास आदि के नाम से सभी समाजों में होते हैं । इनके दबाव से हम बच नहीं सकते। कुछ का निर्वाह सामाजिकता के अलिखित करार का हिस्सा है। अतः हम स्वेच्छा और स्वविवेक से अपनी स्वतंत्रता को अंशतः या अल्पकालिक रूप में या समग्रतः समर्पित कर देते हैं। इसका निर्णय जब तक हमारा है तब तक स्वतंत्रता का यह त्याग भी स्वतंत्रता का हिस्सा है। जहां इसके लिए हमें बाध्य किया जाता है वहां वही कार्य हमारे आत्माभिमान को खोखला करता है।
यह बाध्यता जरुरी नहीं कि बाहुबल के रूप में आये। प्रलोभन, यशवृद्धि, बहिष्कार के भय, अनेक रूपो में पेश आ सकती है और कई बार तो आप्त व्यक्ति या ग्रन्थ की मान्यता बन कर आ सकती है।
प्रश्न यह है कि हम स्वत: अपनी समझ की सीमा में इन दबावों की कहाँ तक परख और प्रतिरोध करते हैं।
इसलिए सांस्कृतिक स्तर पर अपनी धौंस जमाने के लिए कृतसंकल्प समाज या देश
अध्ययन, वर्गीकरण, संपादन, अनुसन्धान के सभी क्षेत्रों में पहल और प्राधिकार अपने हाथ में रखने के प्रबंध करते और अपने समाज के अध्येताओं को प्रमाण पुरुष बनाने के प्रयत्न करते हैं और जिस पर धौंस जमा कर उसके मनोबल को तोड़ना चाहते हैं उसे पहल, प्रयत्न, और अधिकार से दूर रखते हैं।
उसने यदि स्वयम कोई काम अपनी पहल से किया तो उसको या तो नज़रअंदाज़ करते हैं या उसे अपना कृपाकांक्षी बनाने का प्रयत्न करते है।
गुलाम मानसिकता में पले देश के बुद्धिजीवी उनकी शिष्यता पर गर्व करते हैं और उनके द्वारा अनुमोदन को किसी कार्य के स्तरीय होने की अनिवार्य शर्त बना देते हैं और यह तक नहीं समझ पाते कि उनका सारा प्रयत्न आपके समाज को गुमराह करने, मूल्यांकन और अध्यवसाय को गलत दिशा में भटकाने और पूरी ‘सदाशयता’ से आपको गिराने अपना उपजीवी बनाए रखने के लिए होता है।
मुझे आज तक किसी ऐसे पश्चिमी विद्वान का पता नही जो इस षड्यन्त्र से अनिभज्ञ रहा हो,या जो इसमें शामिल न रहा हो। मुझे कोई ऐसा भारतीय चिंतक नहीं दिखाई देता जिसने इस कुचक्र को समझा हो या इससे किसी न किसी अनुपात में प्रभावित न हुआ हो। यह निवेदन करते समय मेरे सामने राममोहन रॉय और विद्यासागर से लेकर, अरविन्द, रवींद्र, विवेकानंद, स्वामी दयानंद, तिलक, सहित प्रख्यात इतिहासकारों, भाषाशास्त्रियों और दार्शनिकों का पूरा सभागार याद आ जाता है। अंतर अनुपात का अवश्य दिखाई देता है।
इसका कारण यह है की राजनीतिक सफलता सुनिश्चित करने के साथ ही उन्होंने मनोबल को तोड़ने और अपने प्रभुत्व को सुनिश्चित करने के लिए सारा पहल अपने हाथ में ले लिया, और खेल के नियम स्वयं बनाने लगे। उन्होंने जितनी दूरदर्शिता, कौशल, अध्यवसाय, स्वराष्ट्रनिष्ठा और दृढ़ता से काम लिया वह असाधारण ही नही, अभूतपूर्व भी है।
हमारे लिए जो षड्यंत्र है वह उनके लिए व्यापक योजना थी और इसको इतनी कुशलता से अमल में लाया गया कि वे अपना काम (क्रिया) करते रहे हम प्रतिक्रिया करते रहे। ऐसे भारतीय मनीषी भी जिन्होंने उनकी योजना पर संदेह करते हुए बचने का प्रयत्न किया और किसी खेत्र में अनन्य कीर्तिमान कायम भी किया उनकी महत्वाकांक्षा भी उनके अधिकारी विद्वानों की समकक्षता में आने मात्र की थी ।
वे भारतीय उपलब्धियों की जहां मुक्तभाव से प्रशंसा करते हैं उसे ध्यान से देखें तो वह एक तरह का भितरघात सिद्ध होगा।
[परंतु क्या आज की पोस्ट भी अधूरी भूमिका बन कर नहीं रह गई ?
कितनी परतों की जहालत हैं दिमागों में भरी ।
कितने जाहिल हैं जो फरमान लिए घूमते हैं
हम भी कुछ हैं कि नहीं?
हम कहीं हैं कि नहीं ?
वे जो फरमाएं उसे चूमते हैं झूमते हैं। ]