Post – 2017-03-20

मैं उन आंकड़ों को किसी ज्ञात व्यवस्था में समाहित न कर पाने के कारण भाषा के विषय में जो मेरी अलग सोच बनी उसे लेकर अपना पक्ष और सिद्धान्त रखना चाहता हूं। मेरा ज्ञान बहुत कार्यसाधक है, आधिकारिक नहीं इसलिए दूसरे मित्रों से जिनके पास समय है, विषय पर अधिकार करने की इच्छा है उनको सौंप कर चाहता था कि वे इस काम को करें। इनमें डाक्टर दयानन्द श्री वास्तव, अजित वडनेरकर और राधावल्लभ जी का भी नाम था।

एक समय था जब तुलनात्मक भाषाविज्ञान ही भाषा का विज्ञान माना जाता था। यह राजनीति से प्रेरित था और इसमें आंखड़ों की तोड़मरोड़ करके समस्त ज्ञान विज्ञान का सदा सदा से यूरोप को ही स्रोत सिद्ध करने की जिद के कारण इसमें खीच तान अधिक की गई और इसलिए इसके आंकड़ों पर भरोसा किया जा सकता है, इसके निष्कर्षों को बहुत सावधानी से देखने की जरूरत है। वे अपने ही सिद्धान्त का पूरा निर्वाह नहीं कर पाते इसलिए उनके खंडन के लिए किसी प्रकांड विद्वान की जरूरत नहीं है।

मेरा लेखन उन कमियों को या उन अन्तर्वरिोधों को सामने लाने के लिए है अपने को शास्त्रज्ञ सिद्ध करने के लिए नहीं। शास्त्र बुद्धि को ज्ञानबोझ से पठार में बदल देता है। कविता करने के लिए किसी विषय का आचार्य होना जरूरी नहीं न नये आविष्कार के लिए आविष्काार विज्ञान जैसी कोई शाखा है। जब ऐसे आंकड़ों का सामना होता है जिनका समाधान अब तक की ज्ञानव्यवस्था में नहीं हो पाता तो पुराना ढाचा अपने महारथियों के साथ चरमरा जाता है और उस चरमराने के बाद उस मलबे में बहुत कुछ जुटाने और संभालने लायक भी होता है। इसलिए इस चर्चा में केवल व्यक्त विचार को तर्क के आधार पर सुधारने, खंडन करने का प्रयास किया जाय तो यह अधिक उपयोगी होगा। ज्ञानी लोग हमारी सोच को पीछे ले जाते हैं, सन्देह करने वाला आगे का रास्ता खोजने में सहायक होता है।