आग पिघली हुई ऐसी कि सम्भाले न बने
भाप के इंजन में एक बायलर होता था जिसके नीचे होता था अग्निकुंड या फायर बॉक्स. इसमें लगातार कोयला झोंक कर भाप के दबाव से इतनी शक्ति पैदा की जाती थी कि भाप की धार पहियों को वह गति दे सके कि वे इतने डिब्बों और उसमें भरे हुए माल या मुसाफिरों के भार को संभाले जाने कितने घोड़ों के सकल शक्ति से दौड़ सके. इंजिन को अश्वशक्ति से ही मापा भी जाता था. यदि बायलर में भाप का दबाव इतना बढ़ जाय कि वह सुरक्षित सीमा को पार कर जाये तो बायलर फट भी सकता था. इसके लिए एक उन्मोचक यन्त्र होता था . इसे स्टीम रिलीज़ कॉक कहते थे.
लिखना किसी भी ईमानदार लेखक के लिए यन्त्रणा से गुजरना और फिर भी उससे भी त्रासजक बेचैनी से मुक्त होने की प्रक्रिया है. लेखक स्वभाव से आलसी होता है. वह लिखने से बचना चाहता है परन्तु उसके भीतर संचित वाष्पीकृत आग से मुक्ति का एक ही उपाय है. लेखन के माध्यम से निकास का अवसर देकर ही उसे चैन मिल सकता है.
दूसरों की नहीँ जनता, कम से कम, मेरी स्थिति यही है. सोचकर लिखना या जैसा या जो हम लिखना चाहते है वही, और उसी तरह लिख पाना सम्भव हो सके तो लेखन निष्प्राण होगा. अपनी भाषा और दिशा वह आग स्वयं तय करती है और हमारी इच्छित योजना को तोड़ कर हमें निरुपाय सा बना देती है. इसके कारण रचना के क्षणों में हम अपना अविष्कार भी करते हैं और उस पर स्वयं चकित भी होते है.
प्रयत्नपूर्वक लिखना कष्टसाध्य भी है और यातना दायक भी, क्योंकि न इसमें भाषा साथ देती है न विचार. आनंद का न तो स्वयं लाभ होता है न इसे पढ़ने वाले को आनंद मिल सकता है. बहुत से लोगों का आग्रह है और यह जरूरी भी है कि मैं अपना एक जीवनवृत्त तैयार करूँ. कई साल से कोशिश में लगा हूँ. आज तक तैयार नहीं कर पाया. पकड़ में आने पर कुछ इस तरह जैसे अभी ICHR के एक सेमिनार के लिए देना पड़ा:
भगवान सिंह, जन्म 1 जुलाई 1931 ।
शिक्षा – हिन्दी साहित्य से एम.ए.
कभी किसी कालेज या विश्वविद्यालय में अध्यापन नहीं किया न ही इतिहास, पुरातत्व, नृतत्व, संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं या विभागों में काम किया।
सर्जनात्मक साहित्य और अनुसंधान कार्य में आरंभ से ही रुचि के कारण भारत की लगभग सभी भाषाओं का परिचयात्मक ज्ञान अर्जित करने और उनकी लिपियों का अभ्यास करने के बाद इनके आपसी संबन्धों को समझने के प्रयत्न में पाया कि इन सभी की निर्माण प्रक्रिया इतनी सर्वमिश्र है और इसके कारण ये एक दूसरे के इतने करीब है कि किसी को किसी अन्य पर आरोपित नहीं माना जा सकता न ही यह दावा किया जा सकता कि अपनी प्राथमिक अवस्थाओं में भी इनमें कोई इतनी शुद्ध रही हो कि उसमें दूसरे के तत्वों को न तलाषा जा सके । इन प्रश्नों से जूझते हुए वह भाषाविज्ञान, इतिहास, वैदिक वांग्मय और पुरातत्व और नृतत्व के अध्ययन और शोधकार्य में लगे रहे जिसकी कुछ झलक उनकी कृतियों से मिल सकती है:
इसके आगे प्रकाशित पुस्तकों का नाम.
पर इसे लिखना भी आसान नही. जीवन परिचय आत्मविज्ञापन है. मेरा प्रयत्न यह कि कोई गलती से मुझे विद्वान न मान ले. जो लिखा उससे अलग कुछ न था न कुछ हूँ , पर जो परिचय छपा उसमें मै प्रोफेसर बन गया . अक्सर डॉ बता दिया जाता हूँ. मेरा काम इसके बिना चल सकता है, उनका नहीं चलता.
मेरा आग्रह यह कि यदि आपको मेरा लिखा ठीक लगता है तो इसके लिए किसी पद या उच्च योग्यता की जरूरत नहीं. मात्र दृढ संकल्प, निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की आवश्यकता है जो रागद्वेषहीनता के बिना सम्भव नहीं. मेरे पाठकों में कोई भी यदि किसी एक क्षेत्र को चुन ले तो यह काम अधिक अधिकार से कर सकता है.
यदि ऐसा हो सके तो किसी लेखक की इससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं हो सकती कि वह अपने पाठकों में से कुछ को अपने से अच्छा लेखक या विचारक बना सका. अब तक की मेरी उपलब्धि यह है कि मेरे मित्रों में से कुछ के लेखन में पहले से अधिक सफाई आई है जो भाषा, विचार और साहस तीनो स्तरों पर दिखाई देती है.
परन्तु मैंने आज का यह पोस्ट जो लिखा उसे लिखने के लिए आरम्भ नहीं किया था, अपितु यह बताने के लिए किया था कि यदि लिखना सचमुच यन्त्रणा है तो भाषा पर काम चल ही रहा था फिर अपनी राष्ट्रीय पराश्रयी मानसिकता को क्यों ले बैठा. इसका उत्तर फायर बॉक्स में कोयला झोंकने वालों के पास भी न होगा जो अपने कारनामों से भाप का स्तर इतना बढ़ा देते हैं कि यदि स्टीम रिलीज़ कॉक का सहारा न लें तो अधिक बड़ी त्रासदी घटित हो जाय. इसे आज तो बयान न कर सका सम्भव है कल कर सकूँ.