Post – 2017-03-26

भाषा, इतिहास और भारतीय चिन्तन

इतिहास की पहुंच लेखन के आविष्कार की अवस्थाओं तक है, पुरातत्व प्रकृति के साथ मनुष्य के प्रभावकारी हस्तक्षेप से पहले नहीं जाता, परन्तु भाषा की पहुंच मानवजाति की उस आदिम अवस्था तक है जब मनुष्य अपनी रीढ़ सीधी कर रहा था। अतः भाषा हमारे अतीत के अन्वेषण को जिस प्राचीनता तक पहुंचा सकती है, वहां तक भूगर्भविज्ञान की पहुंच तो मानी जा सकती है, साहित्य और पुरातत्व की नहीं।
भाषा-पुरातत्व की सबसे अधिक भारत में है और इसकी सही समझ भारत की बोलियों और वैदिक की जानकारी के बिना असंभव है। भारत की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों के निर्माण में, किसी न किसी अनुपात में, सभी का योगदान है। यह तथ्य हमारी सामाजिकता और जातीयता की निर्माण प्रक्रिया को समझने में तो सहायक है ही, इतिहास और नृतत्व की दूसरी समस्याओं को समझने में भी सहायक है।
इतिहास की जो सबसे बड़ी समस्या इंडोयूरोपियन को लेकर खड़ी की गई और उसके नकली पूर्वरूपों की कल्पना की गई उसे भी हम भारतीय भाषाई परिवेष में ही हल कर सकते हैं। यहां हम इसको घुटनों चलतेे, बढ़ते, जवान और प्रौढ़ होते देख सकते है जिसके बाद मानक संचार भाषा बनती है, और फिर विषेष परिस्थितियों में उसका प्रसार पूरे भारोपीय क्षेत्र में होता है।
अन्यत्र इसके प्रभुत्व के कारण उन देशों और क्षेत्रों की भाषाएं दब कर रह गई। अधिक सही यह कहना होगा कि उनकी स्थानीय भाषाओं/बोलियों के प्रभाव से ही उस संचार भाषा के इतने भिन्न रूप हो गए कि एक की विचित्रता को ठीक उसकी पड़ोस की भाषा की सहायता से नहीं समझ सकते पर संस्कृत के सहारे समझ सकते हैं।
यह नियम भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर की भाषाओं पर ही लागू नहीं होता, भारत में भी हम आधुनिक और मध्यकालीन भाषाओं की भिन्नताओं को इसी नियम से समझ सकते हैं। परन्तु भारत में जहां हम आधुनिक भाषाओं और बोलियों की विषेषताओं को समझ कर संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया को समझ सकते हैं, वहां भारत से बाहर की कोई भाषा इसमें मददगार नहीं सि) होती। इसका कारण यह है कि वहां यह भाषा परिपक्व चरण के बाद पहुंची थी। पहुंचने के दो रास्तों के कारण उनमें कुछ अन्तर अवष्य है जिसे सतेम और केंटुम के रूप में चिन्हित किया गया था। कुछ मामलों में उनमें किसी में भी कुछ ऐसे प्राचीन लक्षण या प्रयोग पाए जा सकते हैं, जो संस्कृत में नहीं मिलते पर भारतीय बोलियों से उनकी पुष्टि होती है। और रोचक बात यह कि ये तत्व तथाकथित आर्यभाषा के नहीं हैं। आस्त्रिक और द्रविड़ के हैं। अतः जिन लोगों के माध्यम से उस भाषा का युरोप तक प्रसार हुआ था उसमें अपने निजी दायरे में दूसरी बोलियां बोलने वाले भी थे।
इसके रहस्य का उद्घाटन करने की तैयारी और योग्यता मुझमें नहीं है, फिर भी एक उदाहरण से मैं अपनी आषंका को प्रकट करना चाहूंगा। तमिल ओन्र का मतलब है सबसे छोटी संख्या। यह उस अवस्था की कल्पना है जब शून्य की कल्पना न हुई थी, इसलिए इसके दो अर्थ थे, एक तो सबसे छोटी संख्या और दूसरे कम । यह स्वयं ओम से कोई संबंध रखती है या नहीं यह भी अनुसंधान का विषय है। परन्तु कम के आषय में ऊन का प्रयोग और इसकी ओन्र से निकटता उलझन पैदा करती है। कंबन रामायण में ओन्रे ओन्नुम ओन्मैयान – वह एक है, एक मात्र है और एकमय है में ओन्र और ओं की अवधारणा में निकटता प्रकट करता है। सं. ओं – सबसे छोटा ;आदि रूप)ए ऊन – कम, और यूरोपीय भाषाओं मे यूनस ;यूनिट, यूनियन, यूनाइट)भी बचा रहा और उसका वह रूप भी जो द्रविड़ में बनता है अर्थात् वन।

ऋग्वेद, संस्कृत, बोलियां और आधुनिक भाषाएं
यह विचित्र लगेगा कि ऋग्वेदिक भाषा संस्कृत की तुलना में भारतीय बोलियों के अधिक समीप है और आधुनिक भाषाएं अपनी बोलियों की तुलना में संस्कृत के अधिक निकट हैं। यही त्रासदी पालि और प्राकृत के साथ भी घटित हुई थी। वे महिमा और स्वीकार्यता की तलाष में संस्कृतमय होती हुई सामान्य व्यवहार से विदा हो गईं।
इतिहास की वे समस्यायें जो भाषावैज्ञानिक आधार पर खड़ी की गईं और जिनको अपने अनुकूल परिणाम के लिए भाषाविज्ञान को ही तोड़ मरोड़ कर उसके सांस्कृतिक सारतत्व को नष्ट कर दिया गया । उन्हें भारतीय भाषासंपदा के सही विवेचन और उस पूर्ववर्ती अवस्था की खोज से ही दूर किया जा सकता है जिसकी ओर अभी तक किसी का ध्यान इसलिए नहीं गया कि हमने नए विचार और अनुसंधान के काम को पाश्चात्य जगत पर छोड़ दिया है। उनसे अनमेल पड़ने वाली या उनके द्वारा उपेक्षित दिशाओं में काम करने को न अपने वश का मानते हैं, न जरूरी समझते है। इसे बदल कर कहें तो पहल के मामले ने पश्चिम ने पहले उपनिवेष रह चुके देशों मे अधिक सक्रियता इस इरादे से दिखाई है कि वह इनको अपनी दबोच से बाहर न निकलने दे।

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भाषा का मूलाधार
भाषा श्रुत ध्वनियों का उच्चारण है। जो सुन नहीं पाते, वे बोल नहीं पाते। इसका आरंभ अपने परिवेश की ध्वनियों से हुआ। जिस वस्तु या क्रिया से कोई ध्वनि उत्पन्न होती है, वही उसकी संज्ञा हो गई । इसे बहुत पहले यास्क के भी पूर्ववर्ती उपमन्यु ने सुझाया था । सभी विद्वान मानते हैं कि हमारी भाषाओं के बहुत से शब्द अनुनादी हैं । जिस प्राणी या वस्तु से जो ध्वनि निकली वही, या उसे जिस रूप में हमारी श्रवणेन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया गया उसका उच्चारण ही उसकी संज्ञा हो गई।
सवाल वहां पैदा हुआ जब उनका सामना वस्तुजगत और भावजगत की ऐसी सत्ताओं से हुआ जिनसे स्वतः कोई ध्वनि पैदा होती ही नहीं। एक और कठिनाई यह कि इस तरह तो हमें केवल कुछ संज्ञाएं और क्रियायें ही मिल सकती थीं। भाषा का इतना जटिल ढांचा तो तैयार हो ही नहीं सकता था। इसलिए उन्होंने हार कर मान लिया हमारी भाषा के केवल कुछ शब्द ही अनुनादी हैं, शेष भाषा की उत्पत्ति रहस्यमय है।
हम पाते हैं कि कुछ शब्दों और क्रियाओं का ही नहीं समूची भाषा का विकास प्रकृति में उपलब्ध ध्वनियों से हुआ है। नाद के प्रथम चरण पर वस्तु-क्रिया-ध्वनि का संबंध पारदर्षी रहता है, उस ध्वनि का आर्थी और रूपगत विकास उससे सीधे नहीं जुड़ पाता। पत् पत्ते के गिरने की ध्वनि है और इससे पत्ते को यह संज्ञा मिली हो सकती है। पर वह क्रिया, अर्थात् पतन, पातक से न ध्वनि निकलेगी न उसका अनुनादी संबंध दिखाई देगा। यह दूरी पत्तल, पटल, पाटल, पट, पाट, पात्र, पाटरी के साथ अदृष्य होती चली जाएगी। यह पहचान भारत में हो सकती है जहां, पत् की ध्वनि और यह शब्दषृंखला जीवित है, अंग्रेजी या यूरोप की भाषाओं में इस माला के एक दो मनके, जैसे पेटल, पाटरी, मिल जाएंगे जिनका ध्वनि से संबंध न जोड़ा जा सकेगा। इसी तरह पद् पांव रखने से उत्पन्न ध्वनि से जुड़ी शब्द षृंखला को लें – पद, पदाति, पथ, पथ्या, पाथेय, पादप, पदाति, पथ्य, पद- कविता का चरण, पद्य आदि में पारदर्षिता मिलेगी। यूरोपीय संन्दर्भ में, मिसाल के लिए अंग्रेजी में फुट, पेडेस्ट्रियन, पेडिल, में इसका क्षीण आभास मिलेगा। इनके संबंध को अनुनादी मूल से हट कर ध्वनिनियमों से समझने की विवषता पैदा होगी, जब कि ऐसा कोई नियम होता ही नहीं, प्रवृत्तियां होती हैं और इनका तर्क भी अनुनादी स्रोत को समझने के बाद ही स्पष्ट हो सकता है।
भाषा अव्यक्त को व्यक्त करने का काम करती है और अनुपस्थित को उपस्थित करने, अघटित को अपने माध्यम से घटित कराने की क्षमता रखती है और इस तरह यह एक समानान्तर सृष्टि है।
भारतीय चिन्तन में जल से ही समग्र सृष्टि हुई वही क्षर और अक्षर है और उसी वाणी की उत्पत्ति हुई । ऋग्वेद के भाषाचिन्तक ने सबसे पहले इसे अनुभव किया था। इसमें महाशक्तिशाली वाणी, वागम्भृणी, कहती है कि इस द्यौस् पितर अर्थात् समस्त ब्रह्मांड को मैंने जना है, मेरी योनि या मेरी उत्पत्ति स्थान समुद्र के गर्भ में, पानी में है, अहं सुवे पितरं अस्य मूर्धनि, मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे । वाणी की उत्पत्ति जल की विविध ध्वनियों से। इसकी एक विचित्र व्याख्या ऐतरेय ब्राह्मण में हैः वाग्वै समुद्रो न वै वाग्क्षीयते न समुद्रः क्षीयते ;ऐत. 1.23)। यह वाणी की अनन्तता का स्वीकार तो है ।

जल के नाद अर्थविस्तार और भाषा
जल से प्रकाष, अंधकार, ज्ञान, अज्ञान, पवित्रता और मलिनता, गति और स्थिति, तुच्छ और महत, खाद्य, पेय और इन्द्रिय ग्राह्य, सभी अनाजो, सभी आर्द्र पदार्थों, सभी जलभंडारों या धाराओं, पत्थर से लेकर जल तक की स्थितियों, गोपन और उदघाटन, धन के सभी रूपों, कामनाओं और वर्जनाओं के लिए शब्द निकले हैं। मोटे तौर पर कह सकते हैं, जिस भी उपादान, गुण, धर्म, क्रिया या सत्ता से स्वतः ध्वनि नहीं पैदा होती उनको अपनी संज्ञा जल के किसी पर्याय से मिली है और ये पर्याय जल से उत्पन्न अनन्त ध्वनियों से संबंधित हैं। मुझे बहुत संक्षेप में आपको अपनी बात समझाने में दिक्कत होगी, क्योंकि इसके लिए आप स्वयं पूरी तरह तैयार न होंगे। यह सोच ही आपको कुछ अटपटी लग सकती है। फिर भी एक दो उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयत्न करूंगा।
पर्/प्र, पल्/प्ल का अर्थ पानी है। प्र-वण, प्लवन आदि से यह बात समझ में आ सकती है। परु/परि गांठ, आवर्त, पर्व – गांठ, पर्वत का एक अर्थ बादल है तो दूसरा पहाड़। यह प्र आगे, अधिक या विषेष को व्यजित करने वाला उपसर्ग बनता है, परं/परम – सर्वाधिक को ध्यक्त करने वाला उपसर्ग बनता है और इसी तरह परि सबको समाहित करने का आषय प्रकट करने वाला उपसर्ग बनता है। उपसर्गों के बारे में कहा जाता रहा है कि ये किन्ही शब्दों के घिसे हुए रूप हैं। हम पाते हैं, ये पूरे शब्द हैं और जल की ध्वनियों पर निर्भर हैं। अब इसी तरह दूसरे उपसर्गों की जांच की जा सकती है।
जल से प्रकाश का संबंध इस नाते जुड़ता है कि जल आदि दर्पण है। इस पर सभी रंग, रूप, लाल, नीली, पीला, हरा, काला सभी दिखाई देते हैं, और प्रकाश भी फूटता है। इसकी कोई न कोई संज्ञा सभी रंगों की द्योतक है। यही वह तर्क है जिसमें अक्तु का अंधकार, आवृत या रात तक अर्थ हो सकता है और ज्योति या प्रकाश भी। अग्नि के संबंध में ऋग्वेद में कहा गया है, इसका जन्म पानी से हुआ, समुद्रो अस्य योनिः । अद्भ्यो वा एष ;अग्निः) प्रथमाजगाम्, शतपथ ब्रा. 6.7.4.4 । बिजली पानी की ज्योति है: विद्युद्वा अपां ज्योतिः, शतपथ ब्रा. 7.5.2.49 ! अब हम किसी भी रंग को लें, उसके साथ एक जलवाची शब्द याद आ जाएगा। ज्वल के साथ जल का, लाल के साथ लाला का, नील के साथ नीर का, पीत के साथ पीतु का, हरित के साथ हरि का, अरुण/अरुष के साथ अर/अल/अरु का, इत्यादि।

भारतीय भाषाओं का अन्तर्गुफन
हम आग के लिए तमिल में परिरक्षित ‘ती’ और उसी में प्रयुक्त ‘ती’ अर्थात पानी, मीठापानी को लें। वह ती जिसका अर्थ आग भी है और मीठा पानी भी वह तमिल में वैदिक और संस्कृत की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है। जैसे रस सरस या मीठा के लिए प्रयोग में आता है, उसी तरह ती भी मीठे पानी के लिए प्रयोग में आने लगा। यह तेलुगु में तिय्यन – मीठा या स्वादिष्ट का जनक है और भोजपुरी के तिउना/तेवना या वह स्वादिष्ट पदार्थ जिसके सहारे रूखे सूखे भोजन को गले के नीचे उतारा जा सके। अंग्रेजी में कैचअप जिस आशय में प्रयोग में आता है और हमारी अपनी भाषा में जिसको चटनी कहा जाता रहा है।
हम मान सकते थे कि ती – आग सं. दी का तमिल ध्वनिसीमा में ग्रहण है। संस्कृत में दी प्रकाश ज्ञान आदि के आशय में प्रयुक्त तो होता है, पर आग के अर्थ में मात्र व्यंजित होता है, दीपक, दीपन, देवन और परिदेवन या पश्चात्ताप के आशय में ती पहली नजर में दिखाई ही नहीं देता। पर तभी पता चलता है दिवस के साथ तिथि भी है। दाहकता के आशय में तेज भी है। जलन अनुभव करने के लिए तिलमिलाना भी है। कहने को कह सकते हैं कि आग के लिए संस्कृत में अग्नि है इसलिए यह मूलतः द्रविड़ शब्द हो सकता है, पर तभी तमिल नेरुप्पु – आग की याद आ जाती है जिससे यह उसका भी मूल शब्द नहीं रह जाता। पर किसी एक किसी वस्तु के लिए किसी शब्द को एकमात्र शब्द मान
हमने ‘ती’ ध्वनि के ‘दी’ , ‘धी’ में बदलते और यूरोपीय संदर्भ में ‘दी’ , ‘जी’ , ‘थी ‘ में बदलते देखा वह मूलतः किस भाषा का शब्द था जिसे दूसरों ने अपनाया यह तय करना भी आसान नहीं है। जिस तरह अघोष अल्पप्राण और अनुनासिक ध्वनियों वाला समुदाय है जिसमें घोष और महाप्राण ध्वनियां नहीं मिलतीं, उसी तरह संभवतः घोषमहाप्राण प्रेमी समुदाय में अघोष अल्पप्राण ध्वनियां न रही हों, इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। कहे ध्वनिमाला का निर्माण सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा है और यह इस बात का प्रमाण है कि रेस या नस्ल जैसी किसी चीज की भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती। शूद्र और ब्राह्मण में इस मामले में कोई फर्क नहीं किया जा सकता। अब हम पाते हैं कि बोलियों में मिलने वाले रूप दीखना, दीठि, दिठौना सं. दृष्यते, दृष्टि आदि के तद्भव नहीं रह जाते, ये मूल शब्द आषय और ध्वनिप्रकृति के अव्याहत प्रवाह को प्रकट करते हैं।
अब हम उस तीसरे भाषाई समूह को लें जिसका संस्कृत पर कम परन्तु बोलियों पर काफी प्रभाव पडा। यह वह समुदाय है जो दन्त्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। उसने ठीक उन्हीं अर्थों में जिन शब्दों के तकार का टकारयुक्त उच्चारण किया वे तो बचे न रहे, क्योंकि प्रतिस्पर्धा में दो में से एक का ही ठहरना संभव था परन्तु जो नई व्यंजनाएं टकार के साथ आईं और जिनमें भी ताप, ज्ञान, प्रकाश आदि का भाव था उन पर दृष्टि डाली जा सकती है।
ये हैं टीक/स-टीक/ ठीक, टीका, टिकुली, टिकिया, टिकोरा, टिकठी, टीकुर – सूखी भूमि, जलमग्न क्षेत्र के आगे का भाग, टिकरी, टिमटिमाना, टिप्पणी, संभव है अंग्रेजी कम टिक के अनेक अर्थो में एक का स्रोत ठीक से हो, टिकरी – तवे की जगह सीधे आग पर सेंकी जाने वाली रोटी, भोज। टेम- दिए की लौ ।
इस तरह हम पाते हैं कि भारतीय भाषा परिधि में चार प्रभावशाली समुदाय बहुत प्राचीन काल से सक्रिय दिखाई देते हैं, एक जिसमें घोष महाप्राण का अभाव था, दूसरा, जिसमें इसके प्रति विशेष अनुराग था और तीसरा जिसके प्रभाव से मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश हुआ और एक चैथा जो तालव्य ध्वनियों के प्रति विशेष रुझान रखता था। जिसके प्रभाव से चित, चित्र, चिता, चिति, चैत्य, चिंता, चिन, चिनचिनाना, चिनार, चिन्ह, आदि, का जनन हुआ।