बौद्धिक दिव्यांगता
सरकार आज कल काला मोतिया के प्रति जागरूकता बढ़ाने और समय रहते इसका उपचार कराने के लिए लगातार विज्ञापन दे रही है। कायिक अंधेपन को आसानी से पहचान लिया जाता है इसलिए इसके प्रति लोग सचेत भी हो जाते हैं और दूर भी करना चाहते हैं, परन्तु मानसिक अन्धेपन की स्थिति उल्टी है। लोग प्यार में अन्धा होने का जतन खुद करते हैं, कवि लोग इसकी महिमा में कविताएं और कहानीकार कहानियां लिखते है, गरज की हमारे बौद्धिक स्वयं अपनी ओर से इसे बढ़ावा देने को पागल रहते हैं।
क्रोध में अंधा होने भी मुहावरा चलता है परन्तु यह क्षणिक अन्धापन है, इसमें जितना भी उल्टा सीधा कोई आदमी कर बैठता है उस पर बाद में पछताता भी है, परन्तु नफरत में अंधा होने पर न तो कोई मुहावरा बना है, न यह क्षणिक होता है। यह प्यार के अन्धेपन से भी अधिक गहन होता है। इसको प्रचार से पैदा किया जा सकता है।
मजहबों का जितना रिश्ता धर्मग्रन्थों में विश्वास से है उससे अधिक रिश्ता उस विश्वास से बाहर पड़ने वालों से हुआ करता है। नकचढ़ी शिक्षा प्रणाली में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए इसे शिक्षा का अंग बना दिया जाता है और जहां यह नहीं बनाया जाता वहां भी मूल्य प्रणाली के प्रति विरक्ति इस हद तक पैदा कर दी जाती है कि आप कुछ शब्दों विचारों, मान्यताओं से इतनी घृणा करने लगते हैं कि उसका धनात्मक पक्ष आपको दिखाई ही नहीं देता। अंग्रेजी शिक्षा और द्रवीकृत क्रिस्तानी मूल्य प्रणाली ने अपने से भिन्न शिक्षा माध्यमों और मूल्य प्रणालियों के विषय में यही किया है।
घृणाजनित अन्धता इतनी संक्रामक होती है कि पूरी की पूरी पीढ़ी ग्रस्त हो जाती है,यही सोच कर मैंने वह लेखमाला आरंभ की थी कि मैं अपने सुशिक्षित समाज को यह समझा सकूंगा कि वे कुशिक्षित हैं, व्याधिग्रस्त है, अपनी व्याधि से इस हद तक प्यार करने लगे हैं कि उससे छुटकारे तक से घृणा करने लगे हैं, क्योंकि छुटकारा पाने का मतलब है, जिससे घृणा करते हैं, उस जैसा हो जाना, या उसको सहन करने की आदत डालना।
पीड़ा होती है इस स्थिति पर। पूरी की पूरी एक पीढ़ी का दिव्यदर्शी हो जाना अपने को भी उन्हीं कुपरिणामों का पात्र बनाने जैसा है जिनके भुक्तभोगी वे बने रहे हैं, क्योंकि कार्यक्षेत्र की समानता होने पर लोग भेद नहीं कर पाते।
मोटे तौर पर यदि हम समझाना चाहें कि वे क्या नहीं देख सके जिससे असंख्य लोगों को असंख्य रूपों में लगा कि समचमुच अच्छे दिन आ गए हैं और अपनी कुशिक्षा के पर गर्व करने वाले बुद्धिजीवी व्यंग्य करते रहे कि अच्छे दिन कब आएंगे।
अच्छे दिन बुद्धिजीवियों के भी आ सकते थे, यदि वे बुरे और बदनाम लोगों के साथ, देश का अहित करने वालों के साथ, शत्रुदेशों के साथ इतने संसक्त न हो जाते कि अपने ही देश, समाज और इतिहास से इस हद तक विरक्त हो जाते कि उनका हित उनका अपना हित लगने लगता और देश का हित उन्हें अपने दुख के दिनों का आरंभ प्रतीत होने लगता।
मैं उस सूची को नहीं गिनाऊंगा जो कुशिक्षा से वंचितों को दिखाई दी और कुशिक्षितों को नहीं दिखाई दी। यह तथ्य तक कि शिक्षा के नाम पर उन्होंने वही सीखा और शिरोधार्य और आत्मसात किया है जो इस देश के मनोबल को तोड़ने, गुलाम बनाए रखने, कलह में आनन्द लेने के लिए उपनिवेशवादियों ने योजनाबद्ध रूप् में तैयार किए थे और जिसके निजी लाभों को पिजड़े के आराम के आदी हो जाने वाले तोते भूल कर मालिक के मुहावरे उनका अर्थ जाने बिना दुहराते रहते हैं।
नहीं देख सके और पिजड़े का रोना रोने के स्वाद से आगे उससे मुक्त होने का उन्हें न तो खयाल आया न ही इसका साहस कर सकते थे क्योंकि वे जानते हैं कि अंग्रेजी के वर्चस्व के समाप्त होने पर, अपनी भाषाओं को प्रधानता मिलने के बाद अंग्रेजी जबान नहीं अक्ल की परीक्षा आरंभ होगी और उसमें उन दलितों, उपेक्षितों, अकिंचनों, पिछड़ों की भारी भीड़ के बीच से उभरने वाली ओजस्वी मेधा के सामने वे कागजी फूलों में बदल जाएंगे। इसे वे नहीं देख सके, क्योंकि देखने का साहस न हुआ।
मैं एक दूसरा उदाहरण लूं। नोटबन्दी एक प्रयोग था, बहुत साहसिक प्रयोग था। अपना सब कुछ दांव पर लगा देने का एक प्रयोग था। वह अच्छा था या बुरा उस समय बहुतों की समझ में नहीं आया। केवल भारत के आम जन ने समझा कि ऐसा बहुत पहले हो जाना चाहिए था। हुआ क्यों नहीं। वह कष्ट सह कर भी उनको लगा यह जरूरी कदम है। मानसिक अन्धता के शिकार लोगों को लगा यह कष्ट देख कर जनता घबरा जाएगी, विद्रोह कर देगी। विद्रोह भड़के, अशान्ति पैदा हो इसके लिए अपनी व्याख्यायें दे कर समझाते रहे अमुक देश में ऐसा हुआ तो उसकी सरकार गिर गयी, अमुक देश में ऐसा हुआ तो सिर्फ इस सीमा में हुआ फिर भी उसके परिणाम यह रहे।
इस व्याख्या तक तो गनीमत है, बुद्धिजीवी वर्ग होता ही आलोचना के लिए है। परन्तु यह देख कर कि इसका असर नहीं पड़ रहा है संचार माध्यमों का उपयोग करके लोगों के बीच स्वयं जा कर उपद्रव करने के लिए उकसाते रहे। जो जितनी ही मासूमियत से उपद्रव फैलाने के तरीक ईजाद कर सकता था उसे उतना ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न ऐंकर मानते रहे और उसका मनोबल बढ़ाने के लिए उसके कसीदे पढ़ते रहे।
पर क्या वे यह देख सके कि वे दंगा भड़काने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। यह समझ सके कि इस देश की जनता, कम से कम हिन्दू जनता, जिन संस्कारों में ढली है उसमें वह दंगों से नफरत करती है, दंगे भड़काने वालों से नफरत करती है और इसलिए आप सरकार गिराने के लिए दंगे नहीं भड़का सके पर हिन्दू समाज के एक तबके में अपने प्रति नफरत अवश्य भड़का सके।
यह तो अवश्यभावी था, दयनीय यह है कि आप अपनी कुशिक्षाजनित समझदारी के चलते इसे न देख सके न समझ सके न अपने को अपराधी मान सके।
अन्धेपन का इससे बड़ा एक और सबूत है, जिसे पेश करने के बाद मैं इस पोस्ट को सुरसा के मुख की तरह फैलने से बचाना चाहूंगा।
मैंने कई बहानों से यह पीड़ा व्यक्त की कि कई तरह की कमियां वर्तमान व्यवस्था में हैं, कई आगे पैदा होंगी, इसलिए आलोचना के अधिकार की रक्षा के लिए निन्दा अभियान से बच कर, अपने विवेक को जिन्दा रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। मैंने अनवरत निन्दा को लत या नशे का रूप कहा और उससे बचने के प्रयत्न को अपनी लत से बाहर आने का संकल्प और इसे इस तथ्य को रेखांकित करते हुए किया कि निन्दा भी अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करने के बाद स्तुति में बदल जाती है, निन्दास्तुति अलंकार की तरह। इससे तुम जिसका विरोध करते हो उसका समर्थन या उसके पक्ष में तुम्हारे ही कथन का उपयोग होता है।
कहा, सुनने वाला वही अर्थ नहीं ग्रहण करता जो तुम उस तक पहुंचाना चाहते हो, वह कथित, कथ्य, सन्दर्भ, तथ्य सभी पर ध्यान देते हुए अपना अर्थ करता है। इस अन्धता में हमारे मित्रों को यह भी नहीं दिखाई दिया कि वे उल्टा जाप करते हुए वही काम अधिक प्रखरता से कर रहे हैं जो सीधा पाठ करने वाला करता है।
पर मेरी दुर्गति तो देखिए, जो आगाह करता है कि ऐसा मत करो, यह आत्मघाती है, अपने औजारों को बचा कर रखो, सही समय पर इस्तमाल करना। अभी अपनी विष्वसनीयता बचा कर रखों।
पर क्या किसी ने मेरे कथन पर ध्यान दिया, उन संभावनाओं को देखा जिनकी ओर उनका ध्यान दिला रहा था। दुर्भाग्य के कितने रूप होते हैं। आप अपना ही घर बर्वाद होते देखते हैं, चीखते हैं कि इसे बचाओ, घर के नाम पर हमारे पास यही घर है, और कोई सुनता ही नहीं।
मुलायम सिंह का उदाहरण न दूंगा जो अपने घर को स्वयं दीमकों से भर चुके थे जो फूंक मारने से गिर सकता था। उसे बचाने की उस कोशिश को भी उदाहृत न करूंगा जो उनके बेटे ने पिता की अवज्ञा करते हुए की, क्योंकि वह दामन के दाग लिए अपने को जो होना चाहता था वह होने की योग्यता नहीं पैदा कर सका।
मैं अपने मित्रों को भी दोष न दूंगा जिन्हें कभी बुराइयां दीखनी बन्द हो जाती हैं कभी अच्छाइयां या तो दीखती नहीं या इतनी डरावनी लगती हैं कि वे आंखें मूंद लेते हैं। क्या मुझसे असहमत होने वाले मित्र मुझे यह समझने का मौका देंगे कि वस्तविश्लेषण में मुझसे क्या चूक हुई है। वे मेरी आलोचना से कोई शिक्षा लें या न लें, मैं उनकी आलोचना का लाभ उठाना चाहता हूं।