Post – 2017-03-20

भाषा और इतिहास – 2

वे कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं, जिनमें अनेक प्रतिस्पर्धी बोलियों के बीच किसी एक ने, दूसरी बोलियों से अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर ली, और इसलिए पहले वह जिनकी बोली नहीं थी, वे भी उसे समझने और सीखने का प्रयत्न करने लगे। आर्थिक और सामाजिक विकास, धर्मसंस्थाओं और प्रशासकीय संस्थाओं के विकास के बाद इसके कारण आसानी से चिन्हित किए जा सकते हैं। परन्तु आदिम चरण पर जहां सभी बराबरी पर रही होंगी, किसी एक बोली की प्रधानता का कारण उस समुदाय के किसी मामले में दूसरों से आगे बढ़ जाने के कारण हुआ और इसे एक भाषाविज्ञानी (कोलिन रेन्फ्रू) ने कृषि विद्या में अग्रता माना है और जैसा एक बार पहले कह आए है, कृषि के मामले में सबसे पहले जिन स्थलों को सबसे पुराना पाया गया था वे सभी पश्चिम एशिया के उस क्षेत्र में पाए जाते हैं जिसे मोटे तौर पर उर्वर अर्धचन्द्र की संज्ञा दी गई। बाद की खोजों से जिन स्थलों का पता चला उनमें भारत के कतिपय स्थल सामने आए और इसके कारण एक दूसरे पुरातत्ववेत्ता (जैरिज) का दावा है कि पहला किसान भारतीय था और खेती धान की खेती से आरंभ हुई थी।

धान की खेती में अपनी अग्रता का दावा चीन भी करता रहा है, परन्तु हम उस झगड़े में न पड़ेंगे। हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि यदि कृषि में अग्रता के कारण उसकी विद्या के साथ भाषा का प्रसार हुआ तो भारोपीय अन्तर्क्रिया के क्षेत्र में यह अग्रता अब भारत के पक्ष में जाती है।

इसके पक्ष में कुछ और बातें हैं जिनको जातीय स्मृति पर आधारित माना जा सकता है। इन्हें हम निम्न रूप में पाते हैंः

1. भारत का यह दावा है कि खेती का आरंभ इसी ने किया, किसी अन्य से ग्रहण नहीं किया, पर साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि गन्धर्व या गंधार क्षेत्र यव की खेती में अधिक समृद्ध है। आज गंधार कंधार की याद से जुड़ा है परन्तु पहले यह पश्चिमी पंजाब और उससे आगे का क्षेत्र माना जाता था।

2. कृषिकर्म को याजिकीय शब्दावली में यज्ञ के माना गया है। यज्ञ का अर्थ उत्पादन होता है और इसके अर्थ की व्याप्ति बहुत अधिक है। इसमे प्रजावृद्धि से लेकर सभी प्रकार के उत्पाादन आ जाते हैं । परन्तु जिस यज्ञ सेे असुरों का विरोध था वह कृषिकर्म ही माना जा सकता है ।यज्ञ को स्थापित (संस्थित) करने, और फिर यज्ञ को कुछ और आगे बढ़ाने या (तन्वन), और फिर इसके विस्तार (विष्टार) का आशय हम क्रमश: स्थायी कृषि, फिर उस क्षेत्र से आगे बढ़ कर नई भूमि को अधिकार में लेना और इसके बाद दूसरों को भी कृषिकर्म में प्रवृत्त होने को प्रेरित करना मानते हैं।

3. यज्ञ को संस्थित करने की समस्या का बहुत विस्तार से और अनेक स्रोतों में अनेक रूपों में जिक्र किया गया है। इसमें असुरों का आहार संचयी या नोट खसोट कर खाने वाला (स्व स्व आस्ये जुह्वतश्चेरु:) और निकम्मा (अकर्मा दस्यु अभि नो ) बताया गया है और सुरों को उत्पादक, दृढ़निश्चयी और उद्यमी। कृषिकर्म को देवों ने आरंभ किया, उन्होंने धरती परन्तु अपनी से बाज न आए। कृषिकर्म के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण सूचना यह है कि जो वन्य (प्रघास) रूप में उपलब्ध अन्न थे उन्हीं के उत्पादन से खेती का आरंभ हुआ। ये विवरण कृषि के आदिम प्रयोगों के पाच सात हजार साल बाद के हैं इसलिए इनमें व्रीहि और यव को वरुण प्राघास कहा गया है। वरुण का इस सन्दर्भ में आशय यह लगता है कि पहले इन घासों को तैयार होने से पहले नोचने चोथने पर रोक लगी, इसका वारण किया गया, और फिर बाद में स्वयं इनका उत्पादन आरंभ हुआ। जिनको इसका लाभ मिला, उन्होंने पाया कि इससे शरीर अधिक पुष्ट और नीरोग होता है – वरुण प्रघास से अनमीव और अकिल्बिष सन्ताने पैदा होने लगी।

5. इस अनमीव या नीरोग और अकिल्बिष या निष्पाप उत्पादन पद्धति के कारर्ण इसके प्रसार के अभियान को आर्यव्रत कहा गया जिसके विश्व में प्रचारित करने की कथा भाषा के प्रचार से जुड़ी है । यह ज्ञान इस सदाशयता से इसलिए प्रसारित किया जा रहा था कि यदि हैवानियत में पड़े जनों ने उत्पादन आरंभ कर दिया तो लूट पाट बन्द हो जाएगी और उनका अपना संकट समाप्त हो जाएगा।

6. जिन लोगों ने खेती आरंभ की उनको देव या बरम कहा गया, और वह आदिम भाषा इन देवों के बीच ही प्रचलित थी, इसी क्रम में विकसित हुई और संभवतः दूसरों ने इसे देववाणी नाम दिया। देववाणी इस तर्क से संस्कृत और वैदिक की पूर्ववर्ती भले हो, इन दोनों से अलग थी और इसके भी विकास के कई चरण थे जिसके बाद यह संस्कृत बनी।

7. हमारी जातीय परंपरा में यह सूचना मिलती है कि देवों को अपने नये उपक्रम के कारण विवशता में इधर उधर भागना पड़ा और पश्चिमी परंपरा में जो भी जातीय स्मृति के आधार पर बहुत बाद में लिखी गई, कहा गया है कि पहले आदम देवों के लोक में रहते थे जो फलदार वृक्षों और वनस्पतियों से भरपूर था, जलधाराओं से भरापूरा था और वह वहां से निकाले जाने पर धरती पर उतरे। इसमें अरबों में सुरक्षित परंपरा में आदम गन्दुम खाने के अपराध में वहां से निकाले गए थे, या कहें खेती उनके निष्कासन का कारण बनी थी। पश्चिमी परंपरा में ईदन गार्डन या उल्लास और समृद्धि का उद्यान पूर्व में कहीं था। दोनों परंपराओं में यह अप्रत्याशित साम्य निर्णायक प्रमाण बन जाता है।

8. खेती देवों ने आरंभ की, कृषिकर्म में उनकी भूमिका प्रधान थी इसकी पुष्टि करने वाला एक उल्लेख यह भी है कि इन्द्र पहले जोत के मालिक थे और मरुद्गण कीनाश थे – इन्द्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतु कीनाश: आसन् मरुतः सुदानव । इसमें यह इंगित है कि बहुत प्राचीन अवस्था में भूमि पर अधिकार करने वाला एक स्वामिवर्ग अस्तित्व में आ गया था और उसने कृषिश्रम दूसरों पर लाद दिया था।

अब इन सूचनाओं के आधार पर हम तय कर सकते हैं कि वह आदि क्षेत्र कौन सा था जिसे भारोपीय की आदिम जननी का क्षेत्र माना जा सकता है।

बताया यह गया है कि चारों ओर से दुत्कारे भगाये जाने के बाद देव पूर्वोत्तर की दिशा में पहुंचे और वहां उनको असुरों के उपद्रव का सामना नहीं करना पड़ा इसलिए वहीं उन्होंने यज्ञ को संस्थित किया। इस कारण इस दिशा के दो नाम है। यहां पहुंचने पर असुर देवों को पराजित नहीं कर सके इसलिए इसका नाम अपराजिता दिशा है और इस दिशा में ही उन्हें ऐश्वर्य मिला, इसलिए इसका दूसरा नाम ईशानी है। परन्तु यह तय किये बिना कि इस बात का उल्लेख करने वाली कृतियां कहां रची गई हैं, उससे पूर्वोत्तर की दिशा और स्थान का निश्चय नहीं किया जा सकता।

यहां पहुंच कर भाषाविज्ञान की अपनी भूमिका आती है। सबसे पहले ग्रियर्सन ने इस बात को लक्ष्य किया था कि पूरबी हिन्दी में भारोपीय की प्राचीनतम ध्वनि घोष महाप्राण सर्वाधिक सुरक्षित हैं। सुनीति बाबू ने इसको दुहराते हुए इस पर आश्चर्य जताया था कि यह हुआ कैसे हो सकता है। कारण, वह स्वयं भी आर्यों के बाहर से आने के मत से सहमत थे। ऐसी स्थिति में पंजाब से होकर पूर्वोत्तर भारत आनेवालों की बोली की ध्वनिमाला में यह ध्वनि कहां से आ गई जब कि पंजाबी में यह पाई नहीं जाती। रामविलास जी ने आगरा इंस्टीट्यूट में उपलब्ध सामग्री के आधार पर इसका विशद तुलनात्मक अध्ययन सभी भारतीय भाषाओं को लेकर किया था और यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि इस क्षेत्र से उत्तर दक्षिण, पूरब पश्चिम किसी भी दिशा में बढ़ें तो ये ध्व

पूरबी हिन्दी उसी क्षेत्र की भाषा को संज्ञा दी गई थी जिसे भोजपुरी कहते हैं। सुनीति बाबू ने बहुत पहले हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा होने का बहुत तर्कपूर्ण समर्थन किया था, परन्तु उनके इस सुझाव के कारण कि यदि इसकी लिपि रोमन कर दी जाय तो इसकी सर्वग्राह्यता बढ़ जाएगी और भोजपुरी को हिन्दी की बोली/भाषा कहने पर हिन्दी क्षेत्र के हिन्दी प्रेमियों ने उन्हें अपनी नजर से उतार दिया था। इससे उनका चित्त भी खिन्न हुआ था। आज फिर जब भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में जगह देने की मांग राजनीतिज्ञों द्वारा की जाने लगी है तो यह विवाद के केन्द्र में आ गई है।

हम क्षेत्र के महत्व और हमें ज्ञात या कल्पित इसकी प्राचीनतम अवस्थाओं का विवेचन आगे के लिए छोड़ सकते हैं। हमारा असंतोष सस्युर से केवल इतना ही रहा है कि उन्होंने मैले पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। सन्दिग्ध आकड़ों को अन्य सुलभ साधनों से परिष्कृत करते हुए विश्वसनीय बनाया जा सकता है, इसका ध्यान उन्हें न रहा।