Post – 2017-03-19

भाषा और समाज 5

अब हम उस तीसरे भाषाई समूह को लें जिसका संस्कृत पर कम परन्तु बोलियों पर काफी प्रभाव पडा। यह वह समुदाय है जो दन्त्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। उसने ठीक उन्हीं अर्थों में जिन शब्दों के तकार का टकारयुक्त उच्चारण किया वे तो बचे न रहे, क्योंकि प्रतिस्पर्धा में दो में से एक का ही ठहरना संभव था परन्तु जो नई व्यंजनाएं टकार के साथ आईं और जिनमें भी ताप, ज्ञान, प्रकाश आदि का भाव था उन पर दृष्टि डाली जा सकती है।

ये हैं टीक, टीका, टिकुली, टिकिया, टिकोरा, टिकठी, टीकुर – सूखी भूमि, जलमग्न क्षेत्र के आगे का भाग, टिकरी, टिमटिमाना, टिप्पणी, संभव है अंग्रेजी कम टिक के अनेक अर्थो में एक का स्रोत ठीक से हो, टिकरी – तवे की जगह सीधे आग पर सेंकी जाने वाली रोटी, भोज. टेम- दिए की लौ ।

इस तरह हम पाते हैं कि भारतीय भाषा परिधि में चार प्रभावशाली समुदाय बहुत प्राचीन काल से सक्रिय दिखाई देते हैं, एक जिसमें घोष महाप्राण का अभाव था, दूसरा, जिसमें इसके प्रति विशेष अनुराग था और तीसरा जिसके प्रभाव से मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश हुआ और एक चैथा जो तालव्य ध्वनियों के प्रति विशेष रुझान रखता था। जिसके प्रभाव से चित, चित्र, चिता, चिति, चैत्य, चिंता, चिन, चिनचिनाना, चिनार, चिन्ह, आदि, का जनन हुआ।

ऐसा नहीं है कि ये किसी देश से आए अपितु मुख्यधारा में इनकी सक्रियता और महत्व कब और कैसे इतना प्रधान हो गया कि इनके उच्चारण, इनकी ध्वनि का उसमें समावेश हुा। यदि हमारा यह प्रस्ताव सही है तो यह अब तक भाषाविज्ञान की कई स्थापनाओं से तो टकराता ही है परंपरागत मान्यताओं से भी इसका टकराव होता है। भारोपीय पर काम करने वालों ने समूचे क्षेत्र की ध्वनियों को समेटते हुए इनके आद्य रूप कल्पित किए और एक विशाल वर्णमाला तैयार की जिसमें हमारे उच्चारणतन्त्र में आए परिवर्तनों के अनुसार ध्वनियों का स्थिरीकरण हुा। केवल मूर्धन्य ध्वनियां को उन्होंने भारतीय विशेषता माना जब कि यूरोप की बोलियों में ट और ड के उच्चारणों की एक भिन्न व्याख्या देते हैं। हमारी समझ से देशान्तर में फैलने से पहले मुख्य धरा के संपर्कसूत्र का काम करने वाली भाषा में उन सभी ध्वनियों का प्रवेश हो चुका था परन्तु इनका उच्चारण जिन बोलियों के क्षेत्र में सम्भव न था, जैसे घोष महाप्राण का या मूर्धन्य ध्वनियों का वहां वे नहीं चल पाईं . हम ऐसा सुझाते हुए दो बाते कहना चाहते हैं. पहला भारतीय भाषाओँ में उपस्तर की नहीं सांस्कृतिक प्रक्रिया में सहभागिता की समस्या प्रधान है, उपस्तर की भूमिका बाहर के प्रसार में ही तलाशा जाना चाहिए.