Post – 2017-04-03

देववाणी = आदिम भारोपीय = आदिम भोजपुरी

शीर्षक में प्रयुक्त अंतिम पद वह मनोवरोध पैदा करता रहा, जिसके कारण मैं भारोपीय की विकासरेखा की पड़ताल को टालता रहा। कारण मैं स्वयं भोजपुरिया हूँ । मन में यह आशंका थी कि कहीँ कोई ऐसा पूर्वाग्रह वस्तुपरकता पर हावी न हो जाय, जिसे मैं स्वयं भी लक्ष्य न कर सकूं और वह मेरे विचारप्रवाह को ऐसा मोड दे दे कि मैं उन साक्ष्यों को लक्ष्य करने से चूक जाउूं जिनसे निष्कर्ष प्रभावित होता है। यदि आपने बीच धारा में कहीं अटके छोटे से पत्थर या पेटी में बह कर आए किसी कुश को जड़ जमाते और उसके कारण प्रखर धारा में आए बदलाव को लक्ष्य किया हो तो विचार प्रवाह में मालूली चूक से आए भटकाव का अनुमान लगा सकते हैं। विचार में मामूली विचलन से भी भारी अनर्थ हो सकते हैं इसलिए वस्तु सत्य को देखते हुए ही नहीं, आत्मगत शिथिलता के क्षणों से बचते हुए ही हम सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।

यह सावधानी इसलिए कि पश्चिमी विद्वानों को, यदि हम धूर्त न मानें, तो उनमें से अधिकांश इसके शिकार हुए। गरज कि खीझ में नीयत में खोट का जो आरोप उन पर लगाया जा सकता है, वही आरोप मुझ पर भी लगाया जा सकता है।
यह भी एक कारण था जिसमें ‘जन जन जाँचत दीन ह्वै दर दर माँगत जाय’ वाली स्थिति पैदा हुई। जिसे भी देखता कि उसकी भाषा में रुचि है, काम करने की क्षमता है, आगे लंबा समय बचा है, हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता, भाई! तुम इसे समझो और इस काम को संभालो।

बहुमन्य और आत्मसीम पंडित आहत होते और आहत कर भी देते थे। सभी दिशाओं से निराश होकर ‘कर बहियाँ बल आपनी छोड़ पराई आस’ का सहारा लेना पड़ा। परन्तु यदि आपमें किसी को कहीं लगे कि स्वभाषा प्रेम से कातर होकर अमुक तथ्य को अमुक रूप में प्रस्तुत किया गया है, और अपने तथ्य और तर्क भी रखें, तो वस्तुपरकता के निर्वाह में सुविधा हो जाएगी।

किसी एक विषय की चर्चा के बीच यदि कोई दूसरा प्रसंग आ जाये तो, विषयांतर का खतरा तो बढ़ता ही है, यदि आप बहुत सचेत रहे, दोनों को अलग रखने का prytn किया तो भी जलरंग चित्रण में एक रंग के सटे पास में कच्ची अवस्था में दूसरे रंग में उतर आता है। चित्र में यह शायद गलत माना जाए, सटीक होने में भी यह बाधा पैदा करता है। पर जो सहज और स्वाभाविक है वह, हमारे लिए अग्राह्य, तर्क से सही भी हो सकता है। इसलिए हम उस मनोविज्ञान और वस्तुवाद पर भी चर्चा करते हुए आगे चलेंगे।

मैंने यह दावा करने का साहस इसलिए किया कि जिसे मैं उतनी ही स्पष्टता से जानता था जैसे यह कि मेरे हाथ में पांच उँगलियाँ है, जिसे कहने वाले दुनिया के सारे गणितज्ञ थे, संदेह या खंडन करने वाला कोई नहीं।
सबसे पहले ध्वनि नियम पर भरोसा करने वाले और उसके आधार पर मूल भाषा का चरित्र निर्धारण करने वाले इस नतीजे पर पहुंचे कि आदि भाषा में, उसे इंडो-यूरोपियन कहे, आर्य कहे, या हिंदी में भारोपीय कहें, ये सभी गढ़े हुए ठप्पे हैं, और इनसे वास्तविकता का पता नहीं चल सकता। ध्वनि नियमों से प्राचीन अवस्थाओं का पता लगाया जा सकता था। यहां भी एक सत्याभास था। क्योंकि भारोपीय ध्वनि नियम न तो द्रविड़ भाषाओँ पर लागू होते हैं, न दूसरे परिवारों की भाषाओँ पर ।

हमारा सरोकार भारोपीय क्षेत्र से है जिसमे ये नियम काम करते हैं और फिर भी भौतिक नियमों की तरह काम नहीं करते । पाणिनि ने भी इनकी सार्वदेशिकता को सीमित करते हुए अपवादों का विधान किया था और इसे ध्यान में रखते हुए रामविलास शर्मा ने ध्वनि नियमों की जगह ध्वनि प्रवृत्तियों का सुझाव रखा जो किसी की समझ में ही न आया। फिर भी हमारे बड़बोले उनको समझने की जगह उन्हें उखाड़ने पर लगे रहे, पर उनका जो न उखाड़ सके उसके बारे में मुहावरे तो हैं पर ऐसे कि जबान पर लाये न जा सकें । आदतन यही काम वे आज भी कर रहे हैं ।

ध्वनि नियम मानक भारोपीय भाषा की प्राचीन अवस्थाओं को समझने में सहायक थे और जब तक उनका निर्वाह किया गया, उसके निर्णय एक ऐसी भाषा की और इंगित करते रहे जो संस्कृत से पूर्ववर्ती थी और जिसमे घोष महाप्राण के पहले घोष महाप्राण ध्वनि का चलन था।

यदि ध्वनि नियम आप्त थे तो तलाश उस भाषा का या उस क्षेत्र का होना चाहिए था जहाँ वह नियम आज भी सक्रिय है। नियम वही थे, पहली बार लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया में ग्रिएर्सन ने स्वीकार किया कि आदि भाषा के लक्षण भोजपुरी या पूर्वी हिंदी में मिलते है। जरूरत थी कि इसे भारोपीय का उद्भव क्षेत्र मानकर भारोपीय के आदि रूप को समझने के लिए इसमें आदि भाषा के लक्षणों के अवशेषों का पता लगाया जाय, पर ऐसा नहीं किया गया।

बाद में चाटुर्ज्या को लगा कि बात तो सही है पर वह आर्य आक्रमण से इतने बंधे हुए थे कि उन्हें यह अजूबा बन कर रह गया। उन्होंने भी नहीं सोचा कि पुरानी मान्यताओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

पदों, सुविधाओं और लाभ से जुड़ा व्यक्ति हतचेत होता है। जैसे लोक कथाओं में राक्षस के प्राण दूर बैठे किसी सुग्गे से पास होते हैं उसी तरह उसकी चेतना की कंुजी उसके हाथ में होती है जिसके हाथ में ये सुविधाएं देने का तन्त्र होता है। एक बार उसी से बंध जाने और उसी सोच में ढल जाने के बाद वह सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता या करना ही पड़ा तो उससे डरता है। समरस समर सकोच बस पांव न ठिक ठहरात । यही स्थिति सुनीति बाबू की भी थी।

अच्छा हो हम फिर सस्युर को याद करें। उसने कहा, तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर जो कुछ किया जाता रहा वह एक षब्द क्रीड़ा थीः
In fact, from then on scholars engaged in a kind of game of comparing different Indo-European languages with one another, and eventually they could not fail to wonder what exactly these connections showed, and how they should be interpreted in concrete terms. Until nearly 1870, they played this game without any concern for the conditions affecting the life of a language.
पहली बात, लिखित भाषा भाषा नहीं होती, वह उसकी अधूरी प्रस्तुति होती है, भाषा अपनी वचनीयता में ही अपने आप्त रूप में आती है और इसलिए बोलियों का महत्व लिखित भाषाओं से अधिक हैं और उन्हीं के माध्यम से भाषा के विकास को समझा जा सकता है। यहीं आकर हमारी बोलियों का महत्व संस्कृत से अधिक बढ़ जाता है. जो इससे खीझता है वह अपने को मलिन दर्पण के रूप में प्रस्तुत करता है जो बाहर का बिंब ग्रहण नहीं कर सकता पर उसके लेप के बिम्ब को वस्तुसत्य मान सकता है।