जन भाषाएं और मानक भाषाएं
हिन्दी प्रदेश भाषाई प्रदेश नहीं है, सांस्कृतिक प्रदेश है। इसमें न जाने कब से ऐसा गहन जुड़ाव है कि कुछ समय के लिए किसी विशेषता के कारणइसकी कोई] एक बोली सभी को इतनी स्वीकार्य हो जाती है मानो वह उसकी अपनी भाषा हो।
डिंगल के साथ] ब्रज के साथ] अवधी के साथ] मैथिली के साथ ऐस हमारी जानकारी में हो चुका है इसे लोग समझ लेते हैं, कई बार कंठस्थ कविताओं के माध्यम से सीखी हुई भाषा में स्वयं रचना भी करने लगते हैं और उन रचनाओं को उस क्षेत्र के लोग सराहनते भी हैं परन्तु उन बोलियों या भाषाओं का अपना रंग बना रहता है। इस क्रम में उस सर्वस्वीकृत भाषा के कुछ शब्द उन बोलियों में उनके अपने शब्दों के समानान्तर जगह बना लेते हैं और पद्य रचना में मात्रा या तुक की सुविधा से प्रयोग भी कर लिये जाते हैं। परन्तु इससे न तो उनके अपने मानक प्रयोग बाहर चले जाते हैं] न भाषा के चरित्र और व्याकरण पर प्रभाव पड़ता है।
तात्कालिक जरूरतों से जो विकल्प सुविधाजनक लगता है वह सबसे वांछनीय नहीं होता, कई बार घोर अनिष्टकर होता है। आप जानते हैं हड़प्पा की पुरा संपदा को बहुत कुछ आसपास के लोगों द्वारा उसकी ईटें चुराने और फिर एक इंजीनियर को रेल लाइन के लिए बैलेस्ट के पत्थर की जगह इन ईंटों को बिछाने की चालाकी के कारण खोद कर नष्ट कर दिया गया था।
यहां दो बातें को रेखंकित करना जरूरी है। एक तो यह कि जिन रचनाओं के प्रभाव से एक भाषा इस पूरे सांस्कृति एकबद्धता वाले बहु भाषाई क्षेत्र में लोकप्रिय हुईं और और उनके माध्यम से एक सीखी हुई भाषा में अन्यत्र भी रचनाएं होने लगीं] उनमें उनका शतांश भी नहीं आ पाया था और इसलिए साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से सीखी हुई भाषा के माध्यम से हम किसी भाषा की ऊपरी पपड़ी तक ही पहुंच पाते हैं, उस भाषा के वैभव को नहीं समझ पाते और अपना भी बहुत कुछ उस पर अतिरिक्त निर्भरता के कारण खो बैठते हैं। भाषा की गहरी समझ अपनी भाषा की गहरी समझ से अनिवार्य रूप से जुड़ी है और उसके ज्ञान के कारण ही हमें इस क्षेत्र की किसी भाषा में कुछ तुक ताल मिलाते हुए भी वह अकिंचनता नहीं अनुभव होती जो अपनी भाषा या बोली से पूरी तरह कट जाने पर होती । भाषा के वाचिक अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रहती] यह एक गहन संस्कार है जिसके अनेक पहलू हमारी पकड़ में नहीं आते हैं।
हिन्दी का इतिहास बहुत छोटा है। अधिक से अधिक दो तीन सौ साल का। जिस बोली को इसने आधार बनाया उसका और इस परिवेश में आने वाली अन्य भाषाओं का इतिहास कितना लंबा है इसका सही अनुमान हम नहीं लगा सकते। मेरे अपने आकलन में कम से कम दस हजार साल पर अधिक से अधिक का कोई अनुमान मेरे पास भी नहीं है।
हिन्दी ही की भांति पालि, प्राकृत, अपभ्रंश भी किसी बोली के एकाएक महत्व में आ जाने के कारण रूपान्तरित हो कर एक मानक भाषा बन कर सर्वत्र फैल जाने वाली कुछ शताब्दियों तक जिन्दा रहने वाली भाषाएं थीं जिनसे न तो उस बोली के वास्तविक चरित्र का पता चलता है जिसको इनका आधार बनाया गया था न ही उन क्षेत्रों की बोलियों का पता चलता है जिनमें इनको लोकप्रियता मिली और फिर काव्य रचनाएं होने लगीं या नाटकों आदि में कुछ स्थान मिलने लगा। सभी को एक ही रास्ता अपनाना पड़ा। संस्कृत से शब्दसंपदा उधार लेते लेते संस्कृत की छाया बन बर अनुर्वर भाषाओं में बदल जाना। संस्कृत स्वयं भी बहुत उर्वर भाषा नहीं है। मेरा तात्पर्य है, उसमें वह लोच, वह छूट, वह मिठास नहीं है जो बोलियों या जनभाषाओं में अभी तक सुरक्षित है। अब हम कह सकते है कि मानक भाषाएं माननीय या पढ़े लिखों की भाषाएं है और जनभाषाएं अनपढ़ जनता की भाषाएं है. एक आकाशवेली है तो दूसरी अपनी जड़ों से जुडी और उसी से पोषण ग्रहण करने वाली. एक स्वल्पजीवी है तो दूसरी कालातीत .
अपनी ही बोलियों की प्रतिस्पर्धा में हिंदी अकिंचन है, यह बात बहुतों को खलेगी, क्योंकि वे समृद्धि को केवल अकड़ तक सीमित मानते हैं। फिर भी संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसने भाषा की इंजीनियरी को उप पूर्णता तक पहुंचाया कि हम दार्शनिक और तकनीकी जरूरतों के अनुसार उसकी शब्द संपदा को सीधे अपना सकते हैं, नए शब्द गढ़ सकते हैं और यह काम विविधि अनुपात में बोलियों ने भी किया है जिससे लोग अक्सर भ्रम में पड़ जाते हैं कि हो सकता है बोलियां संस्कृत से ही निकली हों। यह उतना ही गलत है जितना हिन्दी में फारसी अरबी या अंग्रेजी के शब्दों के प्रचुर व्यवहार केा कुछ समय तक चलने दिया जाय तो कोई ज्ञानी यह सुझा दे कि बोलियां फारसी, अरबी या अंग्रेजी से निकली हैं।
+++++++++++++++++++++++
हमारी समस्त भाषाओँ में कुछ साझेदारियां हैं जो अखिल भारतीय हैं और मान्य भाषापरिवारों की भी सीमाएं लाँघ जाती है, इनके दायरे छोटे होते जाते है और सघनता बढ़ती जाती है. यह इस कारण है की सभी में सभी के तत्व पाए जाते है. यहां तक की बोलियों उपबोलियों तक में इतनी मिलावट दिखाई देती है कि एक बार को लगे कि ये कई के मिलने से बनी है. सभी में कुछ ही तत्व है जो उनको एक पृथक भाषा सिद्ध करते है. इनमें मुख्य है इनका व्याकरण और आजतक बची रह गई शब्द सम्पदा. व्याकरण के विषय में विवाद नहीं हो सकता. बचा रहता है उनका संगीत या उच्चारण की रीति और शब्द सम्पदा.
यहां हम भोजपुरी में प्रयुक्त कुछ शब्दों की और संकेत करूंगा जो हिंदी से भिन्न है ये नमूने मात्र सांकेतिक है. जो जहन में उत्तर आये उन्हें लिख दिया . इस बात की भी जाँच न की कि इनमें कितने ऐसे है जिनकी कोई अन्य व्याख्या हो सकती है. मैं इस भ्रम के विरुद्ध खड़ा हूँ कि कोई सर्वज्ञ है. कि जो सरे शास्त्रों का ज्ञान न पा सके वे सुनते रहें, बोलने का अधिकार शास्त्र रट कर मनुष्य से स्टोरेज चैम्बर में बदल चुके लोगों का है. मैं subaltern history की जगह सबाल्टर्न आइडियाज के चुनाव का प्रस्ताव रखता हूँ. अंतर किस मामले में है? अभीतक वे प्रमाण या स्थापनायें रख कर उनपर सही होने की चुनोती देते थे आज हम उनके शास्त्र को ठुकराते हुए उनसे अपने सवालों का जवाब मांगते हुए उनको अपने निष्कर्षों पर सही उतरने की चुनौती देते है और इसमें उनके विफल होने पर अपने निष्कर्ष को तब तक के लिए अकाट्य मानते है जब तक उनका खंडन न हो जाए :
मटर – केराव, गुड़ – भेली,चना – रहिला, गेहूं – गोहूँ (संस्कृत गोधूम, तमिल कोदुमई),. ततैया – हाडा, बर्र – हांडी, घोंसला – खतोना, लाल चींटा – माटा, झोंझ – माटे का छत्ता, गलकंठ – घेंघा, . सीप- सितुही, कीचड़- चह्टा, . उलटी- ओक्काई, दीमक – देवंक, कंकड़- अंकटा कंकड़ी- अंकटी, खटमल – ऊंडूस, कंकड़ – अंकटा कंकड़ी- अंकटी, शक्तिशाली/ बलवान -बजिगर/ बरियार , दूध उबालना- औँटल, खलना- अखरल, कुआं – इनार, सिसकना – अहकल, उलझना – अझुराइल, उलीचना – उदहल, उबटन- बुकवा, झूमते हुए चलना- मेल्हल, उबालना- उसिनल, आवारा-लखेरा, भीगा हुआ – ओद, एक ओर को झुक हुआ – ओरमल, निकालना- काढल, खुरदरा- खदबिद्दर, अच्छा – मजिगर, छींका – सिकहर, सारा – सज्जी, देर- अबेर, कहाँ- कत्तें, गोस्त- कलिआ, लालायित – छुछुआइल, ठंडा पड़ना – कठुआइल, झेलना- सेहल, कंगन- गुजहा, लेटना- ओठंघल, पेट में ऐंठन होना- अवड़ेरल, भोजन- खैका, चमड़ी -खलरी,
अब हम शांति से सो सकते है.