Post – 2017-03-21

भाषा और इतिहास -३
(भोजपुरी की प्राचीनता )

भोजपुरी क्षेत्र की एक विशेषता और शौरसेनी क्षेत्र की उससे जुड़ी विशेषता का उल्लेख सुनीति बाबू ने किया है। यह है पालि और प्राकृत के सन्दर्भ में। मुझे ठीक स्मरण नहीं कि इसका उल्लेख उन्होंने हिन्दी के महत्व को रेखांकित करने के संदर्भ में किया था या कहीं अन्यत्र। वह कहते हैं कि पूरे देश में फैलने वाली भाषाएं जन्म यहां लेती हैं परन्तु जब वे शौरसेनी क्षेत्र में पहुंचती हैं तो उनका मानक रूप तैयार होता है जहां से यह अखिल भारतीय प्रसार पाता है और लौट कर भोजपुरी क्षेत्र में भी आता है। वालि और प्राकृत, बुद्ध और महावीर के विचरण क्षेत्र यही थे, और। हिन्दी के साथ भी यही हुआ, इसको सबसे पहले भांजपुरी क्षेत्र ने उत्साह से आगे बढ़ाया परन्तु इसका मानक रूप पश्चिम में पहुंच कर तैयार हुआ और यह अखिल भारतीय लोकप्रियता का एक कारण है। चूंकि यहां मुझे स्वयं कुछ अनिश्चय है इसलिए हिन्दी वाले प्रसंग को दुबारा जांचना उचित होगा।

जो भी हो, मैं इससे बहुत पीछी लगभग आठ हस हजार साल पीछे के इतिहास की बात करूूं तो जिस आदि भारोपीय या प्राथमिक देववाणी की बात हम कर रहे हैं उसका भी जन्म या स्थिर रूप इसी क्षेत्र के एक बहुत छोटे से हिस्से में पहाडी क्षेत्र में तैयार हुआ लगता है।

हम पीछे ऐशानी दिशा के जिस कोने में कृषि के निर्बाध चल पाने और उससे अर्जित संगठित बल के बाद उसके कुछ आगे बढ़ने की बात कर रहे थे वह नारायणी के किनारे का वह क्षेत्र प्रतीत होता है जिसका संबंध बाल्मीकि से भी जोड़ा जाता है। मेरे पास एंसा सोचने का दो आधार है। एक तो यह कि और शालिग्राम की बटिया जो शिव और विष्णु दोनों की प्रतीक मानी जाती है, वह दक्षिण भारत तक इसी क्षेत्र की होती है।

धान की भूसी अलग करने का तरीका यह था कि छिल्के को नाखून से (नखैर्निर्भिद्य) अलगकिया जाता था और बाद में किसी शिला पर नही की धारा में घिस कर सुडौल हुए पत्थर से हल्के दबाव के साथ अलग किया जाता था और नीले पत्थर की बटिया इस दृष्टि से अधिक उपयोगी मानी जानी रही लगती है। पुराने उपयोगी साधनों को बाद में पूजा जाने लगा । यही शालिग्राम की पूजा का तार्किक आधार लगता है। बटिकाश्म होने के कारण इसका शिव के रूप में और नारायणी की धारा से उपलब्ध होने के कारण नारायण के रूप में इसकी पूजा होने लगी होगी । भुने हुए धान को दल कर उसका खीला अलग करके उस चूर्ण को ही पहले सत्तू के रूप में खाया जाता था जिससे सत्तू की पुरानी संज्ञा शालिचूर्ण का संबन्ध है।
यदि हमारा अनुमान सही है तो हम समझ सकते हैं कि कभी कभी सांस्कृतिक प्रतीकों का इतिहास भी बहुत दीर्घ होता है और भाषा को समझने में इनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

दूसरा कारण राजवाडे के आदि आर्यभाषा संबंधी विचार हैं जिनका प्रतिपादन उनहोंने पाणिनीय व्यसाकरण के गहन विवेचन के आधार पर किया था। इस भाषा को उन्होंने अत्यन्त अविकसित और संस्कृत के परवर्ती गुणों से शून्य परन्तु अधिक बोधगम्य पाया था। इसका क्षेत्र उन्होंने मगध के उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र में माना था यद्यपि उनकी मान्यता थी कि उससे भी पहले यह बोली हिमालय के उत्तर में बोली जाती रही होगी। हम नहीं जानते कि अपने इस विचार में वह मैक्समुलर से किसी रूप में प्रभावित हुए थे या नहीं। उन्होंने इस भाषा को रानटी या जंगली, या भदेस भाषा की संज्ञा दी।

इस भाषा की जिन विशेषताओं का उन्होंने उल्लेख किया है उनमें से अनेक की झलक भोजपुरी में इतने बदलाव आने के बाद भी बनी रह गई है या इसके नमूने यदा कदा सुनने को मिल सकते हैं।