Post – 2017-03-26

वर्चस्व, द्विभाषिता और विलय की समस्या
वे कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं, जिनमें अनेक प्रतिस्पर्धी बोलियों के बीच किसी एक ने, दूसरी बोलियों से अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर ली, और इसलिए पहले वह जिनकी बोली नहीं थी, वे भी उसे समझने और सीखने का प्रयत्न करने लगे? आदिम चरण पर जहां सभी बराबरी पर रही होंगी और उनको प्रभावित करने वाली संस्थाओं -राज्य, धर्म, व्यापार – का भी अभाव रहा होगा, किसी एक बोली की प्रधानता का कारण उस समुदाय के किसी मामले में दूसरों से आगे बढ़ जाने के कारण हुआ और इसे एक भाषाविज्ञानी(कोलिन रेन्फ्रू) ने कृषि विद्या में अग्रता माना है। कृषि और स्थायी निवास के मामले में सबसे पहले जिन स्थलों को सबसे पुराना पाया गया था वे सभी पश्चिम एशिया के उस क्षेत्र में पाए जाते हैं जिसे मोटे तौर पर उर्वर अर्धचन्द्र की संज्ञा दी गई। बाद की खोजों से जिन स्थलों का पता चला उनमें भारत के प्राचीन स्थल सामने आए और इसके बाद जैरिज ने यह निष्कर्ष निकाला कि पहला किसान भारतीय था और खेती धान की खेती से आरंभ हुई थी।
धान की खेती में अपनी अग्रता का दावा चीन भी करता रहा है, परन्तु हम उस झगड़े में न पड़ेंगे। हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि यदि कृषि में अग्रता के कारण उसकी विद्या के साथ भाषा का प्रसार हुआ तो भारोपीय अन्तर्कि्रया के क्षेत्र में यह अग्रता अब भारत के पक्ष में जाती है।
इसके पक्ष में कुछ और बातें हैं जिनको जातीय स्मृति पर आधारित माना जा सकता है। इन्हें हम निम्न रूप में पाते हैंः
1. भारत का यह दावा है कि खेती का आरंभ इसी ने किया, किसी अन्य से ग्रहण नहीं किया, पर साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि गन्धर्व या गंधार क्षेत्र यव की खेती में अधिक समृ) है। आज गंधार कंधार की याद से जुड़ा है परन्तु पहले यह पश्चिमी पंजाब और उससे आगे का क्षेत्र माना जाता था।
2. कृषिकर्म को याजिकीय शब्दावली में यज्ञ के माना गया है। यज्ञ का अर्थ उत्पादन होता है और इसके अर्थ की व्याप्ति बहुत अधिक है। इसमे प्रजावृद्धि से लेकर सभी प्रकार के उत्पाादन आ जाते हैं । परन्तु जिस यज्ञ सेे असुरों का विरोध था वह कृषिकर्म ही माना जा सकता है ।यज्ञ को स्थापित(संस्थित) करने, और फिर यज्ञ को कुछ और आगे बढ़ाने या(तन्वन), और फिर इसके विस्तार(विष्टार) का आशय हम क्रमशरू स्थायी कृषि, फिर उस क्षेत्र से आगे बढ़ कर नई भूमि को अधिकार में लेना और इसके बाद दूसरों को भी कृषिकर्म में प्रवृत्त होने को प्रेरित करना मानते हैं।
3. यज्ञ को संस्थित करने की समस्या का बहुत विस्तार से और अनेक स्रोतों में अनेक रूपों में जिक्र किया गया है। इसमें असुरों का आहार संचयी या नोट खसोट कर खाने वाला(स्वे स्वे आस्येषु जुह्वतश्चेरुः, शतपथ, 5.1.1.1) और निकम्मा(अकर्मा दस्यु अभि नो ) बताया गया है और सुरों को उत्पादक, दृढ़निश्चयी और उद्यमी। कृषिकर्म को देवों ने आरंभ किया, उन्होंने धरती परन्तु अपनी से बाज न आए। कृषिकर्म के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण सूचना यह है कि जो वन्य(प्रघास) रूप में उपलब्ध अन्न थे उन्हीं के उत्पादन से खेती का आरंभ हुआ। ये विवरण कृषि के आदिम प्रयोगों के पाच सात हजार साल बाद के हैं इसलिए इनमें व्रीहि और यव को वरुण प्राघास कहा गया है। वरुण का इस सन्दर्भ में आशय यह लगता है कि पहले इन घासों को तैयार होने से पहले नोचने चोथने पर रोक लगी, इसका वारण किया गया, और फिर बाद में स्वयं इनका उत्पादन आरंभ हुआ; काठक सं. 25.4.10)। जिनको इसका लाभ मिला, उन्होंने पाया कि इससे शरीर अधिक पुष्ट और नीरोग होता है – वरुण प्रघास से अनमीव और अकिल्बिष सन्ताने पैदा होने लगी।
4. इस अनमीव या नीरोग और अकिल्बिष या निष्पाप उत्पादन प;ति के कारर्ण इसके प्रसार के अभियान को आर्यव्रत कहा गया जिसके विश्व में प्रचारित करने की कथा भाषा के प्रचार से जुड़ी है । यह ज्ञान इस सदाशयता से इसलिए प्रसारित किया जा रहा था कि यदि हैवानियत में पड़े जनों ने उत्पादन आरंभ कर दिया तो लूट पाट बन्द हो जाएगी और उनका अपना संकट समाप्त हो जाएगा।
5. जिन लोगों ने खेती आरंभ की उनको देव या बरम कहा गया, और वह आदिम भाषा इन देवों के बीच ही प्रचलित थी, इसी क्रम में विकसित हुई और संभवतः दूसरों ने इसे देववाणी नाम दिया। देववाणी इस तर्क से संस्कृत और वैदिक की पूर्ववर्ती भले हो, इन दोनों से अलग थी और इसके भी विकास के कई चरण थे जिसके बाद यह संस्कृत बनी।
6. हमारी जातीय परंपरा में यह सूचना मिलती है कि देवों को अपने नये उपक्रम के कारण विवशता में इधर उधर भागना पड़ा और पश्चिमी परंपरा में जो भी जातीय स्मृति के आधार पर बहुत बाद में लिखी गई, कहा गया है कि पहले आदम देवों के लोक में रहते थे जो फलदार वृक्षों और वनस्पतियों से भरपूर था, जलधाराओं से भरापूरा था और वह वहां से निकाले जाने पर धरती पर उतरे। इसमें अरबों में सुरक्षित परंपरा में आदम गन्दुम खाने के अपराध में वहां से निकाले गए थे, या कहें खेती उनके निष्कासन का कारण बनी थी। पश्चिमी परंपरा में ईदन गार्डन या उल्लास और समृद्धि का उद्यान पूर्व में कहीं था। दोनों परंपराओं में यह अप्रत्याशित साम्य निर्णायक प्रमाण बन जाता है।
7. खेती देवों ने आरंभ की, कृषिकर्म में उनकी भूमिका प्रधान थी इसकी पुष्टि करने वाला एक उल्लेख यह भी है कि इन्द्र पहले जोत के मालिक थे और मरुद्गण कीनाश थे – इन्द्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतु कीनाशः आसन् मरुतः सुदानव । इसमें यह इंगित है कि बहुत प्राचीन अवस्था में भूमि पर अधिकार करने वाला एक स्वामिवर्ग अस्तित्व में आ गया था और उसने कृषिश्रम दूसरों पर लाद दिया था।
अब इन सूचनाओं के आधार पर हम तय कर सकते हैं कि वह आदि क्षेत्र कौन सा था जिसे भारोपीय की आदिम जननी का क्षेत्र माना जा सकता है।
बताया यह गया है कि चारों ओर से दुत्कारे भगाये जाने के बाद देव पूर्वोत्तर की दिशा में पहुंचे और वहां उनको असुरों के उपद्रव का सामना नहीं करना पड़ा इसलिए वहीं उन्होंने यज्ञ को संस्थित किया। इस कारण इस दिशा के दो नाम है। यहां पहुंचने पर असुर देवों को पराजित नहीं कर सके इसलिए इसका नाम अपराजिता दिशा है और इस दिशा में ही उन्हें ऐश्वर्य मिला, इसलिए इसका दूसरा नाम ईशानी है। परन्तु यह तय किये बिना कि इस बात का उल्लेख करने वाली कृतियां कहां रची गई हैं, उससे पूर्वोत्तर की दिशा और स्थान का निश्चय नहीं किया जा सकता।
यहां पहुंच कर भाषाविज्ञान की अपनी भूमिका आती है। सबसे पहले ग्रियर्सन ने इस बात को लक्ष्य किया था कि पूरबी हिन्दी में भारोपीय की प्राचीनतम ध्वनि घोष महाप्राण सर्वाधिक सुरक्षित हैं। सुनीति बाबू ने इसको दुहराते हुए इस पर आश्चर्य जताया था कि यह हुआ कैसे हो सकता है। कारण, वह स्वयं भी आर्यों के बाहर से आने के मत से सहमत थे। ऐसी स्थिति में पंजाब से होकर पूर्वोत्तर भारत आनेवालों की बोली की ध्वनिमाला में यह ध्वनि कहां से आ गई जब कि पंजाबी में यह पाई नहीं जाती। रामविलास जी ने आगरा इंस्टीट्यूट में उपलब्ध सामग्री के आधार पर इसका विशद तुलनात्मक अध्ययन सभी भारतीय भाषाओं को लेकर किया था और यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि इस क्षेत्र से उत्तर दक्षिण, पूरब पश्चिम किसी भी दिशा में बढ़ें तो ये ध्वनियां या तो क्षीण पड़ती जाती हैं, या लुप्त मिलती हैं।
पूरबी हिन्दी उसी क्षेत्र की भाषा को संज्ञा दी गई थी जिसे भोजपुरी कहते हैं। सुनीति बाबू ने बहुत पहले हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा होने का बहुत तर्कपूर्ण समर्थन किया था, परन्तु उनके इस सुझाव के कारण कि यदि इसकी लिपि रोमन कर दी जाय तो इसकी सर्वग्राह्यता बढ़ जाएगी और भोजपुरी को हिन्दी की बोलीध्भाषा कहने पर हिन्दी क्षेत्र के हिन्दी प्रेमियों ने उन्हें अपनी नजर से उतार दिया था। इससे उनका चित्त भी खिन्न हुआ था। आज फिर जब भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में जगह देने की मांग राजनीतिज्ञों द्वारा की जाने लगी है तो यह विवाद के केन्द्र में आ गई है।
हम पीछे ऐशानी दिशा के जिस कोने में कृषि के निर्बाध चल पाने और उससे अर्जित संगठित बल के बाद उसके कुछ आगे बढ़ने की बात कर रहे थे वह नारायणी के किनारे का वह क्षेत्र प्रतीत होता है जिसका संबंध बाल्मीकि से भी जोड़ा जाता है। मेरे पास एंसा सोचने का दो आधार है। एक तो यह कि और शालिग्राम की बटिया जो शिव और विष्णु दोनों की प्रतीक मानी जाती है, वह दक्षिण भारत तक इसी क्षेत्र की होती है।
धान की भूसी अलग करने का तरीका यह था कि छिल्के को नाखून से(नखैर्निर्भिद्य) अलगकिया जाता था और बाद में किसी शिला पर नही की धारा में घिस कर सुडौल हुए पत्थर से हल्के दबाव के साथ अलग किया जाता था और नीले पत्थर की बटिया इस दृष्टि से अधिक उपयोगी मानी जानी रही लगती है। पुराने उपयोगी साधनों को बाद में पूजा जाने लगा । यही शालिग्राम की पूजा का तार्किक आधार लगता है। बटिकाश्म होने के कारण इसका शिव के रूप में और नारायणी की धारा से उपलब्ध होने के कारण नारायण के रूप में इसकी पूजा होने लगी होगी । भुने हुए धान को दल कर उसका खीला अलग करके उस चूर्ण को ही पहले सत्तू के रूप में खाया जाता था जिससे सत्तू की पुरानी संज्ञा शालिचूर्ण का संबन्ध है।
यदि हमारा अनुमान सही है तो हम समझ सकते हैं कि कभी कभी सांस्कृतिक प्रतीकों का इतिहास भी बहुत दीर्घ होता है और भाषा को समझने में इनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
देववाणी
देववाणी को सामान्यतः संस्कृत का पर्याय मान लिया जाता है और इसकी मनोरंजक व्याख्याएं की जाती हैं। इनमें से एक यह कि संस्कृत भाषा में स्तुतियाँ हैं इसलिए इसका यह नाम पड़ा। एक कल्पना यह भी हो सकती है कि यह सृष्टि के पहले से विद्यमान है, परम पुरुष ने वेदों के ज्ञान के बल पर ही सृष्टि की अतः इसका यह नाम पड़ा। इस के आधार पर भाषाविज्ञानी एमेनो(Emeneau½) ने आर्यों के भारत पर आक्रमण का साबुत भी तैयार कर लिया। इसे उनके ही शब्दों में पढ़ें%
There seems to be no reason to distrust the arguments for it, in spite of the traditional Hindu ignorance of any such invasion, their doctrine that Sanskrit is the language of gods, and the somewhat schauvinistic clinging to the old tradition even to day by some Indian scholars. Sanskrit, “the language of the gods,” I shall therefore assume to have been a language brought from the Near East or the western world by the nomadic bands. Language and linguistic Area : Essays by Murray B. Emeneau, Selection and Introduction by Anwar S. Dill. Standard University press 1980, p.85
इस तरह के अर्थ करने वाले सभी लोग प्राचीन साहित्य के पंडित रहे हैं। उन्होंने उन कृतियों को भी पढ़ा होगा जिनमे इन बातों का बहुत निर्णायक स्वर में उल्लेख है किः
1. कृषि का आरम्भ देवों ने किया(अन्नं वै कृषिः, एतद्वै देवाः संस्करिष्यन्तः, शतपथ ब्रा.7.2.2.7 (इन्द्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतु, कीनाश% आसन् मरुतः सुदानव, तंः आसन् मरुतः सुदादव, तैत्तिरीय, 2.4.8.7) असुर उनके उपजाए धान्यों को नोचते, चुराते रहे(ये वनेषु मलिम्लवरू स्तेनास्तस्करा वनेः …)
2. देव और असुर इसी लोक में थे(देवा वा असुर अस्मिन्नेव लोकेषु आसन्)
3. देव संख्या में कम थे असुर बहुत अधिक थे (कनियसा इव हि देवा ज्यायसो असुराः, शतपथ ब्रा. 14.4.1.1)
4. ये दोनों एक ही प्रजापति की संतानें थे, (देवाश्च असुराश्च उभये प्रजापत्याः, शतपथ ब्रा. 1.2.4.8; 1.2.5.1 )।
5. दोनों के बीच घोर प्रतिस्पर्धा थी, वह स्पर्धा इसी धरती पर चलती रही(देवाश्च असुराश्च अस्मिन् लोके आसन्, काठक सं., 11.4.9; देवासुरा वा एषु लोकेषु समयतन्त, ऐतरेय, 22.6 )।
6. देव पहले आदमी थे(मत्र्या ह वा अग्रे देवा आसुः, शतपथ ब्रा. 11.2.3.6)।
7. देवों ने असुरों को पराजित कर दिया। उन्हें यह विजय शस्त्र के बल पर नहीं मिली , अपितु शाकमेध(कृषिकर्म) से मिली ।
8. बहुत पहले देव और मनुष्य साथ साथ रहते थे(उभये ह वा इदमग्रे सहासुर्देवाष्च मनुष्याष्च, शतपथ ब्रा. 6.8.1.4)।
9. जो पहले पैदा हुए वे देव थे; जो बाद में पैदा हुए वे मनुष्य कहे गए(प्राचीनजनना वै देवाः प्रतीचीन जनना मनुष्याः, शतपथ ब्रा. 7.4.2.40)।
8. बाद में देव कृषि उत्पाद पर अपना अधिकार कायम रखते हुए कृषि के श्रमभार से मुक्त हो गए। कारण यह लगता है की असुरों में से कुछ ने किन्ही विवशताओं में स्वयम भी खेती में काम करने का चुनाव किया। जिस क्षुधा निवारण के लिए देवोँ ने खेती आरम्भ की थी वह असुरों में प्रविष्ट हो गई(क्षुधं प्राहिण्वन् तां देवाः प्रतिश्रुत्यैः ओदनमपचन त्सा देवेषु लोकमवित्ता पुनरसुरान् प्राविशत, ततो देवाभवन…)
9. पहले जो काम वे करते थे अब मनुष्य करते हैं।(यथा देवानां चरणं तद्वा अनु मनुष्याणाम्, 1.3.1.1)उन्होंने जो जो जिस तरह किया था उसी तरह मनुष्य करने लगे।(देव विषाम वै कल्पमानाम मनुष्य विशाम अनुकल्पते) ।
10. इसमें बहुत लंबा समय लगा। युगों का अंतर है । देवयुग के बाद मनुष्य का युग आया। मनुष्य युग देवयुग से अधिक प्रबु) था(विप्रासो मानुषा युगा ),
11. जिन्होंने पहल की अर्थात जो पहले पैदा हुए वे देव थे और जिन्होंने उनके अनुकरण में कृषि को अपनाया, अर्थात जो जो बाद में आये वे मनुष्य हैं।(देवाश्च वा असुराश्च समवदेव यज्ञ अकुर्वत यदेव देवा अकुर्वत तदेव असुर अकुर्वत)।
12. देव युग में बकरा और गधा ही पालतू बनाये जा सके थे, मानव युग में गोपालन आरम्भ हुआ इसलिए देव जिस घृत का सेवन करते थे वह अजा से प्राप्त होता था और आज्य था मानव गव्य का प्रयोग करते हैं /आज्यं देवानां सुरभिः, ऐतरेय ब्रा. 1.3/; एतद्वै जुष्टं देवानां यदाज्यम्, शतपथ ब्रा. 1.7.2.10।
13. परन्तु वास्तविक स्वामी देव हैं इसलिए देवों का हिस्सा उनके पास पहुंचा देने के बाद ही मनुष्य कृषि उत्पाद का सेवन कर सकता है।
14. देवयुग सतयुग अर्थात आहार अन्वेषण और आखेट की अवस्था से आगे था परंतु मानुष युग से पीछे था। इसका भूमि को जोतने या खंरोच लगाने का औजार अर या अल जिससे आर्य और आरी और अरि तीनो शब्द निकले है एक नुकीला डण्डा था। फिर यह तलवार नुमा डण्डे में बदला जिसे स्फ्य की संज्ञा दी गई और लगता है उनकी अंतिम पहुँच सींग तक हो पाई थी(विषाणया भूमिं उपहन्ति उपकृषे )।
हम यह निवेदन करना चाहते हैं की अपने विकास के स्तर के अनुरूप ही रानटी या जंगली तो नहीं परन्तु उससे कुछ ही आगे बढ़ी देववाणी थी जिसका विकास कई चरणों के बाद संस्कृत में हुआ। भाषा और समाज का परस्पर और अपने इतिहास से क्या रिश्ता है इसे समझने में इससे कुछ मदद मिल सके तो मेरा लिखना सार्थक है।