भाषा और इतिहास – 1
पकवान पैदा नहीं होता, उसे बहुत सारी पैदा की गई वस्तुओं से बनाया जाता है। उन वस्तुओं को पैदा करने में जितना समय] श्रम और कौशल लगता है, उससे बहुत कम समय] श्रम और कौशल से पकवान बना लिया जाता है। कोई कहे कि पकवान के गलने बिखरने से गेहूं] खांड़, घी पैदा हुआ तो आप उस व्यक्ति को विक्षिप्त कह कर अलग हो जाएंगे, या उसे, उसके लिए बनी सही जगह में, पहुंचाने का प्रयास करेंगे। परन्तु यही काम हम भाषा के इतिहास के विषय में करने वालों को जो कहते रहे कि एक पकी पकाई भाषा से अधपकी प्राकृतें पैदा हुईं, उनके क्षरण से अपभ्रंश पैदा हुई और अपभ्रंश से हमारी बोलियां पैदा हुई तो हम उन्हें सिरफिरा कहने की जगह शिरोधार्य करते रहे, पागलखाने की जगह अपने दिमाग में जगह देते रहे।
हमें जब भी किसी के आदिम चरण की बात करनी हो, उसके नितान्त अविकसित और विपन्न रूप का अनुमान ही करना होगा जिसकी सही रूप् रेखा खयाली ढंग से बनाई नहीं जा सकती। इस विषय में कोई सन्देह नहीं कि भारोपीय अपने आदिम चरण पर एक अविकसित बोली थी। आहारसंग्रह और शिकार के चरण पर सभी बोलियां एक जैसी ही अनगढ़ और विपन्न थीं। सभी का विकास दूसरी भाषाओं के अर्थात उन्हें बोलने वाले समुदायों के साहचर्य के क्रम में होता आया है। इसलिए वनांचलों की भी किसी नितान्त पिछड़ी बोली के विषय में भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसका चरित्र, शब्दभंडार आज से दस पन्द्रह हजार साल पहले का है।
यह बदलाव सभी स्तरों पर हुआ है। परन्तु वह बोली जिसका इतना उन्नत विकास हुआ कि दूर दूर तक उसका प्रसार हो गया, जिससे यह भ्रम पैदा हो जाय कि पहले यही एकमात्र भाषा थी जिससे दूसरी सभी भाषाएं पैदा हुई हैं, तो यह मानना होगा कि इसका विविध भाषाभाषी समाजों से उतना ही और गहन संपर्क हुआ होगा और इस पर उन सबका प्रभाव पड़ा होगा। यह प्रभाव सभी घटकों पर पड़ा होगा।
यदि हमारे पास उन अवस्थाओं की सभी भाषाओं की संपदा होती तो हम आसानी से बता सकते थे, कि विश्वंभरा संस्कृत ने अपने निर्माण क्रम में किन किन बोलियों से या भाषा बनने की दिशा में बढ़ रही विभाषाओं से क्या क्या कब कब ग्रहण किया, परन्तु वह उपलब्ध नहीं है। सस्युर नाम के महान भाषाविज्ञानी हुए हैं। उनकी महानता का पैमाना यह िक वह मुझसे भी महान थे। मैं जो जानता हूं उसे लिखने के लिए लोगों को तलाशता रहा हूं, फिर भी किसी के तैयार न होने पर मैंने अपनी किताबें लिखीं, सस्युर की महानता यह कि उन्होंने कोई किताब न लिखी, उनके शिष्यों ने उनकी क्लास नोट के आधार पर जो कुछ लिखा वही उनका ऐसा योगदान है कि उसके बाद से भाषाविज्ञान की सोच ही बदल गई ।
कहा, जो तुलनात्मक भाषाविज्ञान है उसमें द्विकालिक डाटा या आधार सामग्री मिलती है जिसकी तुलना हो ही नहीं सकती और जहां आधार सामग्री ही अविश्वसनीय है वहां विज्ञान तो हो नहीं सकता। इसलिए उन्होंने ऐतिहासिक और तुलनात्मक विज्ञान को विज्ञान न कह कर शास्त्र घोषित कर दिया। उससे पहले फिलालोजी उतनी ही वैज्ञानिक थी जितनी जिआलोजी, साइकालोजी थी और उतनी आप्तता उसकी आज भी बनी हुई है।
मैं अपने को जिस खुशफहमी में सस्युर से बड़ा भाषाविज्ञानी मानता हूं वह यह है कि सस्युर विज्ञान को प्रबन्धकीय कौशल मानते थे, जो सुनिश्चित है उसका प्रबन्धन करके एक नया शिगूफा खिलाना है, मैं विज्ञान को अज्ञात को जानने की, मैडनेस के भीतर मेथड की तलाश का अनुशासन मानता हूं और इसलिए विज्ञान में अनुसंधान और आविष्कार का विशेष महत्व है और तुलनात्मक विज्ञान इन चुनौतियों का सामना करता है इसलिए यह यह विशेष भाषाविज्ञान है ।
जैसे भाषाविज्ञान की दूसरी शाखाएं होती हैं। अपने विशेष क्षेत्र के अनुसार ढल कर उसमें अपनी विश्वसनीयता अर्जित करती है। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान सच कहें तो भाषा के इतिहास का विज्ञान है, किसी प्राचीन चरण पर किसी भाषा के प्रसार का अध्ययन करने का विज्ञान है। भाषा में समाज का समग्र यथार्थ प्रतिबिंबित होता है इसलिए हम भाषा के माध्यम से समाज की समझ पैदा कर सकते हैं और यह इतिहास के अध्ययन के अनेकानेक स्रोतों में से एक हो सकता है एकमात्र नहीं। इसे इतर स्रोतों के प्राप्त जानकारी के सन्दर्भ में अपनी संगति प्रमाण्ति करके ही अपनी आप्तता प्राप्त करनी है। पर इसकी वैज्ञानिकता को किसी दूसरे क्षेत्र में परखने के बाद इसे भरोसे का न पाकर इसे खारिज कर देना कुछ ऐसा है जिसे हम अपने विचार की मौज में उसकी वैध सीमा से बाहर जाने का मामला मान सकते हैं। इसलिए मैं ऐतिहासिक विज्ञान को जैसा मैंने कहा पुरातत्व के समान ही एक विज्ञान मानता हूं जिसके आंकड़े बोलते हैं पर दिखाई नहीं देते, जब कि पुरातत्व के घटक दिखाई देते हैं, पर बोल नहीं पाते ।
इसलिए इन दोनों का सहयोग आवश्यक है। यदि ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की विश्वसनीयता को यूरोप के सभी विद्वानों ने सन्देह से देखा तो इसका कारण यह है िक इस विज्ञान का जो उपयोग करके जो कुछ सिद्ध कर चुके थे वह मान्य बना रहे, आगे का अध्ययन रुका रहे, जिससे उससे गहन स्तर पर प्रकट होने वाली सचाई पर परदा पड़ा रहे और कूटनीतिक कारणों से उनकी गलत व्याख्यायें इतिहास का सच बनी रहें।