बौद्धिक परनिर्भरता
गुलामी की समाप्ति के बाद अमेरिका में एक नई समस्या पैदा हुई। बहुत सारे मुक्त किए गए गुलाम अपने मालिकों के पास वापस आ कर यह फरियाद करने लगे कि उन्हें फिर गुलाम बना लिया जाय। कारण बहुत सीधा था, उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपनी आजादी का करें क्या? उनमें काम करने की शक्ति थी परन्तु पहल करने का साहस नहीं। वे जोखिम नहीं उठा सकते थे, जब कि यह आजादी की पहली शर्त है। वे गुलाम नही बनाए जा सकते थे इसलिए आज़ाद रहने को अभिशप्त थे। वे अल्पतम के साथ ही सही, सुरक्षित जीवन जीना चाहते थे, अनिश्चितता का सामना नहीं करना चाहते थे।
ऐसा बड़े पैमाने पर न हुआ । जो सामान्य रूप में घटित हुआ, वह था, अपनी अस्मिता की खोज, अपनों की तलाश, अपनी अफ्रीकी परंपरा का पुनराविष्कार, अपनी अलग ढंग की भाषा, अपना अलग चर्च, अलग उपासनाविधि, अलग पादरी । यह उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए भी जरूरी था और हीनता से मुक्त भविष्य के निर्माण में भी सहायक।
मुक्ति के बाद भी संपदा के स्रोतों पर उनका अधिकार नहीं हो सकता था। इसके अभाव में वे लाख कोशिश करके भी संपदा के स्वामियों की बराबरी पर नहीं आ सकते थे। अब भी उन्हें जीना पुराने स्वामियों की सेवा करते हुए ही था। सेवा करने वाला ऊंचे पदों पर पहुंच सकता है, अच्छा वेतन पा सकता है, अपनी योग्यता के कारण स्नेह और सम्मान भी पा सकता है पर बराबरी का दर्ज नहीं । उसके समक्ष वह सदा अर्धदास की तरह आचरण करेगा, इसका तीखा बोध उसे हो या न हो।
स्वतन्त्रता के बाद हमने किन क्षेत्रों में पहल किया है, किस अनुपात में किया है और उन्हीं क्षेत्रों में हमारे ही समाज में दूसरे देशों का कितना दखल है, इसका हमारी मानसिक मुक्ति से सीधा संबंध है। मिसाल के लिए भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति, पर हमारे इतने सारे विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थाओं के होते हुए कितना और किस स्तर का काम किया गया है और इन्हीं क्षेत्रों में दूसरे देशों के विद्वानों द्वारा कितना काम किया गया है इसकी तुलना करने चलूं तो उसके आंकड़े नहीं मिलेंगे, परन्तु यदि भारतीय विद्वानों द्वारा लिखे ग्रंथों में सन्दर्भग्रन्थों पर नजर डालें तो अनुपात कम से कम 1:9 का तो होगा ही ।
इसका प्रधान कारण है आत्मविश्वास की कमी, दृष्टिहीनता, आलस्य, अल्प से अधिक से अधिक नाम से लेकर सुख साधन तक जुटाने की लालसा। अतः न काम स्तरीय होता है, न उनमें व्यक्त विचारों को इस स्तर का समझा जाता है कि उनको उद्धृत किया जा सके।
इससे उन देशों का हमारे आन्तरिक मामलोें में हस्तक्षेप करने का अवसर बढ़ता है और आप उनके खिलौने बन कर रह जाते हैं।
यह मेरी ग्रन्थि मानी जा सकती है कि विदेशों में अपनी ख्याति तलाशने वालों को मैं विदेशी उपयोग के लिए अपने को समर्पित करने वालों से अधिक महत्व नहीं दे पाता। ऐसे अवसरों पर मुझे याज्ञवल्क्य-मैत्रायणी संवाद याद आता है कि दूसरा तुम्हेंशी तुम्हारे लिए (तुम्हारे गुणों के कारण) प्रेम नहीं करता, वह अपने लिए (तुम्हे अपने उपयोग की चीज समझकर) प्यार करता है।
वह इस चीज के लिए तुम्हारी तारीफ करता है कि तुम उसके पास आने के लिए, उस जैसा या वह जिनको पसन्द करता है उनके जैसा बनने को कितने लालायित हो या अपने समाज और देश को कितना पिछड़ा और गर्हित रूप में प्रस्तुत करते हो। यदि वह तुम्हारे समाज में तुम्हारा अपना बन कर प्रवेष करता है तो उसका लक्ष्य तुम्हारे देश या मत की सेवा करना नहीं है, वह तुम्हारा बन कर भितरघात करना चाहता है। इसके लिए साधन वह देश प्रदान कर रहा है जिसकी योजना के अनुसार वह काम कर रहा है।
जिन दिनों मन्दिर मस्जिद विवाद जोरों पर था दो ऐसे अमेरिका पोषित युवकों संघ से अपनी निकटता कायम की जो हिन्दुत्व प्रेम से कातर थे। एक प्राचीन वेद की भी जानकारी रखता था। उसने अपने ईसाई नाम के साथ हिन्दू नाम भी रख रखा था, दूसरा आधुनिक गतिविधियों का अध्येता। उन्होंने ढेर सारी सामग्री पुस्तकाकार प्रकाशित कराईं । मेरा दक्षिणपंथी संगठनों के प्रति उस तरह का कुत्सापूर्ण रुख कभी नहीं रहा जो मेरे अधिकांश मित्रों का रहा है, इसलिए मैंने उन्हें आगाह किया और एक दो बार मंच से भी सांकेतिक रूप में यह सन्देश दिया कि वे विघटनकारी भूमिका निभाने के लिए हिन्दुत्व प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं । दबे स्वर में कहा कि इनसे सावधान रहना चाहिए।
संघ के समझदार लोगों की भी समझ इतनी ही दूरी तय कर पाई कि देखो अब अमेरिका और यूरोप के विद्वान भी हिन्दुत्व की महिमा को समझने लगे हैं और हमारी नीतियों के प्रशंसक है। इसका परिणाम वाजपेयी जी के शासन काल में इनमें से एक को पद्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। मेरी समझ से यह एकमात्र ऐसा उदाहरण होगा जिसमें पद्म पुरस्कार किसी विदेशी को दिया गया। परन्तु इससे भी बड़ी बात यह कि मोदी सरकार के आने पर जिस सज्जन को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष बनाया गया उन्होंने इसकी सलाहकार समिति का भी सदस्य उस व्यक्ति को बना लिया। यह भी मेरी जानकारी में पहली बार हुआ होगा जब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की सलाहकार समिति में किसी विदेशी को रखा गया।
इंडियन एंटिक्विटी पर जिस सेमिनार में इसका अधिक प्रखरता से अनुभव हुआ उसका आयोजन भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद ने ही किया था। मुझसे संपर्क किया गया तो मैने प्रस्ताव देख कर बताया था कि मैं भाषा इतिहास और भारतीय चिन्तन पर हिन्दी में अपनी बात रखना चाहूंगा। इस पर उन्हें आपत्ति न थी।
सेमिनार के उद्घाटन समारोह में इसकी योजना के विषय में अध्यक्ष ने बताया कि उन्होंने कितनी सूझबूझ से इसका विषय निर्धारित किया है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था तो उन्होंने उस विदेशी विद्वान की सलाह ली और उसने इसके लिए सुझाव रखे।
विषय कोई हो, इसकी दिशा कौन तय कर रहा है? यह इतिहास किसके उपयोग में आएगा? कारण यह है कि आज का शासन संघ से निकले नेतृत्व के हाथ में है। मोदी ने इसकी पुरानी सीमाओं को तोड़ते हुए एक नई ओर व्यापक राष्ट्रीय दिशा दी जो उनके अब तक के कथन और कार्य में परिलक्षित भी है। परन्तु संघ ने अपने को सांस्कृतिक संगठन कहते हुए भी सबसे अधिक उपेक्षा संस्कृति की ही की है। इसने अध्ययन और ज्ञान की दिशा में कोई पहल ही नहीं किया । वह अपने विषाल काडर पर गर्व करता है।
राजकाज का संचालन करने के लिए बहुत अधिक ज्ञान की जरूरत नहीं होती। समझ की जरूरत होती है। इसीलिए दुनिया के अनेक सबसे सफल प्रशासक अल्पशिक्षित या अशिक्षित रहे हैं, परन्तु समाज और अर्थतन्त्र को दिशा देने के लिए उसके पास सुयोग्यतम व्यक्तियों की पहचान और उनका उपयोग करने की योग्यता उनमे थी. इस योग्यता की पहचान के लिए संकीर्णताओं से ऊपर उठना जरूरी है। इसका परिचय अभी तक नहीं मिला है।
अतीत का एक दुखद अनुभव यह रहा कि मार्क्सवादी सोच को विध्वंसकारी सोच बना कर उसके सुयोग्यतम व्यक्तियों के माध्यम से देश और समाज का अनिष्ट अधिक कराया गया और उसी से वह निर्वात पैदा हुआ जिसमें भाजपा का प्रवेश हुआ। इसलिए उनसे परहेज का पर्याप्त कारण था।
यदि संघ में शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से असाधारण प्रतिभाएं होतीं और वह उन्हीं से शिक्षा, संस्कृति और अनुसंधान के पदों को भरता तो यह आदर्श स्थिति न होती फिर भी, इससे शिकायत न होती। उसमें अध्ययनशील जनों का दारुण अभाव है इसलिए देश की ऐसी प्रतिभाओं की पहचान और उनके उपयोग की दक्षता तो उसमें होनी ही चाहिए जो किसी राजनीति से न जुड़े हों और अपने क्षेत्र के साथ न्याय कर सकें। जिन्हें हम अल्पशिक्षित या अशिक्षित परन्तु असाधारण सफल प्रशासक मानते हैं, उन्होंने अपने अभाव को इसी तरह पूरा किया था।
ऐसा न कर पाने के की अनिवार्य परिणति है अपने देश के शत्रुओं के हाथ में खेलना और इस बात पर गर्व करना कि देखो, हमें विदेशी परामर्शदाता मिल गए हैं। एक जमाने में नेहरू जी को भी विदेशी परामर्शदाता उसी अमेरिका से मिल गए थे जो उनको समझाने में सफल हुए थे कि भारत अपनी विशाल आबादी के कारण अपनी खाद्य समस्या को हल नहीं कर सकता। इसमें अमेरिका उसका सच्चा सहयोगी है जो पीएल 480 के द्वारा अभाव की स्थिति नहीं आने देगा। इससे जुड़े अपमान के अतिरिक्त इसके माध्यम से कूटनीतिक दबाव भी डाले जाते रहे । नेहरू जी के गुजरने के बाद शास्त्री जी ने पहली बार जै जवान जै किसान का नारा ही नहीं दिया इन दोनों मोर्चों पर काम भी करना शुरू किया। कृषि का बजट दूना कर दिया, खेती का क्षेत्र और सिंचाई सुविधाओं का ऐसा विस्तार किया कि उसके बाद सूखे की मार का भी अनिष्टकर प्रभाव नहीं पड़ा।